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खट्टी -मीठी यादों के साथ 2017 की विदाई, 2018 से जगीं उम्मीदें

करीब दो दशक से जड़े जमा रहे और मानवता के लिए नासूर बन चुके आतंकी संगठन आइएस (इस्लामिक स्टेट) के लिए बीता साल निर्णायक साबित हुआ।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 01 Jan 2018 10:47 AM (IST)Updated: Mon, 01 Jan 2018 10:53 AM (IST)
खट्टी -मीठी यादों के साथ 2017 की विदाई, 2018 से जगीं उम्मीदें
खट्टी -मीठी यादों के साथ 2017 की विदाई, 2018 से जगीं उम्मीदें

नई दिल्ली (जेएनएन)। करीब दो दशक से जड़े जमा रहे और मानवता के लिए नासूर बन चुके आतंकी संगठन आइएस (इस्लामिक स्टेट) के लिए बीता साल निर्णायक साबित हुआ। इराक और सीरिया के एक बड़े हिस्से पर अपनी हुकूमत चला रहे इस संगठन को उखाड़ फेंकने में कामयाबी मिली है। रही-सही कसर इस साल पूरी हो जाएगी। एक ऐसा समय भी आया जब इसे दुनिया के सबसे क्रूर, सबसे बड़े और सबसे धनी आतंकी संगठन के तौर पर जाना गया। इसका मुखिया अबू बकर अल बगदादी पूरी दुनिया पर अपने खुद के कानून लागू करना चाहता था। इसे उखाड़ फेंकने के लिए अमेरिका के नेतृत्व में गठबंधन सेनाओं ने मोर्चा खोला। रूस ने भी दूसरी तरफ से हमला शुरू किया। आखिरकार अब सभी बड़े शहरों से इसे भगाने में सफलता मिली है। 

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एनएसजी की राह आसान

2005 में अमेरिका से नागरिक परमाणु समझौता होने के बाद से ही भारत परमाणु और मिसाइल तकनीक से जुड़े कई अहम मंचों में अपने प्रवेश का जतन करने लगा था। अमेरिका का खुला समर्थन भारत का उत्साह बढ़ाता रहा। जून, 2016 में भारत को एमटीसीआर में शामिल किया गया। चीन अभी इसका सदस्य नहीं है। इसमें प्रवेश के लिए अनिवार्य शर्त यही है कि अगर इसका एक भी सदस्य किसी सदस्यता चाहने वाले देश के खिलाफ वोट कर देता है तो उसे प्रवेश नहीं मिलेगा। अब यही हथियार एनएसजी में चीन के अड़ंगे की ढाल भी बनता दिख रहा है। इसी महीने दुनिया के विशिष्ट एक्सपोर्ट कंट्रोल रिजीम वासेनार अरेंजमेंट में भारत का प्रवेश सुनिश्चित हुआ है। भारत के एनएसजी में शामिल होने के लिए दुनिया की सभी ताकतें रजामंद हैं। चीन की ना-नुकुर जारी है। लेकिन तेजी से बदलती वैश्विक रणनीति में उसका यह अड़ंगा ज्यादा दिन टिकेगा नहीं। एक बार एनएसजी में भारत को प्रवेश मिल गया तो दुनिया भर की तमाम मिसाइल और परमाणु तकनीकें वह हासिल कर सकेगा। दुनिया में उसकी धमक और बुलंद होगी।

जलवायु समाधान की ओर

ग्लोबल वार्मिंग से पूरी दुनिया त्रस्त है। अमीर- गरीब और बड़े-छोटे पर इसकी लाठी एक जैसी पड़ रही है। भारी दबाव के चलते पेरिस जलवायु संधि लागू की गई जिसमें सभी देशों के उनके कार्बन उत्सर्जन में कटौती की बात कही गई साथ ही अमीर देशों को गरीब और विकासशील देशों को धन और तकनीक देने की शर्त रखी गई। इस संधि को इस साल बड़ा झटका लगा जब अमेरिका यानी इस पूरी मुहिम का अगुआ ही इससे हट गया। ट्रंप ने साफसाफ मना कर दिया कि अमेरिका एक पाई भी इस मद में नहीं खर्च करेगा। लेकिन भारत, चीन और तमाम यूरोपीय देश हतोत्साहित नहीं हुए हैं। सौर ऊर्जा सहित हरित तकनीक बनाने का जोरों से चल रहा है। यूएनएफसीसी के कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज की अगली बैठक इस साल दिसंबर में पोलैंड में होने जा रही है। दुनिया की नजरें इस बैठक पर लगी हैं। भारी दबाव के चलते अगर ट्रंप का दिल पसीजा तो ठीक, नहीं पसीजा तो उसके बिना भी दुनिया मानवता के अस्तित्व के लिए जलवायु परिवर्तन को रोकने की दिशा में आगे बढ़ेगी।

किस करवट बैठेगा उत्तर कोरिया का ऊंट

2017 में मानवता तब सिहर उठी जब एक बार फिर दुनिया में परमाणु हमले की नौबत आ पहुंची। एक छोर से अमेरिका गरज रहा था तो दूसरी ओर से उत्तर कोरिया का तानाशाह अट्टहास कर रहा था। इसी क्रम में उत्तर कोरिया ने लंबी दूरी की मिसाइलों सहित कई परमाणु परीक्षणों को अंजाम भी दे दिया। जवाबी कार्रवाई में अमेरिका ने अपने नौसैनिक बेड़ों को उत्तर कोरिया के पास महासागर में उतार दिया। जापान, दक्षिण कोरिया और अमेरिका ने सैन्य अभ्यास में तेजी शुरू कर दी। फिर कुछ स्थिति सामान्य हुई तो चीन जैसे तटस्थ देशों को मध्यस्थता के लिए लगाया गया। यह प्रयास भी विफल रहा। बहरहाल दोनों तरफ से तनातनी जारी है। विशेषज्ञों की राय भी बंटी है। परमाणु युद्ध को तो सभी खारिज करते हैं लेकिन युद्ध के अन्य रूपों के इस्तेमाल को दरकिनार नहीं कर पाते।


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