कोल्हापुर के गांव में मिले दुर्लभ बेसाल्ट स्तंभ, यह है खासियत
एक मीटर तक है इन पंचभुजीय स्तंभों का व्यास, एक से 10 मीटर की ऊंचाइयों के अलग-अलग स्थायी स्तंभ भी देखे गए इस क्षेत्र में।
वास्को द गामा (गोवा), आइएसडब्ल्यू। भारत में स्थित दक्कन ट्रैप को दुनिया भर में इसकी ज्वालामुखीय विशेषताओं के लिए जाना जाता है। इसी क्षेत्र में अब भारतीय वैज्ञानिकों ने पूर्ण रूप से विकसित एक दुर्लभ बेसाल्ट स्तंभ संरचना का पता लगाया है। बेसाल्ट से बने बहुभुजीय स्तंभों का यह समूह महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले के बांदीवाड़े गांव में मिला है। स्तंभाकार संरचना युक्त यह बेसाल्ट प्रवाह 6.56 करोड़ वर्ष पुराने पन्हाला गठन का हिस्सा है, जो दक्कन ट्रैप की सबसे कम उम्र की संरचनाओं में से एक माना जाता है।
यहां पाए गए बेसाल्ट स्तंभ विघटन के विभिन्न चरणों में मौजूद हैं। पूर्व- पश्चिम की ओर उन्मुख ये स्तंभ कम ऊंचाई क्षेत्र (समुद्र तल से लगभग 850 मीटर ऊपर) से ऊपर उठे हुए हैं, जो लैटराइट से ढके दो पठारों को जोड़ते हैं। इन पंचभुजीय स्तंभों का व्यास करीब एक मीटर तक है। इस क्षेत्र में एक से 10 मीटर की ऊंचाइयों के अलग-अलग स्थायी स्तंभ भी देखे गए हैं।
इस कारण हुआ निर्माण
इस अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता डॉ. केडी शिर्के ने बताया कि नई खोजी गई यह साइट अद्वितीय और उल्लेखनीय है। इन बहुभुजीय स्तंभों का निर्माण मौसम और स्तंभाकार विशाल बेसाल्ट के क्षरण के कारण हुआ है। इस साइट में भू-विरासत क्षेत्र के रूप में चिह्नित किए जाने के गुण मौजूद हैं और इसे राष्ट्रीय भूवैज्ञानिक स्मारक के रूप में घोषित किया जाना चाहिए।
यह है खासियत
ये स्तंभ पूर्ण विकसित होने के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों, जैसे- उत्तरी आयरलैंड के जायंट्स कॉजवे और कर्नाटक के सेंट मैरी द्वीप के मुकाबले मजबूत भी हैं। पन्हाला साइट भूवैज्ञानिक अध्ययनों की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। इस क्षेत्र में बेसाल्ट प्रवाह से जुड़ी विशेषताओं को समझने के लिए अधिक अध्ययन किए जाने की आवश्यकता है।
कई ज्वालामुखीय विस्फोट हुए
करीब 30 हजार वर्षों से अधिक समय तक इस क्षेत्र में ज्वालामुखीय विस्फोटों की श्रंखला हुई है। दक्कन ट्रैप में विशेष रूप से क्षैतिज लावा प्रवाह के निशान, समतल चोटी वाली पहाड़ियां और चरणबद्ध छतों का विकास देखा जा सकता है।
इन्होंने की खोज
यह खोज सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय, डॉ. डी.वाई. पाटिल विद्यापीठ, पुणे और कोल्हापुर स्थित डी. वाई. पाटिल कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी और गोपाल कृष्ण गोखले कॉलेज के शोधकर्ताओं के एक दल ने की है।