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    लक्ष्मीबाई की तरह एक और रानी ने लिया था अंग्रेजों से लोहा, आजादी के बाद मिला पद्म भूषण; कहानी Rani Gaidinliu की

    Updated: Thu, 14 Aug 2025 06:45 PM (IST)

    यह लेख रानी गाइदिन्ल्यू के बारे में है जिन्होंने 17 साल की उम्र में ब्रिटिश सेना के खिलाफ विद्रोह किया था। उन्होंने जादोनांग के आध्यात्मिक आंदोलन को आगे बढ़ाया और नागा हिल्स मणिपुर और उत्तरी कछार हिल्स में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें रानी की उपाधि दी और उनकी रिहाई के लिए संघर्ष किया। उन्हें पद्म भूषण से भी सम्मानित किया गया था।

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    Rani Gaidinliu Naga Queen वो रानी जिसने उत्तर पूर्व में अंग्रेजों से लड़ी जंग। (फोटो- जागरण ग्राफिक्स)

    डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की बहादुरी के किस्से तो सभी ने सुने होंगे। हाथ में तलवार लेकर ब्रिटिश सेना से युद्ध लड़ने वाली रानी लक्ष्मीबाई की कहानी हर कोई जानता है, लेकिन बहुत कम लोग एक और भारतीय रानी के बारे में जानते हैं जिसने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे।

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    उत्तर पूर्व की रानी ने ब्रिटिश सेना को चुनौती दी

    उत्तर पूर्व की इस रानी ने अपने लोगों को एकजुट करते हुए ब्रिटिश सेना को चुनौती दी और विद्रोह की चिंगारी सुलगाई। वैसे तो कई शक्तिशाली राजवंशों ने दिल्ली सल्तनत से लेकर मुगलों और यहां तक कि अंग्रेजों तक को कब्जा करने से रोका, लेकिन यह लंबे समय से चली आ रही ढाल आखिरकार तब टूट गई जब बर्मा ने असम और मणिपुर पर कब्जा कर लिया। 

    इसके बाद बर्मा और अंग्रेजों के बीच सत्ता संघर्ष चला। अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं में अथक ब्रिटिशों ने आखिरकार एंग्लो-बर्मी युद्धों के रूप में ज्ञात खूनी संघर्षों के बाद बर्मा को कुचल दिया, जिससे इस क्षेत्र का भाग्य हमेशा के लिए बदल गया।

    नागा रानी गाइदिन्ल्यू ने ब्रिटिश सेना की नींव हिलाई

    अभी उन्नीसवीं सदी के शुरुआत ही हुई थी कि ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा अहोम साम्राज्य पर कब्जा असम में ब्रिटिश राज की स्थापना में एक महत्वपूर्ण क्षण के रूप में उभरा। जब ब्रिटिशर्स भारत पर कब्जा करने की तैयारी में थे, तभी एक 17 साल की लड़की 'गाइदिन्ल्यू' ने ब्रिटिश सेना की नींव हिलाने का काम किया और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

    • गाइदिन्ल्यू का नाम तब चर्चा में आया जब उनके चचेरे भाई और आध्यात्मिक गुरु, जादोनांग ने दावा किया कि उन्हें पहाड़ियों के एक पूजनीय देवता से दिव्य दर्शन हुए हैं। जिनका संदेश शक्तिशाली था: अपने पूर्वजों के प्राचीन विश्वास को पुनर्जीवित करें और अंग्रेजों का विरोध करें।
    • जल्द ही लोगों का विश्वास जादोनांग पर बढ़ने लगा। उनके बढ़ते आध्यात्मिक अधिकार और उपनिवेश-विरोधी संदेश ने 1927 तक ब्रिटिश अधिकारियों का ध्यान आकर्षित किया। इसके बाद अंग्रेजों ने उनके साथ एक बैठक की, जिसके कारण नागा नेता की संक्षिप्त गिरफ्तारी भी हुई।
    • जैसे-जैसे उनका प्रभाव मजबूत हुआ, महात्मा गांधी के आंदोलन से प्रेरित होकर उन्होंने अपने अनुयायियों से ब्रिटिश टैक्स को न लेने और इसके बजाय उन्हें भुगतान करने का आग्रह किया।
    • इसके बाद फरवरी 1931 में विद्रोह की फुसफुसाहट के बाद अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया।
    • ठोस सबूत न पेश कर पाने पर ब्रिटिश सेना ने उन पर मणिपुरी व्यापारियों की हत्या का झूठा आरोप लगाया और इम्फाल में नम्बुल नदी के किनारे सरेआम फांसी पर लटका दिया।

    उनकी मृत्यु के साथ, नागाओं को उम्मीद थी कि उनका नेतृत्व करने के लिए कोई और मसीहा उभरेगा। यह भविष्यवाणी उम्मीद से पहले ही गाइदिन्ल्यू के रूप में सच हो गई।

    जब ब्रिटिशर्स ने बोला था- ये तो छोटी बच्ची है

    गाइदिन्ल्यू का उदय तब हुआ जब जादोनंग की गिरफ्तारी हुई। दिलचस्प बात ये है कि इस दौरान अंग्रेजों ने गाइदिन्ल्यू से मुलाकात की थी और उन्हें "सत्रह साल की छोटी लड़की" बोलकर उनकी क्षमता को कम करके आंका था। हालांकि, यह गलती ब्रिटिशर्स को महंगी पड़ी। 

