दुनिया की दिग्गज टेक कंपनियों के शीर्ष पदों पर भारतीय मूल के लोग काबिज, हमारे ‘पराग’ से महकती तकनीक की दुनिया
तकनीक की दुनिया में भारतीय प्रतिभा ने करीब दो-ढाई दशकों से सभी को सम्मोहित किया हुआ है। इस तकनीकी वृक्ष के शीर्ष पर सुंदर पिचाई सत्य नडेला अरविंद कृष्णा शांतनु नारायण रंगराजन रघुराम और अंजली सूद जैसी भारतीय हस्तियां पहले से ही विराजमान हैं।

डा. संजय वर्मा। इधर इंटरनेट मीडिया के एक प्रमुख मंच ट्विटर के सीईओ बने भारतीय मूल के पराग अग्रवाल की पूरी दुनिया में चर्चा है। महज 37 साल के पराग का इस पद पर पहुंचना विस्मित करता है। इस प्रसंग में ज्यादा उल्लेखनीय तथ्य यह है कि एक के बाद एक तमाम वैश्विक आइटी और तकनीकी कंपनियों के शीर्ष पदों पर भारतीय या भारतीय मूल के लोग काबिज हो गए हैं। यह कोई आज का बदलाव नहीं है।
बीते अर्से पर नजर डालें तो पता चलता है कि तकनीक की दुनिया में भारतीय प्रतिभा ने करीब दो-ढाई दशकों से सभी को सम्मोहित कर रखा है। इस तकनीकी वृक्ष के शीर्ष पर सुंदर पिचाई (गूगल-अल्फाबेट), सत्य नडेला (माइक्रोसाफ्ट), अरविंद कृष्णा (आइबीएम), शांतनु नारायण (एडोब), रंगराजन रघुराम (क्लाउड कंप्यूटिंग कंपनी वीएमवेयर) और अंजली सूद (आनलाइन वीडियो प्लेटफार्म वेमियो) जैसी भारतीय हस्तियां पहले से ही विराजमान हैं। बल्कि अब पराग की उपलब्धि के बाद लोग यह भी कहने लगे हैं कि मुमकिन है कि जल्द ही फेसबुक की कमान भी मार्क जुकरबर्ग किसी भारतीय को ही थमाएंगे।
तकनीक और आइटी का विश्वगुरु : यह उम्मीद बेमानी भी नहीं है। अतीत में विश्वगुरु के रूप में जिस भारत देश की महिमा गाई जाती रही है, आखिर उसका कोई तो आधार था। यह आधार ज्ञान और खोज की निरंतरता से तैयार हुआ था। इसका लोहा दुनिया पहले भी मानती थी। यह एक सच जरूर है कि पिछली कुछ सदियों में हमारा देश विश्वगुरु होने की अपनी ख्याति के अनुरूप तकनीकी विकास हासिल नहीं कर सका। अंग्रेजों की दासता के दौर में हमारा देश औद्योगिक विकास की उस होड़ में पिछड़ गया, जिसने यूरोप-अमेरिका को सपनों की जमीन में बदलने का मौका दिया। लेकिन हम इसका शुक्र जरूर मना सकते हैं कि आजादी के बाद आई विभिन्न दलों की सरकारों ने विकास के काम को किसी न किसी रूप में जारी रखा। इसका एक बड़ा फायदा यह हुआ कि देश में आइआइटी, आइआइएम जैसे विश्वस्तरीय शैक्षिक संस्थान बने।
एम्स जैसे अस्पताल बने, इसरो जैसा बेमिसाल अंतरिक्ष संगठन बना। इसे लेकर बहस हो सकती है कि यह विकास चौतरफा क्यों नहीं हुआ। आज भी आखिर क्यों हम गर्व करने लायक चंद संगठनों का नाम गिनाने के बाद खामोश हो जाते हैं। पर यह भी कोई कम उपलब्धि नहीं है कि पड़ोसी देशों को आज हमारी तकनीकी उपलब्धियां चमत्कृत करती हैं। पर यह उपलब्धि अपने पीछे कुछ सवाल भी छोड़ती है। जैसे कि ये ज्यादातर प्रतिभाएं आखिर विदेश में जाकर ही क्यों निखरती हैं। या इन्हें भारत में रहते हुए अपनी योग्यता दिखाने का अवसर क्यों नहीं मिल पाता है। ये सारे सवाल जिस एक जिज्ञासा पर जाकर संकुचित होते हैं, वह ब्रेन-ड्रेन की उस समस्या पर जाकर ठहरती है जिससे हम भारतीय पिछले दो-तीन दशकों से ज्यादा समय से जूझते रहते हैं। अक्सर ये सवाल एक विलाप में बदल जाते हैं। कहा जाने लगता है कि आखिर सरकार ऐसे प्रयास क्यों नहीं करती है कि यूरोप-अमेरिका जाकर अपना टैलेंट दिखाने वाले लोग अपने दिमाग का इस्तेमाल अपने मूल देश में करते।
