Pervez Musharraf Policy: सामने शांति वार्ता, पीछे आतंकवाद को पनाह; रिश्तों में भरोसे को पूरी तरह कर दिया खत्म
लंबी बीमारी के बाद रविवार को दिवंगत हुए जनरल परवेज मुशर्रफ ने पहले पाक सेना के चीफ के तौर पर और बाद में बतौर राष्ट्रपति भारत को लेकर जो नीतियां अख्तियार की उसका असर आज तक भारत-पाक के बीच दिख रहा है।
जयप्रकाश रंजन, नई दिल्ली। लंबी बीमारी के बाद रविवार को दिवंगत हुए जनरल परवेज मुशर्रफ ने पहले पाक सेना के चीफ के तौर पर और बाद में बतौर राष्ट्रपति भारत को लेकर जो नीतियां अख्तियार की उसका असर आज तक भारत-पाक के बीच दिख रहा है। दोनो देशों के रिश्तों में विश्वास कभी घुल नहीं पाया। भारत को लेकर उनकी नीतियां जबरदस्त दोहरेपन का शिकार रही। जब वह सामने बतौर राष्ट्रपति भारतीय प्रधानमंत्री से बात कर रहे होते थे तब उनकी सेना कश्मीर में आतंकियों की नई फौज भेजने में जुटी होती थी।
मुशर्रफ ने कारगिल युद्ध की साजिश को दिया था अंजाम
पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर बस यात्रा से जब भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में ऐतिहासिक सुधार के अवसर बने थे तब मुशर्रफ ने कारगिल युद्ध की साजिश को अंजाम दिया था। बाद में जब कश्मीर मुद्दे के समाधान को लेकर आगरा में वाजपेयी सरकार के साथ एक संधि की संभावना बनी तो ऐन वक्त पर मुशर्रफ ने पैर पीछे खींच कर यह सुनिश्चित कर दिया कि दोनो देशों के बीच भरोसा पनप ना पाये।
पुरानी दिल्ली में हुआ था मुशर्रफ का जन्म
सच्चाई यह है कि मुशर्रफ शायद आखिरी ऐसे पाक राष्ट्रपति थे जो चाहते तो रिश्तों में नया मोड़ ला सकते थे लेकिन अफसोस कि पुरानी दिल्ली की गलियों में जन्मे मुशर्रफ कारगिल घुसपैठ के जनक थे और भरोसे की नींव को पूरी तरह दरका दिया। बाद में कई गोपनीय रिपोर्ट में यह बात साबित हुई कि तत्कालीन पीएम शरीफ को इसकी जानकारी नहीं थी और पाक सेना के भी बहुत ही कम अधिकारियों को इसके बारे में पता था। इसकी तैयारी तभी शुरू हो गई थी जब वाजपेयीन ने ऐतिहासिक पहल करते हुए दिल्ली से लाहौर की बस यात्रा की थी।
युद्ध में पाकिस्तान की हुई हार
लाहौर के मिनारे-पाकिस्तान जा कर वाजपेयी ने भारत की तरफ से सबसे मजबूत संदेश दिया था कि अब रिश्तों को पाटने की कोशिश की जाए। पाक के पीएम शरीफ का अंदाज भी सकारात्मक था। लेकिन पाक सेना प्रमुख जनरल मुशर्रफ ने अफगानी आतंकियों की एक बड़ी टीम के साथ पाक सेना के जवानों को कारगिल भेज कर युद्ध की शुरुआत कर दी थी। भारतीय सेना के पराक्रम से पाकिस्तान की हार हुई और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारी बेइज्जती भी सहनी पड़ी।
लोकतांत्रिक सरकार को बर्खास्त कर हथियाई थी सत्ता
मुशर्रफ के खिलाफ राजनीतिक पहल की सुगबुगाहट भी सुनाई दी लेकिन शरीफ की लोकतांत्रिक सरकार को रातों रात बर्खास्त कर मुशर्रफ ने सत्ता हथिया लिया। कुछ महीनों बाद सारे लोकतांत्रिक सिद्दांतों का माखौल उड़ाते हुए उन्होंने अपने आप को नया राष्ट्रपति भी घोषित कर दिया। इसके बाद का उनके नौ वर्षों के कार्यकाल में कम से कम दो बार गंभीरता से भारत व पाकिस्तान के बीच शांति वार्ता हुई। दोनो देशों के विदेश मंत्रियों और विदेश सचिवों के बीच संस्थागत तरीके से हर लंबित मुद्दे पर बात की।
