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    'हमारा ड्राफ्ट देख दूसरे देशों ने प्राइवेसी कानून बना लिया और हम नियम नहीं बना पाए', खास बातचीत में बोले जस्टिस श्रीकृष्णा

    Updated: Sat, 19 Jul 2025 05:02 PM (IST)

    डीपीडीपी अधिनियम को लेकर फिर से चर्चा शुरू हो गई है। जस्टिस (सेवानिवृत्त) बीएन श्रीकृष्णा का मानना है कि इसे लागू करने में पहले ही काफी देर हो चुकी है। नियम नहीं बन पाने की वजह से हम इसे लागू नहीं कर पाए। यदि अब भी इसे लागू नहीं किया तो आने वाले समय में भारत सरकार व भारतीय कंपनियों दोनों को ही कानूनी पेंचीदगियों का सामना करना पड़ेगा।

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    जस्टिस (सेवानिवृत्त) बीएन श्रीकृष्णा ने दैनिक जागरण से की खास बातचीत।

    रुमनी घोष, नई दिल्ली। प्राइवेसी बिल (गोपनीयता कानून) यानी डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन (डीपीडीपी) अधिनियम को लेकर एक बार फिर हलचल शुरू हो गई है। वर्ष 2018 में श्रीकृष्णा कमेटी द्वारा तैयार ड्राफ्ट पर पांच साल तक लंबी बहस चली, 83 संशोधन और फिर ड्राफ्ट में आमूल-चूल परिवर्तन कर बिल को संसद में पास करवाया गया।

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    वर्ष 2023 में इस पर राष्ट्रपति की मुहर भी लग गई, लेकिन डेढ़ साल बीतने के बाद भी अभी तक नियम तय नहीं हो पाए हैं। हाल ही में इसे फिर से भारत के अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी के पास भेजा गया है। चर्चा है कि इसके अंतर्गत आने वाले आरटीआई सहित कुछ नियमों पर दोबारा मंथन किया जा रहा है। इस कानून का पहला ड्राफ्ट तैयार करने वाले जस्टिस (सेवानिवृत्त) बीएन श्रीकृष्णा का मानना है, इसे लागू करने में पहले ही काफी देर हो चुकी है।

    भारत ने बहुत पहले इस दिशा में कदम आगे बढ़ाया था, लेकिन अब हम पिछड़ गए हैं। हमारा ड्राफ्ट देखकर दुनिया के अधिकांश विकसित व विकासशील देशों ने अपना कानून बना लिया है और नियम नहीं बन पाने की वजह से इसे लागू नहीं कर पाए। नियम बनाने में कहां परेशानी आ रही है? और आने वाले समय में किन समस्याओं का सामना करना पड़ेगा?

    इस पर दैनिक जागरण की समाचार संपादक रुमनी घोष ने उनसे विस्तार से चर्चा की। जस्टिस श्रीकृष्णा निजी दौरे पर लंदन में हैं। ऑनलाइन चर्चा के दौरान उन्होंने बताया कि यदि अब भी इसे लागू नहीं किया तो आने वाले समय में भारत सरकार व भारतीय कंपनियों दोनों को ही कानूनी पेंचीदगियों का सामना करना पड़ेगा। राष्ट्र विरोधी गतिविधियों व आतंकवादी संगठनों को होने वाली फंडिंग का पता लगाने के लिए भी यह कानून अहम है। बतौर वकील अपना करियर शुरू करने वाले जस्टिस श्रीकृष्णा बॉम्बे हाई कोर्ट में जज रहे।

    उसके बाद सुप्रीम कोर्ट में भी पदस्थ रहे। कानून की डिग्री के अलावा उन्होंने संस्कृत और उर्दू में डिग्री व डिप्लोमा हासिल की। वह मातृभाषा कन्नड़ सहित 10 भाषाओं के जानकार हैं। 150 से ज्यादा गवाह और लगभग 700 पन्नों वाली उनकी मुंबई दंगे (1992-93) की जांच रिपोर्ट काफी चर्चित है। इसके अलावा उन्होंने छठे वेतन आयोग व तेलंगाना राज्य बनाए जाने की मांगों पर भी सिफारिशें दी थीं। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंशः

    डिजिटल व्यक्तिगत डाटा संरक्षण (डीपीडीपी) एक्ट 2023 में लागू हो गया, पर अभी तक नियम तय नहीं हो पाए। क्यों?

