नेपाल की जनता क्या चाहती है, यह चुनाव के बाद ही पता चलेगा- डॉ. मुनि
नेपाल में जेन-जी के नेतृत्व में हुए हिंसक प्रदर्शन ने दुनिया को चौंका दिया है। पीएम ओली के इस्तीफे और पहली महिला प्रधानमंत्री की नियुक्ति के बीच हर वर्ग इस आंदोलन में शामिल है। डॉ. सुखदेव मुनि के अनुसार यह सिर्फ जेन-जी का आंदोलन नहीं है। भारत की तटस्थ नीति सटीक है और वाजपेयी-मनमोहन सिंह के टू पिलर पालिसी का उल्लेख किया गया है।

रुमनी घोष, कोलकाता। नेपाल में जेन-जी की अगुआई में हुए हिंसक प्रदर्शन ने पूरी दुनिया को हैरान कर दिया है। पीएम ओली का इस्तीफा, अंतरिम सरकार के तौर पर पहली महिला प्रधानमंत्री का दायित्व संभालना और चुनाव से पहले चुनौतियों से निपटने की कवायद के बीच पूरी दुनिया की नजर इस देश पर टिकी हुई है।
बेशक इससे पहले श्रीलंका और बांग्लादेश में इसी तरह की घटनाएं हो चुकी हैं, लेकिन यहां जो कुछ घटा, वह एक समान नजर आते हुए भी समान नहीं है। पूर्व राजदूत व जाने-माने प्रोफेसर डा. सुखदेव मुनि इसे सिर्फ जेन-जी का आंदोलन नहीं मानते हैं।
उनका कहना है यह आंदोलन नेपाल के हर वर्ग का है। इस पूरे घटनाक्रम में भारत के तटस्थ रहने की नीति को सटीक बताते हुए वह प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह के कार्यकाल में नेपाल के लिए किए गए 'टू पिलर पालिसी' का भी उल्लेख करते हैं। प्रोफेसर मुनि अंतरराष्ट्रीय संबंध और दक्षिण एशियाई देशों खासतौर पर नेपाल और श्रीलंका की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर गहरी पकड़ रखते हैं। वह इंस्टीट्यूट आफ डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस (आइडीएसए) के कार्यकारी परिषद के सदस्य रहे हैं।
चालीस वर्षों के कार्यकाल में वह जेएनयू, सिंगापुर राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और राजस्थान विश्वविद्यालय में पदस्थ रहे। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद सुधारों पर दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में भारत के विशेष दूत के रूप में कार्य किया। पेरिस शांति सम्मेलन की 50वीं वर्षगांठ समारोह में भारत के विदेश मंत्री का प्रतिनिधित्व किया। लाओ पीपुल्स डेमोक्रेटिक रिपब्लिक में भारत के राजदूत भी रहे। दैनिक जागरण की समाचार संपादक रुमनी घोष ने उनसे आंदोलन की पृष्ठभूमि, पटकथा और परिदृश्य पर विस्तार से चर्चा की। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंशः
नेपाल में हुए जेन-जी के आंदोलन को आप किस रूप में देखते हैं?
मैं जब से कालेज में पढ़ रहा था, तब से नेपाल की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों पर नजर रख रहा हूं। मेरा आकलन है कि यह सिर्फ जेन-जी का आंदोलन नहीं है। इस आंदोलन में नेपाल का हर वर्ग प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा हुआ है। यहां तक कि हर राजनीतिक दल के नेताओं का भी इस आंदोलन को समर्थन था। यहां तक कि सत्ता में काबिज राजनीतिक दलों के कुछ नेता भी इसमें शामिल हैं।
यानी आंदोलन होना तय था? तो फिर पूरी दुनिया हैरान क्यों है?
हां, आंदोलन का होना तो तय था। अभी नहीं होता तो आगे चलकर कभी होता, लेकिन यह आंदोलन जेन-जी की अगुआई में यूं अचानक शुरू हो जाएगा और इतना उग्र रूप ले लेगा, यह किसी की कल्पना में भी नहीं था। यही कारण है इंटेलिजेंस की इनपुट के बावजूद वहां की सरकार इसे रोक नहीं पाई। प्रधानमंत्री केपी ओली और सरकारी तंत्र यही सोचता रह गया कि वह इसे 'मैनेज' कर लेंगे।
नेपाल में हुए इस आंदोलन की पृष्ठभूमि कब तैयार हुई और पटकथा कब लिखी गई?