ब्रेन-ड्रेन ने चमकाया देश का नाम : यह वास्तव में एक सच है कि आज तमाम आइटी या तकनीकी कंपनियों के शीर्ष पर भारतीय मूल के लोग अपनी प्रतिभा दिखा रहे हैं। इनकी प्रतिभा का भरपूर फायदा यूरोप-अमेरिका के विकसित देशों को हुआ है। साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि यदि यूरोप-अमेरिका ने इन प्रतिभाओं के लिए अपने दरवाजे नहीं खोले होते, तो शायद इनके टैलेंट को कभी इतना मान-सम्मान और पहचान नहीं मिल पाती। साथ ही देश की जो ग्लोबल पहचान इन लालों-परागों से मिली है, हम उससे भी महरूम रह जाते। इसलिए यह कहना और इस नतीजे पर पहुंचना शायद सही नहीं है कि ब्रेन-ड्रेन ने भारत का नुकसान किया। इसके उलट यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ब्रेन-ड्रेन के इस किस्से में हमें गर्व करने लायक एक मुकाम दिया है। हालांकि इस गौरवगान के साथ जो एक मलाल जुड़ा है, उसकी चर्चा अवश्य की जा सकती है।
यह मुद्दा असल में तकनीक की नई जमीनें तोड़ने और आइटी या तकनीकी कंपनियों के नौकर बनने के बजाय उनके मालिक बनने से संबंधित है। इसका सच यह है कि भारतीय आइटी और तकनीकी प्रतिभाओं की दुनिया भर में तूती भले ही बोलती हो, लेकिन आज भी हमारे पास अपना फेसबुक, ट्विटर या गूगल आदि नहीं है। करीब 150 अरब डालर की ग्लोबल और 47 से 50 अरब डालर की देसी आइटी इंडस्ट्री जिन कंपनियों के बल पर चल रही है, उनका मालिकाना हक विदेश में बैठे कारोबारियों के हाथों में है। बेशक टीसीएस, विप्रो और टेक महिंद्रा जैसी कुछ कंपनियों के नाम हम गिना सकते हैं, लेकिन उनका कारोबार वैश्विक कंपनियों के सामने बेहद छोटा है। कुछ वर्ष पहले आई पीडब्ल्यूसी ग्लोबल 100 साफ्टवेयर लीडर्स की रिपोर्ट में बताया गया था कि साफ्टवेयर से कमाई के मामले में तो हमारा पड़ोसी चीन सबसे ऊपर था। उसके बाद इजरायल, रूस, ब्राजील आदि का नाम था। भारत इस लिस्ट में था जरूर, लेकिन उसका नाम इन देशों के बाद आता रहा है।
बादशाहत को कुंद करते सवाल : शीर्ष आइटी और तकनीकी कंपनियों के मामले में हमारे देश की स्थिति देखें तो सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्या हुआ है जो भारत उस सेक्टर में अगुआ मुल्क के रूप में शामिल नहीं है जिसमें कभी उसी की बादशाहत कायम थी। इसकी एक वजह यह लगती है कि सूचना और प्रौद्योगिकी यानी आइटी के क्षेत्र में अब चीन-फिलीपींस जैसे देश भी कड़ी प्रतिस्पर्धा देने की हैसियत में आ गए हैं। ये मुल्क ऐसा इसलिए कर पाए, क्योंकि इन्होंने न केवल भारत जैसे देशों को उस क्षेत्र में कड़ी टक्कर दी, जिनका इन्हें विशेषज्ञ माना जाता था, बल्कि उन्होंने आइटी के सारे क्षेत्रों में नए अवसरों को तलाशा और उनका दोहन किया।
यह भी उल्लेखनीय है कि चीन ने दुनिया के अग्रणी ब्रांडों को अपने यहां हावी नहीं होने दिया और उनके बेहतरीन देसी विकल्प पेश करके दिखा दिया कि न तो वह अपने बाजार का किसी अन्य देश या विदेशी कंपनी को दोहन करने देगा और न ही खुद होड़ में बने रहने का कोई मौका गंवाएगा। चीन अपने यहां न तो गूगल की एक चलने दे रहा है और न ही ट्विटर-फेसबुक की। इनके विकल्प उसने पेश कर दिए हैं और वे बेहद प्रचलित हैं। चीन और दूसरे मुल्कों के भारत की प्रतिस्पर्धा में आ जाने की इन्हीं चुनौतियों का नोटिस लेते हुए इंटरनेट के लिए स्वदेशी सर्च इंजन जैसी चीजों की जरूरत बताई जाती रही है। अब भारत को तकनीक और आइटी क्षेत्र में नया करने की जरूरत है, ताकि इसके बाजार और दुनिया में इससे संबंधित कंपनियां खड़ी करने से लेकर इसके रोजगारों पर हमारी पकड़ बनी रहे। इस दिशा में कुछ ठोस काम किया जा सका तो हमें खुद पर नाज करने के कई और मौके मिल सकेंगे।
