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    देश में लंबित जुविनाइल केसों की बढ़ती संख्या, 50 हजार से ज्यादा किशोरों को है फैसले का इंतजार

    By Mala DixitEdited By: Prince Gourh
    Updated: Sat, 06 Dec 2025 07:44 PM (IST)

    देशभर में किशोर न्याय बोर्डों में 55,000 से अधिक मामले लंबित हैं, जिनमें तीन-चौथाई किशोर 16 से 18 वर्ष के हैं। मामलों के निपटान की राष्ट्रीय औसत दर 45 ...और पढ़ें

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    कानून तोड़ने वाले निरुद्ध किशोरों में तीन चौथाई 16 से 18 साल के (फाइल फोटो)

    माला दीक्षित, जागरण, नई दिल्ली। न्याय की धीमी रफ्तार कानून तोड़ने वाले किशोरों के मुकदमों में भी दिखाई देती है। देश भर में 362 जुविनाइल जस्टिस बोर्डों में कम से कम 55000 केस लंबित हैं और 9907 किशोर बाल देखरेख संस्थानों में निरुद्ध हैं जिनमें से तीन चौथाई यानी चार में से तीन किशोर 16 से 18 साल के हैं।

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    केसों के निपटारे का राष्ट्रीय औसत करीब 45 फीसद है यानी 55 प्रतिशत केस जुविनाइल जस्टिस बोर्डों में लंबित हैं। जिसका मतलब है कि 50000 से ज्यादा किशोर न्याय के इंतजार में हैं। किशोरों के मुकदमों को निबटाने में मिजोरम अव्वल और उड़ीसा सबसे फिसड्डी है।

    किस चीज की है कमी?

    जुविनाइल जस्टिस की देश भर में स्थिति देखी जाए तो ढांचागत संसाधनों की कमी है जो क्षमता पर असर डालती है। ये खुलासा देश में किशोर न्याय क्षमता का आंकलन करने वाली इंडिया जस्टिस की किशोर न्याय और विधि विवादित बच्चे पर आयी हालिया रिपोर्ट में होता है।

    इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2025 में जुविनाइल जस्टिस बोर्ड (जेजेबी), बाल देखरेख संस्थान (सीसीआई), विशेष किशोर पुलिस इकाइयों (एसपीजेयू), और जिला विधिक सेवा प्राधिकरण (डीएलएसए) जैसे प्रमुख संस्थानों की क्षमता का विश्लेषण किया गया है। कानून तोड़ने वाले किशोरों के केसों पर अगर नजर डाली जाए तो देश भर में 31,365 केस आईपीसी और अन्य विशेष या स्थानीय कानून में दर्ज हुए।

    देश में कितने जुविनाइल जस्टिस बोर्ड हैं?

    इनमें 40036 किशोर निरुद्ध किए गए और कानून तोड़ने वाले अभी किशोर बाल देखरेख संस्थानों में निरुद्ध 9907 किशोरों में, चार में से तीन की आयु 16 से 18 वर्ष के बीच है। जिसका मतलब है कि परिपक्वता के मुहाने पर खड़े किशोर इस ओर ज्यादा अग्रसर हैं। देश में कुल 765 जिले हैं और 707 जुविनाइल जस्टिस बोर्ड हैं जहां किशोरों के केस चलते हैं। इनमें से 362 बोर्डों ने ही सूचना साझा की है जिसके मुताबिक वहां 55000 केस लंबित हैं।

    हालांकि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्यों ने सूचना साझा नहीं की इसलिए उनके आंकड़े शामिल नहीं हैं। रिपोर्ट बताती है कि मामले निपटाने की राष्ट्रीय दर 44,69 प्रतिशत है। अगर दिल्ली को देखा जाए तो यहां केसों की निपटान दर राष्ट्रीय औसत से धीमी रही दिल्ली में 41.9 प्रतिशत केस निबटाए गए।

    हालांकि दिल्ली में प्रति विधिक सह परिवीक्षा अधिकारी (एलसीपीओ) पर औसतन 820 केसों का भार है जो राज्यों के उपलब्ध आंकड़ों में सबसे ज्यादा है। रिपोर्ट के मुताबिक 31 अक्टूबर 2023 तक देश भर में 362 जेजे बोर्डों में 55 प्रतिशत केस लंबित थे।

    केस निबटाने में मिजोरम अव्वल है जहां 79 प्रतिशत मामले निबटाए गए। हालांकि मिजोरम छोटा राज्य है उस लिहाज से उत्तराखंड की 73.7 प्रतिशत की दर अच्छी है जबकि उड़ीसा में सबसे खराब 17.4 प्रतिशत रही। हरियाणा 58, मध्य प्रदेश 51.4, और कर्नाटक में 64.7 प्रतिशत केस निबटाए गए।

    रिपोर्ट में क्या है?

    जुविनाइल जस्टिस के हाल का विश्लेषण करने वाले इंडिया जस्टिस के टीम लीड वलय सिंह कहते हैं कि ये रिपोर्ट दर्शाती है कि 2015 के जेजे अधिनियम संशोधन के दस साल बाद भी हम कानून द्वारा निर्धारित बुनियादी ढांचा और आवश्यक कार्यबल तैयार नहीं कर पाए हैं ये उन सभी संस्थाओं की विफलता को दर्शाता है जिनका उद्देश्य बच्चों के अधिकारों की रक्षा करना है।

    55000 केस लंबित होने का अर्थ है कि इतने ही बच्चों का जीवन न्यायिक अनिश्चितता में फंसा हुआ है। रिपोर्ट ये दर्शाती है कि इनके लिए विधिक-सह-परिवीक्षा अधिकारियों, सेफ्टी होम और आब्जर्वेशन होम जैसी महत्वपूर्ण सेवाओं की गंभीर कमी है।

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