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रुपये की हैसियत में गिरावट के निहितार्थ, डालर के मुकाबले कमजोर होते रुपये की स्थिति में RBI को रहना होगा सतर्क

लंबे समय से स्थिर रुपये में अचानक गिरावट आने लगी है। रुपये और डालर की विनिमय दर छह दिसंबर 2021 को 75.3 रुपये प्रति डालर थी जो 25 अप्रैल 2022 को 76.7 रुपये और 24 मई 2022 को 77.6 रुपये प्रति डालर तक पहुंच गई थी।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 30 May 2022 10:28 AM (IST)Updated: Mon, 30 May 2022 10:28 AM (IST)
रुपये की हैसियत में गिरावट के निहितार्थ, डालर के मुकाबले कमजोर होते रुपये की स्थिति में RBI को रहना होगा सतर्क
डालर के मुकाबले कमजोर होते रुपये की स्थिति में भारतीय रिजर्व बैंक को रहना होगा सतर्क। प्रतीकात्मक

डा. अश्विनी महाजन। पिछले कुछ समय से दुनिया भर में महंगाई बढ़ रही है। अप्रैल में अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोपीय संघ में महंगाई की दर क्रमश: 8.3 प्रतिशत, 7.0 प्रतिशत और 7.5 प्रतिशत रही। इसी क्रम में भारत में भी अप्रैल में खुदरा महंगाई की दर 7.79 प्रतिशत रिकार्ड की गई, जो पिछले लगभग पांच वर्षो की तुलना में काफी अधिक मानी जा रही है। रुपये में आ रही गिरावट देश में महंगाई की समस्या को और अधिक बढ़ा सकती है। भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर माइकल पात्र की एक रपट के अनुसार रुपये में एक प्रतिशत की गिरावट हमारी महंगाई को 0.15 प्रतिशत बढ़ा सकती है, जिसका असर अगले पांच माह में दिख सकता है।

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समझा जा सकता है कि भारत बड़ी मात्र में पेट्रोलियम उत्पादों का आयात करता है और पिछले दिनों कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतें काफी बढ़ चुकी हैं। ऐसे में रुपये की गिरावट, भारतीय उपभोक्ताओं के लिए पेट्रोलियम कीमतों को और अधिक बढ़ा सकती है, जिस कारण कच्चे माल, औद्योगिक ईंधन, परिवहन लागत आदि भी बढ़ सकती है। रिजर्व बैंक इस बात को समझता है कि रुपये की कीमत में गिरावट भारी महंगाई का सबब बन सकती है।

ग्रोथ पर भी लग सकता है ब्रेक : इतिहास साक्षी है कि तेज महंगाई ग्रोथ पर भी प्रतिकूल असर डालती है। ऐसा इसलिए है कि एक ओर महंगाई को थामने और दूसरी ओर वास्तविक ब्याज दर को भी धनात्मक रखने के लिए रिजर्व बैंक को रेपो रेट को बढ़ाना पड़ता है। ब्याज दरों में वृद्धि ग्रोथ की राह को और मुश्किल बना देती है, क्योंकि इससे उपभोक्ता मांग, व्यावसायिक और बुनियादी ढांचा निवेश सभी पर प्रतिकूल असर पड़ता है। इसीलिए भारतीय रिजर्व बैंक को सरकार द्वारा निर्देश है कि वे मुद्रा स्फीति को चार प्रतिशत (जमा-घटा दो प्रतिशत) के स्तर तक सीमित रखे।

रिजर्व बैंक की भूमिका : पिछले लंबे समय से भारत में रुपये की अन्य करेंसियों के साथ विनिमय दर, बाजार द्वारा निर्धारित होती रही है। सैद्धांतिक तौर पर सोचा जाए तो डालर और अन्य महत्वपूर्ण करेंसियों की मांग और आपूर्ति के आधार पर रुपये की विनिमय दर तय होती है। पिछले कुछ समय से हमारे आयात अभूतपूर्व रूप से बढ़े हैं। हालांकि इस बीच हमारे निर्यात भी रिकार्ड स्तर तक पहुंच चुके हैं, लेकिन आयात में तेजी से वृद्धि होने के कारण हमारा व्यापार घाटा काफी बढ़ चुका है। अपने देश में पोर्टफोलियो निवेश भी बड़ी मात्र में आता रहा है। लेकिन पिछले लंबे समय के दौरान ये देश से भारी मात्र में निवेश वापस ले गए हैं। इसका असर हमारे शेयर बाजारों पर तो पड़ा ही है, डालरों की आपूर्ति भी प्रभावित हुई है।