पांच बार भारतीय प्रधानमंत्रियों के साथ हुई वार्ता
मुशर्रफ ने अपने कार्यकाल में पांच बार भारतीय प्रधानमंत्रियों से मुलाकात की। दो बार उनकी मुलाकात वाजपेयी से हुई और तीन बार पूर्व पीएम मनमोहन सिंह से। पहली शांति वार्ता तब हुई जब जुलाई, 2002 में पीएम वाजपेयी के आमंत्रण पर मुशर्रफ आगरा में शांति वार्ता के लिए आये। यह शिमला समझौते के बाद दोनो देशों के बीच शीर्ष स्तर पर पहली शिखर वार्ता थी। इसके बाद मनमोहन सिंह के समक्ष मुशर्रफ ने दोनो देशों के रिश्तों को हमेशा के लिए प्रसिद्ध चार सूत्रीय एजेंडा का प्रस्ताव रखा था।
कश्मीर में आतंकवाद फैलाने के लिए दे रखी थी पूरी छूट
आधिकारिक तौर पर इस पर दोनो देशों ने कुछ नहीं कहा लेकिन कालांतर में इस प्रस्ताव की सच्चाई पर कोई शक नहीं रहा है। इसमें मौजूदा एलएसी को अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा मानना, मौजूदा सैन्य तैनाती को धीरे धीरे कम करना, द्विपक्षीय कारोबार को बढ़ाना और पाकिस्तान की तरफ से आतंकवाद को कोई सहयोग नहीं देना व भारत की तरफ से कश्मीर से सैनिकों की संख्या घटाने की बात थी। इस प्रस्ताव को बाद में कई अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने भारत पाक के तनावग्रस्त रिश्तों को सुधारने का अभी तक सबसे प्रायोगिक सुझाव माना है। लेकिन यह मुशर्रफ की भारत संबंधी नीति का सिर्फ एक पहलू है। एक तरफ भारत से शांति वार्ता करने के साथ ही मुशर्रफ कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए जैश व लश्कर जैसे आतंकी संगठनों को पूरी छूट दे रखी थी।
वक्त पर पाला बदलना मुशर्रफ की रही है पुरानी आदत
कारगिल घुसपैठ को अंजाम दे कर उन्होंने दोनो देशों के रिश्तों को अविश्वास की ऐसी खाई पैदा कर दी जिसका भरना अभी तक नामुमकिन लग रहा है। आतंकवाद के मुद्दे पर भी मुशर्रफ की नीति हमेशा दोहरा रही। अच्छे आतंकी और बुरे आतंकी की अवधारणा सबसे पहले मुशर्रफ ने ही दी थी। उनके शासन में ही पाक सेना ने भारत सरकार की तरफ से विमान यात्रियों के बदले रिहा किये गये मौलाना मसूद अजहर को कश्मीर केंद्रित आतंकी संगठन बनाने में मदद की। भारत आज भी इस संगठन के हमले झेल रहा है। अगर मुशर्रफ ने आगरा बैठक में शांति के लिए थोड़ी भी नीतिगत लचक दिखाई होती तो भारत-पाकिस्तान के रिश्तों की दूसरी सूरत होती। यह भी नहीं भूलना चाहिए वक्त पर पाला बदलना मुशर्रफ की पुरानी आदत रही है।
सुप्रीम कोर्ट पर दबाव बना कर अपनी सैनिक तख्तापलट को सही ठहराया
11 सितंबर, 2001 के हमले के बाद जब अमेरिका ने अल्टीमेटम दिया तो तालिबान का साथ छोड़ने में मुशर्रफ ने कोई भी देरी नहीं की। जिस तालिबान को उनकी सरकार ने पाला-पोसा उस पर हमला करने के लिए अमेरिका को हवाई अड्डे व दूसरी सहूलियतें दी। मुशर्रफ ने अंदरूनी राजनीति में भी ऐसा ही किया। सैनिक तख्ता पलट के बाद दावा किया कि वह सही मायने में लोकतंत्र लाएंगे और न्यायपालिका को आजाद रखेंगे। लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट पर दबाव बना कर अपनी सैनिक तख्तापलट को सही ठहराया और शरीफ को देश निकाला दे दिया।
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