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सरलता और सादगी की प्रतिमूर्ति पंडित दीनदयाल उपाध्याय बहुमुखी एवं विलक्षण प्रतिभा के धनी थे

Deen dayal Upadhyaya Birth Anniversary पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक ऐसे राजनेता रहे हैं जिन्होंने न केवल स्वयं भारत को भारत के दृष्टिकोण से जानने समझने और देखने की दृष्टि विकसित की अपितु बहुतेरों को भी वैसी ही दृष्टि प्रदान की।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sat, 25 Sep 2021 11:35 AM (IST)Updated: Sat, 25 Sep 2021 12:12 PM (IST)
सरलता और सादगी की प्रतिमूर्ति पंडित दीनदयाल उपाध्याय बहुमुखी एवं विलक्षण प्रतिभा के धनी थे
दीनदयालजी के एकात्म मानव दर्शन का मूल मंत्र है। फाइल

प्रणय कुमार। Deen dayal Upadhyaya Birth Anniversary सरलता और सादगी की प्रतिमूर्ति पंडित दीनदयाल उपाध्याय बहुमुखी एवं विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। वे एक कुशल संगठक एवं मौलिक चिंतक थे। सामाजिक सरोकार एवं संवेदना उनके संस्कारों में रची-बसी थी। उनकी वृत्ति एवं प्रेरणा सत्ताभिमुखी नहीं, समाजोन्मुखी थी। एक राजनेता होते हुए भी उन्होंने जीवन के सभी पक्षों एवं प्रश्नों पर गहन चिंतन किया और उसका युगानुकूल चित्र खींचने और उत्तर देने का सार्थक प्रयास भी। इस नाते वे एक राजनेता से अधिक राष्ट्र-ऋषि थे।

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आज भारतीय जनता पार्टी जिस विशिष्ट वैचारिक अधिष्ठान और मजबूत सांगठनिक आधार पर खड़े व टिके रहने का दावा करती है, उसके वास्तविक शिल्पी पंडित दीनदयाल उपाध्याय ही थे। बल्कि यह कहना चाहिए कि उन जैसे ध्येयनिष्ठ साधकों की साधना एवं समर्पण के बल पर ही भाजपा को सत्ता की सिद्धि प्राप्त हो सकी है। भारत की चिति एवं प्रकृति के मौलिक व सूक्ष्म द्रष्टा थे- पंडित दीनदयाल उपाध्याय।

विदेशी सत्ताएं तो परकीय दृष्टिकोण से संचालित थीं ही, स्वतंत्र भारत में भी ऐसे राजनीतिक नेतृत्व एवं दलों की कमी नहीं रही, जिनका दर्शन पश्चिम-प्रेरित रहा या जो भारत और इंडिया का फर्क नहीं जानते रहे और यदि जानते भी रहे तो उनका हित दोनों के अंतर को बनाए रखने में ही सधता रहा। वे भारत की समस्याओं का अध्ययन-अवलोकन पश्चिम के दृष्टिकोण से ही करते रहे। उन्होंने भारत और उसकी समस्याओं को खंड-खंड करके देखा, इस विखंडनवादी दृष्टिकोण के कारण ही वे भारत का समग्र चित्र प्रस्तुत करने में विफल रहे।

दीनदयाल जी का मानना था कि चाहे वह पूंजीवाद हो या साम्यवाद, समाजवाद हो या व्यक्तिवाद, इन सभी दर्शनों की अपनी-अपनी कुछ सीमाएं-लघुताएं हैं। क्योंकि ये वाद के संकीर्ण-संकुचित दायरे में आबद्ध रही हैं, इनकी जड़ें विदेशी हैं और इन सबने मनुष्य का चिंतन-विश्लेषण टुकड़ों में किया है। जब तक मनुष्य का समग्रता से चिंतन नहीं किया जाएगा, तब तक उसकी समस्याओं का भी समग्र समाधान नहीं किया जा सकेगा।