देखिए, पिछले 10-15 सालों से जब से रिपब्लिकन सिस्टम (गणतांत्रिक गणराज्य) बना है। लोगों ने निर्वाचित सरकार को समर्थन दिया। वैसे तो नेपाल का संविधान वर्ष 2015 में बना है, लेकिन बदलाव 2006 से आना शुरू हो गया था। लोगों को लगा कि राजशाही के दौर में न तो देश और न ही जनता का विकास हो रहा है।
वहां 'रिपब्लिकन आफ फेडरल सिस्टम' बनाया गया। इसमें सत्ता निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथों में आ गई। वहां की जनता को लगा कि राजशाही के दौर में न देश का विकास हो रहा है, न ही उनका। उनकी बात नहीं सुनी गई, जिसकी वजह से वहां माओवादी आंदोलन शुरू हुआ था। वह बातें अब ठीक होंगी और जनता का भला होगा। नेपाल में इस उम्मीद से लोग तब से बैठे हुए हैं, लेकिन जैसा उन्होंने सोचा था, वह नहीं हुआ। दुर्भाग्य से निर्वाचित होकर सत्ता तक पहुंचे लोग राजनीतिक सत्ता के संघर्ष में लिप्त हो गए।
यह वह लोग थे, जिन्हें कम से कम 50 साल (आधुनिक नेपाल का जन्म 1768 में हुआ, उस लिहाज से 250 साल से ज्यादा) तक सत्ता से बाहर रखा गया था। जैसे ही उनके हाथ सत्ता आई तो 'संसाधन' और 'शक्ति' का चस्का लग गया। नई गाड़ियों में घूमने लगे। सत्ता पाने और उसमें बने रहने के लिए संसाधन का दुरुपयोग, भ्रष्टाचार, कुशासन और भाई-भतीजावाद का दौर शुरू हुआ। सत्ता भी गिने-चुने लोगों के हाथों में घूमती रही।
इसका उदाहरण है कि तीन बार प्रधानमंत्री रह चुके शेर बहादुर देउबा के हटने के बाद ओली सरकार में उनकी पत्नी को विदेश मंत्री बनाया गया। उनके बेटे ने बहुत बड़ा होटल बनाया था। हाल ही में इस्तीफा देने वाले प्रधानमंत्री केपी ओली और पुष्पकमल दहाल 'प्रचंड' ने भी यही किया। देउबा नेपाली कांग्रेस, ओली कम्युनिस्ट विचारधारा वाली यूनाइटेड मार्किसिस्ट-लेनिन (यूएमएल) और प्रचंड माओवादी पार्टी से हैं। यही तीनों बार-बार सत्ता पर काबिज होते रहे। इसकी वजह से लोगों में अंसतोष पनप रहा था।
तो क्या यह माना जाए कि आंदोलन की चिंगारी 10 साल पहले लग चुकी थी और विस्फोट अभी हुआ है?
हां, बिलकुल। चिंगारी तो 10-15 साल पहले ही लगी थी। उस समय से लेकर अब तक मीडिया रिपोर्ट्स को आप देखेंगे तो पाएंगे कि भ्रष्टाचार की खबरें लगातार आने लगी थीं। इस समयावधि में एक नई पीढ़ी पैदा हुई, उन्होंने पुराना संघर्ष तो देखा नहीं था, लेकिन उनका सामना भ्रष्टाचार, कुशासन और बेरोजगारी से हो रहा था। यह पीढ़ी 'टेक्नोसेवी' (तकनीकी रूप से सक्षम) होने की वजह से वह आसपास की बदल रही दुनिया और अन्य देशों में युवाओं के लिए खुल रहे अवसरों को देख-समझ रही थी। इसके विपरीत नेपाल में युवाओं को आर्थिक अवसर नहीं मिल रहा था।
इसकी वजह से धीरे-धीरे उनमें अंसतोष बढ़ता ही जा रहा था। यह अंसतोष सिर्फ जेन-जेड में नहीं था, बल्कि हर वर्ग में यही भावना पनप रही थी। बीते दो सालों में अंसतोष बहुत ज्यादा बढ़ा। इंटरनेट मीडिया के जरिये इस अंसतोष का फैलाव हुआ। युवा पीढ़ी एकजुट हुई।
नेताओं के बच्चों की अमीरी और इंटरनेट मीडिया बंद करने के आक्रोश में क्या इतना उग्र आंदोलन हो सकता है? यह सामाजिक असमानता तो कमोवेश हर देश में है। आपका क्या आकलन है ?
