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    एआई ने पढ़ाई को ‘शॉर्टकट’ बनाया या ‘स्मार्टकट’? किस तरह के बदलाव आवश्यक, बता रहे एक्सपर्ट्स

    Updated: Tue, 10 Jun 2025 03:47 PM (IST)

    एआई टूल्स कई बार सही संदर्भ में जानकारी देने में मददगार साबित होते हैं। लेकिन इनका बढ़ता इस्तेमाल देखकर आईआईटी दिल्ली ने कहा है कि हमें पढ़ाने के तरीके असाइनमेंट और परीक्षा के डिज़ाइन और मूल्यांकन को नए सिरे से सोचना होगा। रिपोर्ट के अनुसार यदि किसी प्रोजेक्ट में एआई द्वारा बनाए गए चित्र तालिकाएं डेटा विज़ुअलाइज़ेशन शामिल हों तो इसे कैप्शन या फुटनोट में स्पष्ट रूप से बताना चाहिए।

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    आईआईटी दिल्ली ने एक निर्णायक पहल की है। एआई के इस्तेमाल की जानकारी देनी होगी

    नई दिल्ली, अनुराग मिश्र।

    1956 में डार्टमाउथ सम्मेलन के दौरान जब पहली बार आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस शब्द अस्तित्व में आया, तब शायद किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि एक दिन यह तकनीक शैक्षणिक ईमानदारी और मौलिकता को परिभाषित करने वाली सबसे बड़ी चुनौती बन जाएगी। आज के दौर में जब चैटजीपीटी, जैमिनी, क्लाउडे जैसे जनरेटिव एआई टूल्स किसी भी विषय पर शोधपत्र, उत्तर या प्रस्तुति चंद सेकंड में तैयार कर सकते हैं, तब यह प्रश्न और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि ज्ञान का श्रेय किसे दिया जाए। मानव मस्तिष्क को या मशीन को? क्या जो लिखा गया वह वास्तव में मौलिक है, या सिर्फ एल्गोरिद्म का उत्पाद?

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    इन्हीं जटिलताओं और नैतिक उलझनों के बीच आईआईटी दिल्ली ने एक निर्णायक पहल की है। संस्थान ने स्पष्ट रूप से निर्देशित किया है कि शैक्षणिक या शोध कार्य में यदि एआई टूल्स का उपयोग किया गया है, तो उसकी जानकारी देना अनिवार्य होगा। यह कदम न सिर्फ अकादमिक ट्रांसपेरेंसी और ईमानदारी की रक्षा करता है, बल्कि उच्च शिक्षा संस्थानों के लिए एक नई नैतिक रूपरेखा भी तैयार करता है। जहां तकनीक सहयोगी तो हो सकती है, लेकिन उसकी भूमिका स्पष्ट रूप से परिभाषित होनी चाहिए।

    आईआईटी दिल्ली के निदेशक प्रो. रंगन बनर्जी का कहना है कि जनरेटिव एआई टूल्स अब छात्रों, शिक्षकों और स्टाफ के बीच तेजी से इस्तेमाल हो रहे हैं। ये टूल्स कई बार सही संदर्भ में जानकारी देने में मददगार साबित होते हैं। लेकिन इनका बढ़ता इस्तेमाल देखकर अब हमें पढ़ाने के तरीके, असाइनमेंट और परीक्षा के डिज़ाइन और मूल्यांकन को नए सिरे से सोचना होगा। आईआईटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि किसी प्रोजेक्ट में एआई द्वारा बनाए गए चित्र, तालिकाएं, डेटा विज़ुअलाइज़ेशन या महत्वपूर्ण पाठ्यांश शामिल हों, तो इसे कैप्शन या फुटनोट में स्पष्ट रूप से उल्लेखित किया जाना चाहिए। उपयोगकर्ता यह सुनिश्चित करें कि एआई-जनित कंटेंट सटीक हो, किसी भी तरह से प्लेगराइज़्ड न हो, और किसी संवेदनशील जानकारी का खुलासा न हो। स्रोत सामग्री और मॉडल को उपयोग से पहले सावधानी से जांचें। एआई टूल्स की मदद से तैयार किया गया कोई भी काम या सामग्री पूरी तरह से स्पष्ट की जानी चाहिए, ताकि पारदर्शिता बनी रहे और अकादमिक ईमानदारी कायम रहे।

    विशेषज्ञ कहते हैं कि आज से 30-40 साल पहले जो ज्ञान 10वीं कक्षा में सिखाया जाता था, वह अब 6वीं में पढ़ाया जाता है। नॉलेज की उपलब्धता और ट्रांसफर अब तेज हो गया है। ठीक उसी तरह, एआई ने ज्ञान के प्रसार की गति को और तेज कर दिया है। अब छात्रों के पास वह अवसर है कि वे जानकारी के कई स्रोतों को एकत्रित कर, उसे समेकित करें और उस पर अपना विश्लेषण प्रस्तुत करें।