इसलिए उन्होंने मनुष्य का समग्र चिंतन करते हुए जिस दर्शन का प्रवर्तन किया, उसे पहले समन्वयकारी मानववाद और बाद में एकात्म मानववाद नाम दिया। चूंकि वाद की अवधारणा भारतीय मन एवं सनातन संस्कृति के अनुकूल नहीं, इसलिए आगे चलकर इसे ‘एकात्म मानव दर्शन’ कहा गया। पश्चिमी जगत व दर्शन जीवन के सभी क्रियाकलापों के केंद्र में ‘अस्तित्व के लिए संघर्ष’, ‘शक्तिशाली का ही अस्तित्व’, ‘प्रकृति का शोषण’ और ‘वैयक्तिक अधिकार भाव’ को सवरेपरि मानता आया है। जबकि दीनदयाल जी के मतानुसार अस्तित्व के लिए संघर्ष से अधिक सहयोग और समन्वय की आवश्यकता है। भारत की सनातन संस्कृति सर्वत्र सहयोग एवं सामंजस्य देखती आई है।

पश्चिम ने मनुष्य को केवल शरीर तक सीमित करके देखा। कतिपय चिंतक मन और बुद्धि तक स्थूल रूप से पहुंचे अवश्य, पर वे आत्मा तक नहीं पहुंच सके। दीनदयालजी के अनुसार मनुष्य केवल शरीर नहीं, अपितु शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का समुच्चय है। वह समान रूप से इन सबके सुखी होने पर ही सुख की अनुभूति कर सकता है। उसके कार्यो की प्रेरणा एवं जीवन के लक्ष्य को केवल भौतिक एवं ऐंद्रिक सुखों तक समेट देना उसकी सूक्ष्म एवं विराट चेतना को बहुत कम करके आंकना होगा। संसार की सभी महानतम उपलब्धियों के पीछे कोई-न-कोई महान प्रेरणा या ध्येयनिष्ठा काम करती आई है। किसी एक क्षण की कौंध युगांतकारी बदलाव का कारण बनती है। चाहे वह भगत सिंह, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद का संघर्ष, बलिदान एवं उत्सर्ग हो, चाहे छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरु गोविंद सिंह जी का साहस, शौर्य एवं पराक्रम हो- क्या इन सबके पीछे की दृष्टि एवं प्रेरणा भौतिक या स्वकेंद्रित थी?

महानतम प्रेरणा, शपथ युक्त संकल्प या देवदुर्लभ ध्येयनिष्ठा को सीमित संदर्भो में देखना-समझना सरासर अन्याय है। बल्कि आम आदमी के अनथक परिश्रम-पुरुषार्थ, भाग-दौड़ के पीछे भी परिवार के सुख का प्रयोजन पहले आता है और अपने सुख का बाद में। बहेलिए के बाणों से बिद्ध क्रौंच पक्षी के करुण क्रंदन से द्रवित-प्रभावित महर्ष िवाल्मीकि के मुख से फूटी सहज काव्यधारा के पीछे कौन-सी प्रेरणा काम कर रही थी? क्या उसका कोई भौतिक-लौकिक कारण ढूंढा जा सकता है? उसे विद्वतजन जो भी नाम दें, परंतु उसे देखने-समझने के लिए गहरी अंतर्दृष्टि चाहिए।

‘आत्मवत सर्वभूतेषु’ का भाव ही दीनदयालजी के एकात्म मानव दर्शन का मूल मंत्र है। यही उनके चिंतन का भी आधार था। इसीलिए वे गांधी के ‘सवरेदय’ से आगे ‘अंत्योदय’ की बात कर पाए। विकास की दृष्टि से हाशिए पर खड़ा अंतिम व्यक्ति उनके आíथक चिंतन का केंद्रबिंदु था। उसके विकास में वे समाज एवं राष्ट्र का वास्तविक विकास देखते हैं। उनका दर्शन काल्पनिक नहीं, यथार्थपरक एवं व्यावहारिक है। हिंसा, कलह एवं आतंक से पीड़ित मानवता के लिए उनका दर्शन एक वैश्विक वरदान है, समाधनपरक उपचार है। विभिन्न राजनीतिक दलों, कार्यकर्ताओं, नेताओं के लिए उनका व्यक्तित्व एक ऐसा दर्पण है, जिसमें देखकर-झांककर वे अपना-अपना आंकलन कर सकते हैं।

[शिक्षा प्रशासक]


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