    लोगों ने गाइदिन्ल्यू को देवी के रूप में माना

    जल्द ही उत्तर पूर्व में जादोनंग के अनुयायियों ने उन्हें एक देवी के रूप में माना। गाइदिन्ल्यू का पुनर्जीवित आध्यात्मिक आंदोलन नागा हिल्स, मणिपुर और उत्तरी कछार हिल्स में जंगल की आग की तरह फैल गया था। अंग्रेजों ने इसके बाद जादोनंग की तरह गाइदिन्ल्यू पर हत्या, मानव बलि और पंथ पूजा का आरोप लगाया। इसके बाद गिरफ्तारी से बचते हुए गाइदिन्ल्यू अपनी सेना के साथ अलग-अलग गांवों में घूमती रहीं। 

    इसके बाद 1932 में हंगरम गांव में एक क्रूर संघर्ष छिड़ गया। असम राइफल्स ने उस इलाके में धावा बोल दिया, जिसमें ग्रामीणों की हत्या कर दी गई। यहां भी गाइदिन्ल्यू बच निकली, लेकिन गांववालों को बड़ी जनहानि हुई।

    इसके बाद आग बबूला अंग्रेजों ने क्रूरता दिखाते हुए पूरे गांवों को जला दिया, फसलों को नष्ट कर दिया और जानकारी के लिए निर्दोष ग्रामीणों को प्रताड़ित किया। यहां तक कि गाइदिन्ल्यू का पैतृक गांव, लुंगकाओ भी इस प्रकोप से नहीं बच सका। 

    गाइदिन्ल्यू ने  पुलोमी गांव को अपना ठिकाना बनाया

    इसके बाद गाइदिन्ल्यू ने पुलोमी गांव को अपना ठिकाना चुना। जेमी, रोंगमेई और लियांगमेई नागा जनजातियों के बीच बसा पुलोमी आशा की किरण था। लेकिन यह गांव ईसाई बन चुके नागाओं का भी घर था, जिन्होंने आदिवासी भविष्यवाणियों से मुंह मोड़ लिया था और अंग्रेजों के साथ जुड़ गए थे। 

    अंग्रेजों के इन वफादारों में डॉ. हरालू भी थे, जो लियांगमाई जनजाति के एक सुशिक्षित चिकित्सक और पुलोमी के मूल निवासी थे। अब गाइदिन्ल्यू को पकड़ने के लिए अंग्रेजों ने एक और भी चालाकी भरी रणनीति अपनाई। उन्होंने हरालु को गाइदिनल्यू के सामने शादी का प्रस्ताव रखने के लिए राजी किया और वादा किया कि अगर वह विद्रोह छोड़कर गृहस्थ जीवन अपना लेगी तो उसे आज़ादी मिल जाएगी। लेकिन गाइदिनल्यू इस चाल को भांप गई और वह एक बार फिर जंगल में गायब हो गई। 

    16 अक्टूबर 1932 को ब्रिटिश सेना ने पुलोमी को घेर लिया। कुछ गार्डों को पकड़ने के बाद, उन्हें पता चला कि गाइदिन्ल्यू एक घर में छिपी हुई थी। गाइदिन्ल्यू को गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर मुकदमा चलाया गया, विद्रोह के लिए नहीं, बल्कि उन्हीं आरोपों के लिए जो उनके भाई को निशाना बनाकर कांबिरोन में चार मेइती व्यापारियों की हत्या करने के आरोप में किए गए थे। उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। 

    जवाहरलाल नेहरू ने जेल में की मुलाकात

    शुरुआत में उन्हें इम्फाल जेल में रखा गया, बाद में उन्हें शिलांग और लुशाई हिल्स स्थानांतरित कर दिया गया। 1937 में पाचं साल जेल में रहने के बाद एक महत्वपूर्ण मोड़ आया। कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू ने असम का दौरा किया, लेकिन वो जहां-जहां गए, उन्हें एक ही नाम सुनाई दिया.. वो था गाइदिन्ल्यू। 

    उत्सुक होकर, उन्होंने शिलांग जेल में उनसे मुलाकात की। नेहरू उनके साहस से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उनकी रिहाई के लिए लड़ने का संकल्प लिया। 

    जब गाइदिन्ल्यू को 'रानी' नाम मिला

    दिसंबर 1937 में हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित एक लेख में उन्होंने उन्हें 'रानी' नाम दिया। अंततः 1947 में भारत को आजादी मिली। आजादी के बाद रानी गाइदिन्ल्यू ने भारत के भीतर जेलियानग्रोंग लोगों के लिए एक अलग प्रशासनिक इकाई की कल्पना की थी। लेकिन उनका सपना भूगोल से टकराता था, इसका मतलब था नगालैंड, मणिपुर और असम की सीमाओं का पुनर्निर्धारण। 

    1982 में मिला पद्म भूषण

    गाइदिन्ल्यू हमेशा सम्मानित हस्ती रहीं। उन्हें ताम्रपत्र (1972), पद्म भूषण (1982), विवेकानंद सेवा सम्मान (1983) और 1996 में मरणोपरांत भगवान बिरसा मुंडा पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनकी स्मृति में भारत ने 1996 में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया। 2015 में उनकी जन्म शताब्दी पर स्मारक सिक्के जारी किए गए। मणिपुर में उनके जन्मस्थान पर रानी गाइदिन्ल्यू जनजातीय स्वतंत्रता सेनानी संग्रहालय नामक एक संग्रहालय को भी मंजूरी दी गई है।