जब भी रुपये में गिरावट शुरू होती है तो सट्टेबाज इत्यादि भी पैसा बनाने के लिए नई तरकीबें लगाकर प्रयास शुरू कर देते हैं और अपनी गतिविधियों से बाजार में डालर की कृत्रिम कमी कर देते हैं। रिजर्व बैंक भारत के विदेशी मुद्रा भंडारों का संरक्षक तो है ही, साथ ही उसके पास करेंसी की विनिमय दर को स्थिर रखने का भी दायित्व होता है। ऐसे में जब बाजार में सट्टेबाज और बाजारी शक्तियां रुपये को कमजोर करने की कोशिश करती हैं तो रिजर्व बैंक महंगाई को थामने, मौद्रिक स्थिरता और ग्रोथ के लिए आवश्यक परिवेश बनाने के अपने दायित्व के मद्देनजर विदेशी मुद्रा बाजार में हस्तक्षेप करता है और आवश्यकता पड़ने पर अपने विदेशी मुद्रा भंडारों से डालर बेचते हुए उसकी आपूर्ति बढ़ा देता है और बाजार में सट्टेबाजों द्वारा उत्पन्न डालरों की कृत्रिम कमी का समाधान कर देता है।

रुपये का क्या है भविष्य : रुपये के मूल्य के बारे में सदैव दो प्रकार की राय सामने आती है। एक प्रकार के विशेषज्ञों का मानना है कि रुपये में अवमूल्यन अवश्यंभावी है, और इसलिए रिजर्व बैंक को रुपये के मूल्य को थामने हेतु अपनी बहुमूल्य विदेशी मुद्रा को दांव पर लगाने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इससे विदेशी मुद्रा भंडार घट सकता है और रुपये में सुधार भी नहीं होगा। इसलिए रुपये को अपने हाल पर छोड़ देना चाहिए। ऐसे विशेषज्ञों का तर्क यह है कि भारत में आयातों के बढ़ने की दर निर्यातों के बढ़ने की दर से हमेशा ज्यादा रहती है, इसलिए डालरों की अतिरिक्त मांग डालर की कीमत को लगातार बढ़ाएगी। उनका यह तर्क है कि जब-जब कच्चे तेल की कीमतें बढ़ेंगी, तब-तब रुपये में गिरावट होगी।

दूसरे प्रकार के विशेषज्ञों का यह मानना है कि डालरों की अतिरिक्त मांग यदाकदा उत्पन्न होती है और फिर से परिस्थिति सामान्य हो जाती है। ऐसे में बाजारी शक्तियां रुपये में दीर्घकालीन गिरावट न लाने पाएं, इसलिए रिजर्व बैंक का विदेशी मुद्रा बाजार में हस्तक्षेप महत्वपूर्ण है। प्रश्न यह है कि क्या धीरे धीरे रुपये का अवमूल्यन अवश्यंभावी है अथवा रुपये को मजबूत करने की रणनीति बनाना असंभव है। पिछले काफी समय से सरकारों द्वारा मुक्त व्यापार की नीति अपनाई गई और यह प्रयास हुआ कि कम से कम आयात शुल्कों पर आयात को अनुमति दी जाए। चीन समेत कई देशों द्वारा देश में आयातों की डंपिंग के चलते हमारे उद्योगों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और आयातों पर हमारी निर्भरता बढ़ती गई। इसके साथ-साथ हमारा व्यापार घाटा भी अभूतपूर्व तरीके से बढ़ गया।

लगभग दो वर्षो से सरकार के ऐसे कई प्रयास देखने को मिल रहे हैं, जिससे आयात पर हमारी निर्भरता आने वाली समय में कम हो सकती है। आत्मनिर्भर भारत योजना के परिणाम अब सामने आ रहे हैं और दवा उद्योगों के लिए कच्चा माल, सेमीकंडक्टर, इलेक्टिक वाहन, टेलीकाम उत्पादों समेत अनेक उत्पाद अब भारत में बनने लगे हैं। आयातों में होने वाली कमी से डालर की मांग घट सकती है। उधर भारत द्वारा रूस से कच्चा तेल खरीदने और उसका भुगतान रुपये में करने के कारण डालर की मांग में और कमी हो सकती है और इसका परिणाम रुपये की बेहतरी के रूप में देखा जा सकेगा।

[प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय]


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