संविधान की प्रस्तावना में बाद में जोड़े गए समाजवाद और धर्म निरपेक्ष शब्द हटाने की मांग, दाखिल हुई याचिका
सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल हुई है जिसमें संविधान की प्रस्तावना में बाद में जोड़े गए दो शब्द समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष को हटाने की मांग है।
माला दीक्षित, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल हुई है जिसमें संविधान की प्रस्तावना में बाद में जोड़े गए दो शब्द समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष को हटाने की मांग है। कहा है कि सुप्रीम कोर्ट घोषित करे कि प्रस्तावना में दिये गये समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा गणतंत्र की प्रकृति बताते हैं और ये सरकार की संप्रभु शक्तियों और कामकाज तक सीमित हैं, ये आम नागरिकों, राजनैतिक दलों और सामाजिक संगठनों पर लागू नहीं होता। इसके साथ ही याचिका में जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 29ए (5) में दिये गये शब्द समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष को भी रद करने की मांग की गई है। यह याचिका तीन लोगों ने वकील विष्णु शंकर जैन के जरिये दाखिल की है। याचिकाकर्ता बलराम सिंह और करुणेश कुमार शुक्ला पेशे से वकील हैं।
सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुई याचिका
याचिका में प्रस्तावना से समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को हटाने की मांग करते हुए कहा गया है कि ये दोनों शब्द मूल संविधान में नहीं थे। इन्हें 42वें संविधान संशोधन के जरिये 3 जनवरी 1977 को जोड़ा गया। जब ये शब्द प्रस्तावना में जोड़े गए उस समय देश में आपातकाल लागू था। इस पर सदन में बहस नहीं हुई थी, ये बिना बहस के पास हो गया था। कहा गया है कि संविधान सभा के सदस्य केटी शाह ने तीन बार धर्मनिरपेक्ष (सेकुलर) शब्द को संविधान में जोड़ने का प्रस्ताव दिया था लेकिन तीनों बार संविधान सभा ने प्रस्ताव खारिज कर दिया था। बीआर अंबेडकर ने भी प्रस्ताव का विरोध किया था।
केटी शाह ने पहली बार 15 नबंवर 1948 को सेकुलर शब्द शामिल करने का प्रस्ताव दिया जो कि खारिज हो गया। दूसरी बार 25 नवंबर 1948 और तीसरी बार 3 दिसंबर 1948 को शाह ने प्रस्ताव दिया लेकिन संविधान सभा ने उसे भी खारिज कर दिया।
कहा, समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत सिर्फ सरकार के कामकाज तक सीमित रखा जाए
याचिका में कहा गया है कि अनुच्छेद 14,15 और 27 सरकार के धर्मनिरपेक्ष होने की बात करता है यानि सरकार किसी के साथ धर्म, भाषा,जाति, स्थान या वर्ण के आधार पर भेदभाव नहीं करेगी। लेकिन अनुच्छेद 25 नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है जिसमें व्यक्ति को अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ मानने और उसका प्रचार करने की आजादी है। कहा गया है कि लोग धर्मनिरपेक्ष नहीं होते, सरकार धर्मनिरपेक्ष होती है। याचिका में जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में 15 जून 1989 को संशोधन कर जोड़ी गई धारा 29ए (5) से भी सेकुलर और सोशलिस्ट शब्द हटाने की मांग है।
इसे राजनैतिक दलों और आमजनता पर न लागू किया जाए
इसके तहत राजनैतिक दलों को पंजीकरण के समय यह घोषणा करनी होती है कि वे धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत का पालन करेंगे। कहा गया है कि जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 कहती है कि धर्म के आधार पर वोट नहीं मांगेगे लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि धर्म के आधार पर संगठन नहीं बना सकते। याचिका में 2017 के सुप्रीम कोर्ट के अभिराम सिंह के फैसले में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के अल्पमत के फैसले का हवाला दिया गया है जिसमें कहा गया है कि संविधान को यह पता है कि पूर्व में जाति, धर्म, भाषा, आदि के आधार पर भेदभाव और अन्याय हुआ है।
इसकी आवाज उठाने के लिए संगठन बना सकते हैं तथा चुनावी राजनीति में इस आधार पर लोगों को संगठित कर सकते हैं। याचिकाकर्ता का कहना है कि वह एक राजनैतिक पार्टी बनाना चाहता है लेकिन वह धारा 29ए(5) के तहत घोषणा नहीं करना चाहता। याचिका में मांग की गई है कि कोर्ट घोषित करे कि सरकार को लोगो को समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत का पालन करने के लिए बाध्य करने का अधिकार नहीं है।