    देखिए समस्या यह है कि डीपीडीपी अधिनियम को जिस तरह से पारित किया गया, उसमें बहुत से नियम सरकार द्वारा पारित नियमों पर निर्भर हैं। इसे इस तरह से समझिए कि पूरे कानून में बहुत सारे गैप (अंतराल) छोड़ दिए गए हैं, जिसमें यह लिखा है कि सरकार के आदेश के अनुसार।

    इस गैप को सरकार द्वारा तय नियमों द्वारा भरा जाना है और यही नियम सरकार को बनाना है। यह स्थिति लगभग हर चरण में है। अब जब तक नियम नहीं बनेंगे तो कानून अधूरा रहेगा। दुर्भाग्य से सरकार नियमों को लेकर मन नहीं बना पा रही है, इसलिए कानून को लेकर इतने समय से उहापोह की स्थिति बनी हुई है।

    नियम बनाने में कहां परेशानी आ रही होगी? आपका क्या मानना है?

    जहां तक परेशानी की बात है तो यह बहुत व्यापक स्तर पर असर करने वाला कानून है। यदि नियमों को सटीक ढंग से बनाया गया तो बहुत सी जटिलाएं पैदा हो सकती हैं। खास तौर पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापार करने वाली कंपनियों के लिए व्यवधान पैदा कर सकती हैं।

    सरकार ने इसे समीक्षा के लिए हाल ही में अटार्नी जनरल को भेजा है। इसका क्या आशय निकाला जाए?

    जो ड्राफ्ट हमने तैयार कर सरकार को सौंपा था, उसके बाद लगभग 83 संशोधन का प्रस्ताव दिया। उसके बाद फिर संशोधनों को खारिज कर नए सिरे से ड्राफ्ट तैयार किया गया। फिलहाल का ड्राफ्ट विशेष रूप से मूल स्वरूप से काफी कुछ भिन्न है।

    अटॉर्नी जनरल को भेजने की सूचना मेरे पास नहीं है और वह किन बिंदुओं पर मंथन कर सकते हैं, इस बारे में भी मैं कोई अनुमान नहीं लगा सकता हूं, लेकिन इतना जरूर कह सकता हूं कि यह 'हाईटाइम' है...जब इस कानून को लागू कर देना चाहिए। नहीं तो आने वाले समय में परेशानी हो सकती है।

    फिर देरी क्यों... क्या हमारा देश अभी भी इस एक्ट के लिए तैयार नहीं है?

    जरूरत दृष्टिकोण पर निर्भर करती है। मैं पूछना चाहता हूं कि क्या हम पूरी तरह से स्पेस मिशन (अंतरिक्ष अभियान) के लिए पूरी तरह तैयार हैं। खास तौर पर जब अभी भी हमारे देश में रोटी-कपड़ा-मकान जैसी मूलभूत समस्याएं मौजूद हैं। खाने की व्यवस्था नहीं है।

    बावजूद इसके हम भारतीयों को अंतरिक्ष में भेज रहे हैं, क्योंकि हमारा दृष्टिकोण है कि देश को उस दिशा में सक्षम बनाना है। इसी तरह प्रायवेसी बिल को लेकर भी हमने (2017) तय किया था कि हमें इस क्षेत्र में काम करना है और नियम-कायदा तैयार करना है। सरकार को इसे लागू करने के लिए यह आवश्यक है कि सरकार शीघ्रता से नियमों का निर्धारण करें ताकि कानून का प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित किया जा सके। ताकि व्यापारिक गतिविधियों में कोई बाधा न आए।

    आपने देशों के बीच सूचनाओं के आदान-प्रदान या व्यापारिक गतिविधियों में बाधा उत्पन्न की बात कही। क्या व्यवधान आएंगे?

    विदेश में हर विकासशील व विकसित देशों के पास प्रायवेसी बिल है। दिक्कत यह होगी कि जब उनके साथ हमारा व्यापार बढ़ेगा। उनके साथ जब आदान-प्रदान बढ़ेगा तो दिक्कत बढ़ेगी। यहां से जब डाटा विदेश भेजा जाएगा तो उन पर उस देश का डाटा प्रोटेक्शन एक्ट लागू होगा लेकिन उस देश से जो डाटा आएगा, उस पर यह लागू नहीं होगा। ऐसे में अनेक तरह की विसंगतियां उत्पन्न होंगी। यही वजह है कि इसे तत्काल लागू करने की जरूरत है।

    जैसे एलन मस्क की कंपनी स्टार लिंक को भारत में लांचिंग पर सवाल उठ रहे हैं क्योंकि कंपनी द्वारा एकत्रित डाटा के विदेश जाने का खतरा है? बचाव का क्या तरीका है? और डाटा शील्ड अनुबंध क्या है?

