लाड-दुलार से जीवन बिता रहे किशोरों ने पकड़ी अपराध की राह, आम सामाजिक अवधारणा को मुंह दिखाते NCRB के आंकड़े
एनसीआरबी की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार अपराध करने वाले किशोरों में अधिकांश (79%) 16 से 18 वर्ष की आयु के हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि इनमें से अधिकतर किशोर अपने परिवारों के साथ रहते हैं बेघर नहीं। विशेषज्ञ एकल परिवारों में बच्चों को न सुनने की आदत डालने की सलाह देते हैं क्योंकि हर जिद पूरी करने से उनमें हताशा और उग्रता बढ़ सकती है।

जितेंद्र शर्मा, नई दिल्ली। आम सामाजिक धारणा है कि बेघर-बेआसरा बच्चे भटककर अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए गलत कामों में पड़ जाते हैं। यदि आपकी भी ऐसी धारणा है तो उसे बदल दीजिए, क्योंकि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की वर्ष 2023 की रिपोर्ट से यह कड़वा सच बाहर आया है कि स्वजन की छांव में लाड-दुलार के साथ जीवन बिता रहे किशोरों ने ही अधिक संख्या में अपराध की राह पकड़ी है।
इन चिंताजनक आंकड़ों के आधार पर मनोविज्ञानी जिस निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं, वह खास तौर पर एकल परिवारों के लिए सबक है। दो टूक सीख है कि अपने बच्चों को बचपन से ही न सुनने की आदत जरूर डालें। एनसीआरबी का आंकड़ा कहता है कि वर्ष 2023 में दर्ज 31365 मुकदमों में कुल 40036 नाबालिग गिरफ्तार हुए। इनमें से 31610 यानी 79 प्रतिशत किशोर 16 से 18 वर्ष की आयु के थे। इससे इंगित होता है कि उम्र के यह तीन वर्ष किशोर से युवा होती पीढ़ी के लिए सबसे अधिक संवेदनशील हैं।
जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में हुआ बदलाव
इस उम्र में उन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। शायद यही कारण है कि जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में बदलाव करते हुए यह प्रविधान किया गया है कि अपराध की जघन्यता के आधार पर 16 से 18 वर्ष के किशारों के ऊपर वयस्क की तरह सामान्य अदालत में मुकदमा चलाने का निर्णय जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड करेगा।
बेघर श्रेणी में इन बच्चों को रखा गया
इसके इतर, रिपोर्ट का एक और प्रमुख निष्कर्ष है। एनसीआरबी ने अपराध में संलिप्त किशारों का विश्लेषण उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि के आधार पर भी किया है। इसमें बताया गया है कि कुल 40036 में से 34748 किशोर ऐसे हैं, जो स्वजन के साथ रहते हैं। 3328 नाबालिग वह हैं, जो अन्य अभिभावकों के साथ रहते हैं, जबकि ऐसे किशारों की संख्या मात्र 1960 है, जो कि बेघर हैं। बेघर श्रेणी में वही बच्चे होंगे, जो फुटपाथ, रेलवे प्लेटफॉर्म आदि पर अपना जीवन व्यतीत करते हैं।
विशेषज्ञों का क्या कहना है?
सामाजिक अवधारणा से टकराते इस कड़वे सच का स्पष्ट कारण विशेषज्ञों के पास है। मानसिक स्वास्थ्य एवं चिकित्सालय आगरा के निदेशक प्रो. दिनेश राठौर इसके लिए बदली परवरिश व्यवस्था को प्रमुख कारण मानते हैं।
उनका कहना है कि पहले संयुक्त परिवारों में बच्चों की बेहतर ढंग से निगरानी हो पाती थी। अब ज्यादातर बच्चे एकल परिवार में पल रहे हैं। सामान्यत: उनके माता-पिता कामकाजी होते हैं। चूंकि, अपनी व्यस्तता में वह बच्चे को समय पर्याप्त नहीं दे पाते तो बच्चे की हर जिद सिर्फ इस सोच के साथ पूरी करते जाते हैं कि बच्चे को उनकी कमी महसूस न हो।
प्रो. राठौर बताते हैं कि ऐसे बच्चों का स्वभाव बन जाता है कि जो मन में आए, वह करना है। ऐसे बच्चों को न सुनना पसंद नहीं होता। जब वह घर के बाहर स्कूल या अन्य स्थानों पर अपनी इच्छाओं को पूरा होता नहीं देखते तो उनकी हताशा उग्रता में बदल जाती है। यही कारण है कि ऐसे नाबालिग अधिक संख्या में अपराध कर बैठते हैं।
परिवारों को दी गई ये सलाह
एकल परिवारों को प्रो. राठौर ने सलाह दी कि है कि अपने बच्चे को प्यार अवश्य करें, लेकिन उसकी हर मांग पूरी करने की बजाए बचपन से उसे न सुनने की आदत जरूर डालें।
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