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    बिसेनवंशावतंस राजर्षि उदय प्रताप सिंह, राजत्व से राजर्षित्व के उत्कर्ष

    Updated: Thu, 04 Sep 2025 02:47 PM (IST)

    प्रणय विक्रम सिंह के अनुसार भारत की आत्मा उन महापुरुषों से आलोकित है जिन्होंने सत्ता को साधना बनाया। आज राजर्षि उदयप्रताप सिंह की 175वीं जयंती है जिन्होंने समाज सेवा और शिक्षा को महत्व दिया। उन्होंने दिखाया कि राजा केवल शासन करने वाला नहीं समाज को संवारने वाला भी हो सकता है। उन्होंने शिक्षा और लोकसेवा में अपना जीवन समर्पित किया। उनका जीवन हमें सिखाता है कि शासन तभी श्रेष्ठ है।

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    राजर्षि उदयप्रताप सिंह की 175वीं जयंती मनाई जा रही है।

    प्रणय विक्रम सिंह: भारत की आत्मा सदा उन महापुरुषों से आलोकित होती रही है, जिन्होंने सत्ता को साधना बनाया, वैभव को वैराग्य में बदला और राजत्व को ऋषित्व के साथ जोड़कर युग के लिए आदर्श रचा। आज ऐसे ही एक अद्वितीय पुरुष, आधुनिक भारत के उज्ज्वल नक्षत्र, भिनगेश नरेश, बिसेनवंशावतंस, समाजसेवा और शिक्षा-साधना के अग्रदूत राजर्षि उदयप्रताप सिंह की 175वीं जयंती है।

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    आज का अवसर केवल जयंती का नहीं, बल्कि उस चेतना के स्मरण का है, जिसने दिखाया कि राजा केवल शासन करने वाला नहीं, बल्कि समाज को संवारने वाला भी हो सकता है। यह अवसर उस परंपरा को प्रणाम करने का है, जिसमें गद्दी सेवा की वेदी बन जाती है और मुकुट त्याग का प्रतीक।

    राजर्षि उदयप्रताप सिंह का जन्म ऐसे काल में हुआ, जब भारत अंग्रेज़ी शासन की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था और समाज अज्ञान व पिछड़ेपन से पीड़ित था। पिता के स्वर्गारोहण के बाद मात्र बारह वर्ष की आयु में उन्होंने राजसिंहासन संभाला। किंतु यह राजसिंहासन उनके लिए केवल शासन का आसन नहीं था, बल्कि समाजसेवा का माध्यम था।

    वे राजा थे, परंतु रंक की पीड़ा को समझते थे। वैभव था, परंतु वैराग्य में रमते थे। गद्दी थी, परंतु गंगा-घाट पर सेवा उनका व्रत था।

    दरअसल उनका व्यक्तित्व सत्ता और साधना का अनूठा संगम था। राजमहल की चौखट पर रहते हुए भी वे प्रजा की पीड़ा को अपना समझते थे। यही कारण है कि उन्होंने अपने धन और सामर्थ्य को भोग-विलास में न लगाकर शिक्षा और लोकसेवा में समर्पित किया।

    उनके द्वारा स्थापित उदयप्रताप कॉलेज, भिनगा राज अनाथालय, काशी के छात्रावास और अनेक शिक्षण संस्थान आज भी उनकी त्यागमूर्ति का जीवित प्रमाण हैं। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि "बनारस का भिनगा राज अनाथालय बिना जाति-धर्म पूछे सबको शरण देता है और सबकी सेवा करता है।" यह उनके विशाल दृष्टिकोण और उदार हृदय की गवाही है।

    राजर्षि उदय प्रताप सिंह केवल संस्थापक और समाजसेवी ही नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के अग्रदूत भी थे। भारतीय संसद में पहला प्रश्न पूछने का ऐतिहासिक गौरव उन्हें ही प्राप्त है। निर्धन जनता को रसद पहुंचाने में होने वाली कठिनाइयों का उन्होंने जो प्रश्न उठाया, वह केवल शब्द नहीं था, वह पीड़ित समाज की पुकार थी। और इस प्रश्न ने आने वाली पीढ़ियों को सिखाया कि लोकसभा का उद्देश्य केवल सत्ता का संचालन नहीं, बल्कि समाज की वेदना को स्वर देना है।

    गरीब जनता की कठिनाइयों को आवाज देने का यह पहला साहसी प्रयास भारतीय संसदीय परंपरा की नींव बना। उनके शब्द आज भी प्रेरणा देते हैं कि "हम राम और बुद्ध की जन्मभूमि पर पैदा हुए हैं, हमारी धमनियों में त्याग और करुणा का रक्त प्रवाहित हो रहा है।"

    इतना ही नहीं, वे गहन चिंतक और लेखक भी थे। अंग्रेज़ी भाषा में लिखी उनकी पुस्तकें Democracy not suited to India, The Decay of the Landed Aristocracy in India, Views and Observations आज भी उनकी दूरदृष्टि और बौद्धिक शक्ति का प्रमाण हैं।

    और फिर आया उनके जीवन का उत्कर्ष क्षण जब उन्होंने राजकीय वैभव को त्यागकर काशी में संन्यास-वृत्ति अपनाई। 1895 से उन्होंने एक वैरागी का जीवन जीते हुए समाज की सेवा और शिक्षा के उत्थान को ही अपनी तपस्या बना लिया। यही उनका राजर्षित्व था, जहां सत्ता साधना में परिवर्तित होती है, वैभव वैराग्य का व्रत बन जाता है और राजसी अधिकार लोकसेवा की ज्योति में विलीन हो जाते हैं।

    राजर्षि उदय प्रताप सिंह का जीवन हमें यह सिखाता है कि शासन तभी श्रेष्ठ है, जब उसमें सेवा का संस्कार हो। वैभव तभी वंदनीय है, जब उसमें वैराग्य का वरण हो। और राजत्व तभी अमर है, जब उसमें ऋषित्व का आलोक हो।

    उन्होंने अपने जीवन से यह सिद्ध किया कि राजा होना केवल मुकुट धारण करना नहीं है, बल्कि जन-जन के दुख में सहभागी होना है। उन्होंने दिखाया कि सत्ता की असली साधना महलों में नहीं, बल्कि विद्यालयों और अनाथालयों की नींव में होती है।

    उन्होंने यह भी प्रमाणित किया कि त्याग ही सबसे बड़ा ताज है और सेवा ही सबसे बड़ी सम्पत्ति। आज उनकी 175वीं जयंती पर हम सबको यह संकल्प लेना चाहिए कि हम उनकी परंपरा को केवल स्मृति न बनाएं बल्कि अपने जीवन में उतारें। हम अपने-अपने क्षेत्र में शिक्षा, सेवा और समर्पण का वही दीप जलाएं, जो राजर्षि उदयप्रताप सिंह ने प्रज्वलित किया था।

    आइए, हम सब यह प्रण करें कि राजर्षि उदय प्रताप सिंह की परंपरा केवल अतीत की स्मृति न बनकर रहे, बल्कि वर्तमान की प्रेरणा और भविष्य की दिशा-दर्शक शक्ति बने।

    इसी श्रद्धा, इसी कृतज्ञता और इसी संकल्प के साथ हम सब उनकी पुण्य स्मृति को नमन करें और कहें कि राजर्षि उदय प्रताप सिंह अमर रहें। उनका आदर्श अमर रहे। उनकी परंपरा अमर रहे।

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