    बिलकुल। आने वाले समय में हर बड़ी कंपनियों के साथ व्यापार संबंध बनाने या किसी तरह के डाटा का आदान-प्रदान करने में यह परेशानी आएगी। यूरोपीय कमीशन के सामने आए एक मामले का उल्लेख करता हूं। यूरोप में बहुत कठोर डीपीडीपी कानून है।

    वहां बगैर सभी संस्थाओं की अनुमति के डाटा किसी को नहीं मिल सकता है। वहीं अमेरिका में राष्ट्रपति या जांच एजेंसियों द्वारा आसानी से इस डाटा को एक्सेस किया जा सकता है। इस समस्या से निपटने के लिए दोनों देशों के बीच 'डाटा शील्ड' अनुबंध किया गया। यानी दोनों देशों की सहमति के बगैर डाटा का उपयोग नहीं किया जा सकेगा। भारत सरकार को भी डीपीडीपी एक्ट में डाटा शील्ड अनुबंध जैसे नियम तय करना चाहिए।

    इसके तहत या तो कंपनियों के सर्वर भारत में हों। यदि सर्वर भारत में रखना संभव नहीं है तो जरूरत पड़ने पर भारत सरकार को 24 घंटे के भीतर वह डाटा उपलब्ध हो जाए। या फिर सर्वर के एक पैरालल एक्सेस (समानांतर व्यवस्था) हो, जिसके डाटा लगातार अपडेट होते रहें। रिजर्व बैंक और टेलीकाम रेग्यूलेटरी अथारिटी आफ इंडिया (ट्राई) ने इसे लागू कर दिया है। उनके सभी डाटा भारत में हैं।

    तो क्या अधिकांश देशों में डाटा प्रोटेक्शन एक्ट लागू है? क्या हम पिछड़ गए हैं?

    हां, बिलकुल। अमेरिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया सहित सभी विकासशील देशों में यह लागू हो गया है। डीपीडीपी की जरूरत को भारत ने अन्य देशों के मुकाबले बहुत पहले महसूस कर लिया था। तभी वर्ष 2018 में इसका पहला ड्राफ्ट बनकर तैयार हो गया था और सरकार को सौंप भी दिया गया था।

    उसी दौर में यूरोपीय देशों में इस कानून की जरूरत महसूस की जा रही थी। संयोग से उसी दौरान यूरोपीयन कमीशनर दिल्ली में थे। उन्होंने मुझे इस ड्राफ्ट के बारे में जानकारी देने के लिए आमंत्रित किया। मैंने उन्हें नियमानुसार जानकारियां उपलब्ध करवाई। उसके बाद उन्होंने अपने कानून बनाएं और उसे बेहतर ढंग से पूरे यूरोप में लागू किया। ड्राफ्ट बनने के बाद इसी तरह दो बैठक सिंगापुर में हुई थी।

    एक में सभी देशों के रिजर्व बैंक और साउथ एशियन देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए। दूसरे में कोरिया, जापान, चीन और वियतनाम और कंबोडिया सहित अन्य साउथ एशियन देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए। इन सभी देशों ने अपने-अपने देश में जाकर इस पर कानून बनाया और इसे लागू कर दिया। वर्ष 2024 में अमेरिका के के कैलिफोर्निया में डीपीडीपी एक्ट लागू कर दिया गया। दुर्भाग्य से हम सबसे आगे थे, लेकिन अब सबसे पीछे हैं।

    आम लोगों को कैसे समझाया जा सकता है कि डीपीडीपी एक्ट जरूरी है?

    इस सवाल के जवाब को समझने के लिए आपको सबसे पहले यह समझना होगा कि 'डाटा' क्या है। डाटा दरअसल एक पहचान है। लोगों में भ्रम है कि यह बैंक अकाउंट या उसमें रखी राशि डाटा होगी, लेकिन ऐसा नहीं है। बल्कि किसी इंसान की पहचान बताने वाली कोई भी चीज डाटा है।

    आपके और इसके बीच जो संबंध है वह डाटा है। अभी क्या हो रहा है कि इसको लेकर उससे फायदा उठा रहे हैं। जैसे आप साड़ी पहनती होंगी न। उस दुकानवाले आपसे पूछते होंगे पता, नंबर इत्यादि। मैं एक उदाहरण देता हूं। मैं चेन्नई जाने वाला था। आनलाइन का टिकट बुक कराया और ई-मेल पर टिकट आ गया। पहले एक हीरा व्यापारी का विज्ञापन आया। फिर गोल्ड ज्वेलरी शाप का। अब उसे कैसे पता कि मैं वहां जा रहा हूं। यही है डाटा कलेक्शन। यानी आपसे जुड़ा डाटा एकत्रित किया जा रहा है लेकिन इसका क्या व कहां उपयोग हो रहा है, आपको पता नहीं है।

    यदि यह कानून जनहित योजनाओं, देश विरोधी गतिविधियों पर नजर रखने के लिए है तो फिर यह भय क्यों है कि सरकार नियंत्रित करेगी या निगरानी करेगी?