यह मसला सत्ता पर काबिज नेताओं के बच्चों व परिजन की ऐशो-आराम वाली जिंदगी और उसकी तुलना में आम नेपाली युवाओं के संघर्ष का है। बेरोजगारी के चलते नेपाल से हर सप्ताह 2000 युवा विदेश जा रहे हैं। विदेश में काम कर जो राशि वह अपने घरवालों को भेजते हैं, वह जीडीपी का लगभग 26 प्रतिशत है। वहां की सरकार ने उनके इस संघर्ष को अवसर के तौर पर देखा।
विदेश से आ रही राशि की वजह से सरकारी खाते में फारेन एक्सचेंज बढ़ रहा था, इसलिए वह युवाओं के लिए कुछ करने को भी तैयार नहीं थे। वह चाहते थे कि ज्यादा से ज्यादा युवा विदेश चले जाएं। इसके एवज में नेताओं के बच्चे मौज कर रहे थे। इस अंसतोष ने इस आंदोलन की रूप-रेखा तैयार कर दी थी।
जहां तक बात इंटरनेट मीडिया बंद करने की है तो यह अभी का फैसला नहीं है। ओली सरकार ने छह-सात महीने पहले इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स को पंजीकृत करवाने की बात कही थी, ताकि सरकार को टैक्स मिल सके। वहां के सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार को पंजीकरण करवाने की अनुमति दी थी, लेकिन टिकटाक को छोड़कर किसी ने पंजीयन नहीं करवाया। इसमें से अधिकांश अमेरिकन इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म हैं।
आपने एक साक्षात्कार में आंदोलन के पीछे सोरोस की भूमिका का भी उल्लेख किया। क्या जेन-जी के पीछे कोई 'ताकतें' हैं?
उद्योगपति जार्ज सोरोस एक ओपन सोसायटी चलाते हैं। नेपाल के कुछ लोगों ने बताया कि इस आंदोलन में युवाओं को एकजुट करने में उनकी भूमिका रही है। फेसबुक, वाट्स-एप, इंस्टाग्राम आदि जितने भी इंटरनेट प्लेटफार्म हैं। जैसे ही इन पर पंजीकरण का दबाव बढ़ा तो उन्होंने माहौल बनाना शुरू किया। जब ओली सरकार ने इन पर प्रतिबंध लगा दिया तो मामला 'ट्रिगर' कर गया। यही वजह है कि आंदोलन के पीछे अमेरिकन लिंक से इन्कार नहीं किया जा सकता है।
आपने पहले दिन हुए आंदोलन को जेन-जी का बताया, लेकिन दूसरे दिन के आंदोलन को नहीं, क्यों ?
सब लोग इसे दो दिन का आंदोलन बता रहे हैं, जबकि दोनों दिन के आंदोलन के सूत्रधार अलग-अलग हैं। पहले दिन का आंदोलन युवाओं ने एकजुट होकर विरोध किया। सेना और पुलिस ने गोलियां चलाईं। इससे आंदोलन भड़क गया और लोगों में दोनों के प्रति गुस्सा भड़क गया। दूसरे दिन युवाओं के पीछे विपक्ष से जुड़े राजनीतिक दल भी शामिल हो गए। इनमें कुछ असामाजिक तत्व भी थे।
मेरा आकलन है कि जेन-जी की आड़ में राजशाही को वापस लाने की मांग करने वाले रायलिस्ट (युवा विंग) ने फ्रंट रो लेकर आगजनी की घटनाओं और हिंसा को अंजाम दिया। इनका आंदोलन सिर्फ भ्रष्टाचार और कुशासन के खिलाफ नहीं था, बल्कि इसकी आड़ में वह लोकतंत्र को ही खत्म कर देना चाहते हैं। तभी तो संसद और सिंह दरबार (सचिवालय) को जला दिया। नेपाल में एक वर्ग लंबे समय से राजशाही वापस लाने की मांग कर रहा है।
श्रीलंका, बांग्लादेश में हुई घटनाओं को नेपाल से जोड़कर देखा जा रहा है। इन तीनों घटनाओं में क्या कोई समानता है?
श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल की घटनाओं में समानता भी है और असमानता भी। तीनों ही देशों में जो सरकारें थीं, उनके खिलाफ विद्रोह था। तीनों ही देशों में सरकारें अलोकतांत्रिक थीं और तीनों ही जगह चीन समर्थित सरकारें हैं। असमानता यह है कि श्रीलंका में संवैधानिक व्यवस्था लौट आई है। चुनाव के बाद स्थिरता आ गई है। बांग्लादेश अभी भी अस्थिर है। पता नहीं कैसे और कब चुनाव होंगे। नेपाल में बांग्लादेश से भी ज्यादा बदतर स्थिति है।
नेपाल हिंसा और अनिश्चितता के मामले में बहुत आगे निकल गया। बांग्लादेश में कम से कम सेना ने आगे आकर देश को संभालने की कोशिश की, लेकिन नेपाल में तो दो दिन तक फौज की भूमिका बहुत ही निराशाजनक रही। पहले दिन युवाओं पर गोली चला दी और दूसरे दिन जब संसद, सुप्रीम कोर्ट, सिंह दरबार, बैंक सहित नेपाल की सार्वजनिक संपत्तियों सहित लोगों को आग के हवाले किया जा रहा था, तो सेना ने किसी को नहीं रोका। यही वजह है कि मैं कह रहा हूं कि नेपाल की स्थिति सबसे ज्यादा खराब है। वहां स्थिरता कब तक और कितनी आ पाएगी, यह कहा नहीं जा सकता है।
क्या सुशीला कार्की के पद संभालने के बाद भी स्थिरता नहीं आएगी?