बात सिर्फ यह नहीं है कि हमारी अपनी देसी आइटी व तकनीकी कंपनियां दुनिया के मोर्चे पर अपना लोहा मनवाएं, बल्कि आज की कई जरूरतें ऐसी हैं, जिनमें हमें देसी गूगल या देसी फेसबुक पैदा करने का मतलब समझ में आता है। आतंकी गतिविधियों पर रोक, साइबर सुरक्षा, खोज की नई तकनीक विकसित करने और कमाई जैसे कुछ कारण हैं जिनके आधार पर देसी फेसबुक, ट्विटर और सर्च इंजन गूगल की इस जरूरत को वाजिब ठहराया जा सकता है। हमारे देश में इस आवश्यकता को परखने का एक प्रमुख नजरिया यह भी हो सकता है कि चीन की तरह भारत में इंटरनेट एक दायरे में रहकर काम करे। इसलिए बहुत से लोग इस हदबंदी के पैरोकार होंगे।
आतंकी गतिविधियों से लेकर अश्लील सामग्रियों के प्रसार तक कई ऐसी आपत्तिजनक बातें और चीजें भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में भी इंटरनेट के लिए कुछ बंदिशों और कायदे-कानून की मांग करते हैं। पर इंटरनेट पर जैसी लगाम पड़ोसी मुल्क चीन में लगाई गई है, क्या वैसा सब कुछ भारत में मुमकिन है। चीन इंटरनेट पर ऐसी पाबंदी इसलिए लगा पा रहा है, क्योंकि वहां इन चीजों के विकल्प मौजूद हैं। वहां अगर गूगल को काम नहीं करने दिया जाए, तो उसका बेहतर विकल्प बायदुडाटकाम है। इसी तरह ट्विटर बंद कर दिया जाता है तो चीन उसके बदले वेईबो पर वही सेवा देने लगता है। चीन की सरकार इंटरनेट को संचालित करने वाले विशालकाय सर्वर भी बीजिंग में स्थापित करना चाहती है, ताकि सभी डाटा को जब चाहे रोका और खंगाला जा सके। हमने पिछले अरसे में टिकटाक समेत दर्जनों चीनी मोबाइल एप प्रतिबंधित किए हैं, लेकिन गिरेबां में झांककर देखना चाहिए कि क्या हम उनमें से किसी एक का भी वैसा ही विकल्प पेश कर पाए जिसकी धमक पूरी दुनिया में सुनाई पड़ती।
देसी आइटी या इंटरनेट विकल्पों की मांग का अकेला यही औचित्य नहीं है। देसी विकल्पों की खोज का दूसरा मकसद साइबर सुरक्षा को मजबूत बनाना है। अभी साइबर सिक्योरिटी का आलम यह है कि सरकारी संस्थानों की वेबसाइटों को तो जब चाहे, जो चाहे हैक कर लेता है। वहां से डाटा चुरा लेना कोई मुश्किल नहीं है। लेकिन सरकार भी जानती है कि इन चुनौतियों के मद्देनजर माइक्रोसाफ्ट जैसे एक स्वदेशी आपरेटिंग सिस्टम (ओएस) विकसित करने की जरूरत है। हालांकि बताया जा रहा है कि इस मोर्चे पर अपने देश में काम शुरू हो चुका है। डीआरडीओ यानी रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन के करीब 150 कंप्यूटर इंजीनियर विंडोज और लाइनेक्स जैसे विदेशी और आयातित ओएस जितना ही सक्षम-ताकतवर आपरेटिंग सिस्टम विकसित कर रहे हैं, जिसकी अगले कुछ वर्षो में चलन में आ जाने की उम्मीद की जा रही है। इंटरनेट की किसी उपयोगिता के देसी अवतार के बारे में विचार करने के साथ-साथ जरूरी यह भी है कि उसकी व्यावहारिकता के पहलू पर भी गौर किया जाए। कहीं ऐसा न हो कि सरकारी मदद से विकसित होने और चलने वाली अन्य परियोजनाओं की तरह देसी इंटरनेट-आइटी के विकास का काम सरकारी गति से ही आगे बढ़े और सिर्फ जनता से वसूले गए टैक्स की बर्बादी का सबब बन जाए।
[एसोसिएट प्रोफेसर, बेनेट यूनिवर्सिटी]
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