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    आत्‍महत्‍या के बाद भी कम नहीं होता किसानों के परिवार का दर्द, पेंटिंग व लेखनी से उकेरा दुख

    By Monika MinalEdited By:
    Updated: Mon, 26 Aug 2019 02:14 PM (IST)

    नीलिमा कोटा देश के अलग-अलग इलाकों में आत्महत्या कर चुके किसानों के परिवारों पर गहन शोध करती हैं। इसके बाद जो चीजें सामने आती हैं उन पर आधारित पेंटिंग बनाती और किताबें लिखती हैं।

    आत्‍महत्‍या के बाद भी कम नहीं होता किसानों के परिवार का दर्द, पेंटिंग व लेखनी से उकेरा दुख

    नई दिल्ली [स्मिता]। हाल में एक खबर आई थी कि झारखंड में सौ से अधिक योजनाएं चलने के बावजूद वहां किसान आत्महत्या कर रहे हैं। यही हाल महाराष्ट्र और तेलंगाना के किसानों का भी है। किसानों की आत्महत्या के बाद विषम परिस्थितियों से जूझ रहे उनके परिवार की दुर्दशा को देखकर कोटा नीलिमा विचलित हो गईं और पत्रकारिता की नौकरी छोड़कर उन लोगों की जिंदगियों पर रिसर्च करने लगीं। भिंड और विदर्भ में हुई किसान आत्महत्या और उनके पीड़ित परिवार पर अभी दिल्ली में पेंटिंग की प्रदर्शनी लगाई गई है। उनकी किताब 'विडोज ऑफ विदर्भ’ भी इन दिनों चर्चा में है।

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    आपने इस काम की शुरुआत कब की?

    यह 15 साल पुरानी बात है। मैं पत्रकारिता के जरिये आम आदमी खासकर किसानों और उनके परिवारों के संघर्षों और तकलीफों को सामने लाना चाहती थी, पर असफल रही। बाद में इसका जरिया मैंने रिसर्च, पेंटिंग और पुस्तक लेखन को बना लिया।

    महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के किसानों तक आप कैसे पहुंची?

    मैं गरीब तबके के लिए काम करना चाहती थी। कई बार मेरा सामना ऐसी घटनाओं से हुआ, जिसने मुझे झकझोर दिया। इसके बाद मैंने अलग-अलग राज्य के किसानों के पास पहुंचना शुरू किया। तभी मैं आत्महत्या कर चुके किसानों के परिवार और बच्चों की जिंदगियों से रूबरू हो पाई।

    कितना रिसर्च करना पड़ता है?

    किसी भी पेंटिंग को बनाने या किताब लिखने से पहले वहां रहकर 4-6 महीने तक रिसर्च करना पड़ता है। कभी-कभी तो साल भर भी लग जाते हैं। इसके माध्यम से हम उनकी स्थितियों और परेशानियों के बारे में जान पाते हैं।

    क्या आपने पेंटिंग का प्रशिक्षण लिया है?

    यह सच है कि हर व्यक्ति किसी खास हुनर के साथ पैदा होता है। मुझे पेंटिंग की समझ है, लेकिन तकनीकी पहलुओं को समझने के लिए मैंने ट्रेनिंग ली। मुझे सिर्फ पेंटिंग में सुंदरता ही नहीं, विषम परिस्थितियां भी दिखानी पड़ती है। निराशा और आशा दोनों तरह के भाव दिखाने के लिए प्रशिक्षण तो अनिवार्य है।

    क्या विदेश में भी प्रदर्शनी लगाई?

    पिछले साल लंदन में पेंटिंग्स की प्रदर्शनी की थी। वह बहुत अच्छा अनुभव रहा। यदि देश के साथ-साथ विदेश में भी प्रदर्शनी आयोजित करने का अवसर मिलता है, तो न सिर्फ स्वयं के विचारों में बदलाव आता है, बल्कि देखने और सुनने वालों लोगों में भी बदलाव आता है।

    अब तक भारत के किन-किन राज्यों में रिसर्च कर चुकी हैं?

    जब भी कहीं किसान आत्महत्या की खबर मिलती है, तो मैं वहां जरूर जाती हूं। हरियाणा, मुंबई, महाराष्ट्र या गुजरात आदि राज्यों में जाकर किसानों से मिल चुकी हूं। महाराष्ट्र, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना आदि राज्यों में किसान सबसे अधिक आत्महत्याएं करते हैं। यहां मैंने सबसे अधिक रिसर्च किया है।

    आर्थिक मदद कहां से मिलती है?

    किसी भी काम को पूरा करने के लिए जबर्दस्त विश्वास के साथ-साथ आर्थिक संसाधनों की भी जरूरत पड़ती है। पेंटिंग प्रदर्शनियों और किताबों की रॉयल्टी से मिले पैसों के अलावा, अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी से भी आर्थिक मदद मिलती है।

    परिवार कितना सहयोग करता है?

    मुझे हमेशा से अपने परिवार से मदद मिली है। हां मैं उन किसानों की पत्नियों के लिए जरूर चिंतित होती हूं, जिन्हें घर की दहलीज से बाहर कदम रखने की भी इजाजत नहीं होती है। जब वे पहली बार घर से निकलती हैं, तो उन्हें सड़क पर चलने में भी डर लगता है।

    किसानों की हताशा को कैसे अध्यात्म से जोड़ पाती हैं?

    किसानों की विधवाएं जब अपने जीवन की परतें खोलती हैं, तो आपको उनकी बातें सुनकर हैरानी होगी। उनकी बातों का सार वेद और उपनिषद की बातों से मेल खाते हैं। उदाहरण के लिए वे आशा-निराशा के भाव की तुलना एक चांद की रोशनी के खत्म होने और वापस आने से करती हैं। ऐसी गूढ़ बातें आपको ग्रंथ में ही मिल सकते हैं।