कटक से संदीप राजवाड़े। दुनिया में विद्यादान को ही सबसे बड़ा दान माना गया है। इन्हीं शब्दों को चरितार्थ कर रही हैं ओडिशा के कटक की 28 साल की भानुप्रिया राव। उनके पिता डी प्रकाश राव का सपना था कि हर बच्चे को शिक्षा मिले। इसलिए चाय की टपरी चलाते हुए उन्होंने जरूरतमंद बच्चों के लिए मुफ्त स्कूल खोला था। उनके इस पहल की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी प्रशंसा की थी और उन्हें 2019 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। लेकिन डेढ़ साल पहले ब्रेन स्ट्रोक से उनकी मौत हो गई। तब से उनकी बेटी भानुप्रिया पिता के सपने को साकार करने में लगी हुईं हैं।

आज इस स्कूल में आसपास की बस्तियों के 98 जरूरतमंद बच्चे पढ़ रहे हैं। उनकी शिक्षा, यूनिफॉर्म, खाना, कॉपी-पेन- किताब और घर से स्कूल आने-जाने की सुविधा मुफ्त में उपलब्ध कराई जा रही है। बच्चों को ये सुविधाएं भले मुफ्त मिल रही हों, भानुप्रिया को तो इन सबके लिए पैसे का इंतजाम करना ही पड़ता है। इसलिए उन्होंने दो साल से बंद पिता की चाय की दुकान को मां के साथ दोबारा शुरू किया है।

शिक्षा का प्रकाश फैलाने वाले प्रकाश की कहानी

यह कहानी कटक में पिछले 50 साल से सड़क किनारे चाय की दुकान लगाने वाले डी प्रकाश राव से शुरू होती है। मक्सी बाजार के समाज कार्यालय के पास उनकी दुकान पर सुबह से शाम तक लोगों का आना-जाना लगा रहता था। प्रकाश में पढ़ने की ललक तो थी, लेकिन मजबूरीवश वे प्राइमरी तक की पढ़ाई भी नहीं कर पाए थे। शायद दूसरे बच्चों को शिक्षा दिलवाने में ही उन्हें अपनी हसरत पूरी होती नजर आई।

उनकी दुकान के आसपास की बस्तियों के बच्चे स्कूल नहीं जाते थे, सरकारी स्कूल भी थोड़ा दूर था। उनके माता-पिता की हैसियत इतनी नहीं थी कि बच्चों को निजी स्कूल में पढ़ा सकें। प्रकाश बचपन में इन समस्याओं से दो-चार हो चुके थे, इसलिए वे नहीं चाहते थे कि ये बच्चे भी पढ़ाई-लिखाई से महरूम रहें।

वर्ष 2000 में उन्होंने एक छोटी सी शुरुआत की। बस्ती के 5-6 बच्चों को अपने घर बुलाकर मुफ्त में पढ़ाने लगे। धीरे-धीरे और बच्चे आए। बच्चों की तादाद बढ़ी तो चाय की दुकान से होने वाली कमाई जोड़कर उन्होंने 2005 में ‘आशा-आश्वासना’ नाम से स्कूल खोला। स्कूल में गरीब बच्चों को मुफ्त में शिक्षा देने की पहल शुरू की गई।

प्रकाश अपने खर्च से ही स्कूल चला रहे थे। बच्चों को भले दोपहर का खाना, किताब-कॉपी और यूनिफॉर्म मुफ्त में मिलता था लेकिन स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षकों को वे वेतन जरूर देते थे। उनकी इस निःस्वार्थ सेवा की चर्चा फैली तो ओडिशा के कुछ सामाजिक संगठन आगे आए और अनाज तथा किताब-कॉपी दान में देने लगे। फिर क्या था, 65-70 बच्चों ने स्कूल में दाखिला ले लिया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2018 में कटक दौरे पर गए तो प्रकाश से मिले और उनके काम की प्रशंसा की। 2019 में भारत सरकार की तरफ से उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। लेकिन, कहते हैं न कि अच्छे लोगों की जरूरत ईश्वर को भी होती है। पद्मश्री मिलने के कुछ महीने बाद ही उन्हें ब्रेन स्ट्रोक आया और उनकी तबीयत खराब रहने लगी। चाय की दुकान भी बंद हो गई। आखिरकार 13 जनवरी 2021 को वे स्वर्ग सिधार गए।