    ट्रस्ट डेफिसिट...यानी भरोसे की कमी। एक सवाल पूछता हूं आपसे...लोग बैंक में पैसा क्यों रखते हैं? ...क्योंकि उन्हें भरोसा है न कि बैंक में उनका पैसा सुरक्षित रहेगा। अब यदि बैंकों में रोज-रोज चोरी होने लगे तो क्या लोग बैंक में पैसा रखेंगे? नहीं...वह तकिए के नीचे ही अपना पैसा रखना ज्यादा सुरक्षित महसूस करेंगे। यही हो रहा है डीपीडीपी एक्ट के साथ।

    हमें याद रखना होगा कि सरकार ही सबसे बड़ा डाटा कलेक्टर है। यानी सबसे ज्यादा डाटा सरकार द्वारा ही इकट्ठा किया जाता है तो उसे सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी भी उसकी ही है। यह पुट्टस्वामी निर्णय के िखलाफ है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार बताया है। अब सरकार अनुमति बगैर निजी डाटा एकत्रित करेगी तो, यह निजता अधिकार का उल्लंघन है।

    आरटीआई कानून का विरोध क्यों ?

    आरटीआइ एक्ट को लेकर विरोध पूरी तरह से गलत नहीं है। नए कानून के तहत आरटीआइ में जानकारी मांगते वक्त आवेदक को बताना होगा कि वह इसका उपयोग किस काम के लिए करना चाहते हैं। मूल ड्राफ्ट में यह नहीं था।

    शक्तियों का दुरुपयोग नहीं होगा, यह यकीन दिलाने के लिए सरकार क्या करे?

    सरकार सुनिश्चित करें कि जो डाटा एकत्रित किया जा रहा है, उसका उपयोग कल्याणकारी योजनाओं, मुजरिमों को पकड़ने, आतंकवादी व देशविरोधी गतिविधियों को होने वाली फंडिंग की ट्रैकिंग में होगा। साथ ही यह भी बताए कि डाटा क्यों और कितने समय अवधि के लिए एकत्रित किया जा रहा है।

    आपने मुंबई दंगे की जांच रिपोर्ट सहित कई कमेटियों व आयोगों की अध्यक्षता की है। सबसे अहम कौन सी है?

    सबसे अहम रिपोर्ट तो मुंबई दंगे की थी...न भूतो न भविष्यती। मुंबई दंगे के बाद महाराष्ट्र सरकार ने जांच के लिए आयोग का गठन किया। इसमें प्रविधान रखा गया था कि हाईकोर्ट के जज की अध्यक्षता में कमेटी गठित की जाएगी। उस समय बाम्बे हाई कोर्ट की प्रभारी मुख्य न्यायाधीश सुजाता मनोहर थीं।

    जजों की सूची में मेरा नाम नीचे से दूसरे या तीसरे नंबर पर था। मुझे लगभग डेढ़ साल ही हुए थे, जज बने हुए। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या तुम इसे करोगे। मैंने कहा कि हां, मैं करना तो चाहता हूं, लेकिन क्या समुदाय विशेष मुझ पर भरोसा कर पाएगा। क्योंकि मैं प्रैक्टिसिंग हिंदू था।

    तिलक लगाकर ही कोर्ट जाता था। तब सुजाता मनोहर ने कहा कि जब आप काला गाउन पहनकर जज की कुर्सी पर बैठते हैं तो क्या होते हैं। इस पर मैंने कहा, नहीं, उस समय मैं सिर्फ जज होता हूं। सुनकर उन्होंने मुझे यह जिम्मेदारी सौंपी। इसमें काफी समय लगा। मुझे लगा था कि एक से डेढ़ साल में पूरा हो जाएगा, लेकिन लगभग 150 लोगों के बयान व लगभग 12000 पन्नों का दस्तावेजों को पढ़कर रिपोर्ट तैयार करने में चार से पांच साल लगे।

    महाराष्ट्र सरकार ने तो इस रिपोर्ट को बीच में ही बंद कर दिया था। 13 दिन की सरकार के आखिरी वक्त में तात्कालिक प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने जाते-जाते महाराष्ट्र के तात्कालिक मुख्यमंत्री को चिट्ठी लिखी थी कि यह बहुत अहम जांच है और इसकी रिपोर्ट जनता के सामने आना चाहिए। उस चिट्ठी की कापी आज भी मेरे पास है। उसके बाद महाराष्ट्र सरकार द्वारा दोबारा नोटिफिकेशन जारी किया गया।

    चार-पांच महीने बाद फिर से जांच शुरू हुई। रिपोर्ट आने के बाद शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे नाखुश थे। तब उन्होंने कहा था कि मुझे पाकिस्तान भेज देना चाहिए और वहां का सम्मान 'निशान ए पाकिस्तान' देना चाहिए। (हंसते हुए...) न मुझे 'निशान ए पाकिस्तान' मिला और 'न ही निशान ए भारत'। हां, महाराष्ट्र की जनता का भरोसा जरूर मिला।

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