अभी तो पुरानी चुनौतियों का हल तलाशन के साथ-साथ नई चुनौतियों का सामना करना है। संसद भंग करने के बाद नाराज नेताओं को मनाना सबसे बड़ी चुनौती होगी। उन्हें राजशाही की मांग करने वालों से निपटना होगा।
क्या वाकई वहां की जनता राजशाही चाहती है?
नहीं, मुझे ऐसा नहीं लगता है। यदि ऐसा होता तो वह राजशाही की मांग करते। जेन-जी का नेतृत्व करने वाले किसी नेता ने राजशाही को लाने की बात नहीं कही। वह नए नेतृत्व की बात कर रहे हैं। आप पिछले चुनाव का आंकड़े देखेंगे तो पाएंगे कि राजशाही का समर्थन करने वाली राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी, जो राजशाही के समर्थन में है, इन्हें सात-आठ सीटें मिलीं। वोटिंग प्रतिशत भी आठ-दस प्रतिशत था। इससे तो यही लगता है कि आम जनता राजशाही नहीं चाहती है। अब जब अगला चुनाव होगा, तो पता चलेगा कि जनता क्या चाहती है।
जेन-जी के नेता बनकर उभरे काठमांडू के मेयर और जाने-माने रैपर बालेन शाह और रवि जैसे नेताओं की भूमिका क्या रही। कहा जा रहा है बाहरी ताकतों द्वारा इन्हें प्लांट किया गया?
नहीं। मुझे यह नहीं लगता है। बालेन शाह किसी पार्टी से नहीं हैं। वह निर्दलीय चुनाव लड़कर मेयर बने। वह लगातार केंद्र सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के मुद्दे उठाते रहे, जिससे जेन-जी उनसे प्रभावित हुई। वह भी लगातार जेन-जी के समर्थन में झंडा उठाकर रखे हुए थे। एक हैं रवि लामिछाने। पत्रकार रहे लामिछाने ने नेशनल स्वतंत्र पार्टी बनाकर चुनाव लड़ा और काठमांडू में अच्छा प्रदर्शन किया था। वह भी जनता का मुद्दा उठाते रहे, तो ओली सरकार ने भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर जेल भेज दिया था। इस आंदोलन के दौरान हुए जेल ब्रेक में वह बाहर आ गए। सुमन श्रेष्ठा नाम की एक महिला भी हैं। बांग्लादेश में जैसे युनूस और श्रीलंका में एकेडी (राष्ट्रपति अनूरा कुमार दिसानायके) को ढूंढा गया। इसी तरह यहां भी कोई चेहरा आ सकता है।
भारत सरकार का रवैया तटस्थ है। आप इसे कैसे देखते हैं?
भारत सरकार की प्रतिक्रिया बहुत सटीक है। यही होना चाहिए। आप किसी के भी पक्ष में बोलेंगे तो वहां की राजनीति में यह बात उछलेगी या उछाली जाएगी कि इसमें भारत दखल दे रहा है। इससे मुसीबत ही आएगी। पहले भी वहां के राजनीतिक दल यह आरोप लगाते रहे हैं। ऐसे में भारत सरकार ने एकदम सही फैसला किया है। वैसे भी नेपाल एंटी इंडिया नेशनलिज्म है कैसे?
फिर कुछ भारतीयों को निशाना क्यों बनाया?
वहां के लोगों से सूचना मिली कि कुछ भारतीय व्यापारियों पर भी हमले हुए हैं, लेकिन हमले भारतीय होने के नाते नहीं हुए, बल्कि उन्हें लगता है कि सरकार के साथ मिलकर इन्होंने भी भ्रष्टाचार किया।
भारत के हित में क्या है... आखिर नेपाल में कैसी व्यवस्था बने?
भारत ने शुरू से ही राजशाही का विरोध किया है। 1960 में जब चुनी हुई सरकार को सत्ता से हटाकर राजशाही आई थी, तो तात्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने विरोध दर्ज करवाया था। राजशाही के दौर में ही नेपाल में चीन का प्रभुत्व बढ़ा। चीन से हथियार लिए। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान नेपाल के लिए 'टू पिलर पालिसी' का उपयोग होता था। इसमें लोकतंत्र और राजशाही दोनों के बीच संतुलन बनाकर रिश्ते निभाए गए। इस तरह से भारत हमेशा से ही लोकतंत्र के पक्ष में रहा है।
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