बेटी ने संभाला स्कूल का जिम्मा

प्रकाश ने बेटी भानुप्रिया को भी खूब पढ़ाया। भानु ने दिल्ली में रहकर होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई की। इसके बाद उन्होंने सिंगापुर और ऑष्ट्रेलिया में जॉब की। दिल्ली में अच्छी नौकरी मिलने पर वो वापस आ गई। लेकिन 2019 में पिता की तबीयत बिगड़ी तो उन्हें नौकरी छोड़ के कटक लौटना पड़ा। स्कूल चलाने और पिता की देखभाल के लिए वे कटक में ही रुक गईं।

भानुप्रिया ने भले ही अपनी नौकरी छोड़ दी थी, लेकिन पिता के सपने को अधूरा नहीं छोड़ना चाहती थीं। चाय की दुकान तो बंद हो चुकी थी, पिता के गुजरने के बाद दान करने वालों ने भी हाथ खींच लिए थे। लेकिन भानुप्रिया ने हार नहीं मानी। उन्होंने पिता और अपनी बचत के पैसे से स्कूल चलाना जारी रखा। वह खुद भी वहां पढ़ाने लगीं।

भानुप्रिया की असली परीक्षा मौत का भयावह मंजर दिखाने वाले कोरोना की दूसरी लहर के दौरान हुई। स्कूल बंद था, फिर भी उन्होंने 8 शिक्षकों और स्कूल वैन चलाने वाले ड्राइवर की सैलरी की व्यवस्था की। कुछ दिनों बाद कोरोना का असर तो कम हो गया, लेकिन सहमे माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल भेजने को राजी न थे।

भानुप्रिया जानती थीं कि अगर उन्होंने अभी कुछ नहीं किया तो बच्चों की पढ़ाई अधूरी रह जाएगी। स्कूल के शिक्षकों के साथ बस्तियों में घर-घर जाकर उन्होंने माता-पिता को समझाया और बच्चों को दोबारा स्कूल से जोड़ा। उनकी यह मेहनत रंग लाई और आज नर्सरी से पांचवीं तक 98 बच्चे रोजाना ‘आशा ओ आश्वासना’ (स्कूल का नाम) में अपनी मुस्कान बिखेर रहे हैं।

मां के साथ पिता की बंद चाय की दुकान खोली

स्कूल चलाने में भानुप्रिया को कभी-कभार ही मदद मिलती है। आर्थिक तंगी को देखते हुए उन्होंने दो साल से बंद पिता की चाय दुकान पिछले महीने फिर खोल ली है। मां पी विजयलक्ष्मी के साथ वह दुकान भी संभाल रही हैं। वे कहती हैं, “शिक्षकों और ड्राइवर की सैलरी में हर महीने 30 हजार रुपए से ज्यादा चले जाते हैं। इसके अलावा बिजली बिल, बच्चों के दोपहर के खाने, कॉपी-किताब में करीबन 30 हजार रुपए लगते हैं। मेरी सेविंग्स खत्म हो गई, इसलिए 15 अगस्त से पापा की चाय दुकान फिर से शुरू की है।”

भानु जो कर रही हैं वह कठोर तपस्या है, जो हर किसी के बस की बात नहीं। वह रोजाना सुबह 5 बजे दुकान जाती हैं और 9 बजे तक रहती हैं। वहां से सीधे स्कूल जाती हैं और बच्चों को पढ़ाती हैं। दोपहर 2 बजे तक स्कूल में पढ़ाने के बाद घर जाती हैं। शाम 4 से 7 बजे तक फिर दुकान चलाती हैं। उसके बाद रात 9 बजे तक मां और चचेरा भाई राकेश दुकान संभालते हैं। भानु कहती हैं, “दुकान से रोजाना 400-500 रुपए की कमाई हो जाती है। लेकिन वह स्कूल की जरूरतें पूरी करने के लिए काफी नहीं।”

बच्चों को आगे बढ़ते देखने का सुकून

भानुप्रिया कहती हैं, मेरे पिता पढ़ाई को ही जीवन में आगे बढ़ने और सफल होने का मंत्र मानते थे। सरकार या अन्य कहीं से कोई मदद नहीं मिलती है, लेकिन उनके स्कूल को मैं कभी बंद नहीं होने दूंगी। भानु की मां विजयलक्ष्मी बताती हैं, “यह स्कूल इसके पापा ने गरीब बच्चों के लिए खोला था, आज कई बच्चे इस स्कूल से पढ़कर अच्छी जगह शिक्षा ले रहे हैं। यह देखकर मन को बहुत सुकून मिलता है।” शायद यह सुकून ही इस तपस्या की ऊर्जा का स्रोत है।