    ह्यूमिनिली.एआई के को-फाउंडर और गृह मंत्रालय की राजभाषा संबंधी संसदीय समिति के सदस्य ऋषभ नाग कहते हैं कि आज के समय में जब कोई भी छात्र किसी विषय की पढ़ाई करता है, तो वह विभिन्न स्रोतों से जानकारी प्राप्त करता है। पारंपरिक शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थियों को पाठ्यक्रम के अनुसार 50 से 100 पुस्तकें दी जाती हैं, जो वे अपनी पढ़ाई के वर्षों में पढ़ते हैं। इन पुस्तकों के माध्यम से वे परीक्षा देते हैं और सफल होते हैं। परंतु आज तकनीक की बदौलत, विशेष रूप से आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के आगमन के बाद, छात्रों को अब अतिरिक्त ज्ञान के स्रोत भी उपलब्ध हो गए हैं।

    अगर किसी छात्र को अब 50 के बजाय 70 या 80 पुस्तकें या शोधपत्रों से जानकारी मिल जाए, वह भी एक क्लिक पर तो उसमें क्या गलत है? यदि छात्र उस जानकारी को सही तरीके से संदर्भित करता है, जैसे कि रिसर्च पेपर, व्हाइट पेपर, या किसी प्रतिष्ठित स्रोत का हवाला देकर, तो यह पूरी तरह से वैध है। असल में, ज्ञान का विकास इसी तरह से होता है, जानकारी को इकट्ठा कर, समझ कर, और उसे अपने शब्दों में प्रस्तुत करके।

    वह कहते हैं कि हम सभी ने जब पढ़ाई की, तो जानकारी पुस्तकों, शिक्षकों के नोट्स, शोधपत्रों, या अन्य स्रोतों से ली। वही आज का छात्र कर रहा है, फर्क सिर्फ इतना है कि उसके पास एआई जैसे टूल्स की सहायता है, जो जानकारी तक पहुंचने की गति और सटीकता को बढ़ा देते हैं। आज एआई टूल्स छात्रों को न केवल प्रश्नों के उत्तर देने में मदद करते हैं, बल्कि उन्हें सर्वे डिजाइन करने, शोध खोजने, और उन्हें व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करने में भी सक्षम बनाते हैं।

    नाग कहते हैं कि आज की हायर एजुकेशन का मतलब केवल किताबों और क्लासरूम तक सीमित नहीं रह गया है। यह एक ऐसी दुनिया है जहां इंफॉर्मेशन की स्प्रेड अनलिमिटेड है। अगर किसी ने हार्वर्ड में कोई रिसर्च की, तो वह भारत का स्टूडेंट भी पढ़ सकता है और उसे पढ़ना भी चाहिए। उसी तरह अगर भारत में कोई रिसर्च हुई, तो सिंगापुर का स्टूडेंट भी उससे लाभान्वित हो सकता है।

    शारदा विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस इन मेडिसिन, इमेजिंग और फॉरेंसिक्स के प्रोफेसर और हेड डॉ. अशोक कुमार कहते हैं कि आईआईटी दिल्ली का यह फैसला एक अच्छा कदम है। इससे शोध और पढ़ाई में ईमानदारी बनी रहती है। अगर कोई एआई टूल का इस्तेमाल करता है तो उसे बताना जरूरी है। इससे काम में पारदर्शिता आती है और यह दिखाता है कि किसने क्या किया। यह नीति लोगों को सही तरीके से एआई का उपयोग करने के लिए प्रेरित करती है।

    जानकारी तथ्यात्मक है तो स्रोत की संख्या या माध्यम महत्वपूर्ण नहीं

    नाग कहते हैं कि अगर एक जानकारी किसी किताब से ली गई है, तो वह पुस्तक है। अगर शिक्षक के नोट्स से ली गई है, तो वह व्याख्यान है। अगर किसी शोधपत्र से ली गई है, तो वह अकादमिक अध्ययन है। नाग तर्क देते हैं कि जब तक छात्र उस जानकारी को समझ कर, उसे अपने उत्तर में आत्मसात कर प्रस्तुत कर रहा है और वह उत्तर तथ्यात्मक रूप से सही है, तब तक स्रोत की संख्या या माध्यम महत्वपूर्ण नहीं रह जाता।

    इसलिए यह आवश्यक है कि हम ज्ञान के नए साधनों को विरोध करने के बजाय, उन्हें अपनाएं और यह समझें कि एआई अब शिक्षा की प्रक्रिया का एक सहायक माध्यम बन चुका है, प्रतिस्थापन नहीं।

    एआई और आम लोगों की सोचने की आदत

    नाग कहते हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एक शक्तिशाली टूल है, परन्तु उसका आउटपुट भी आपके इनपुट, आपकी समझ, और आपकी मेहनत पर निर्भर करता है। यदि कोई सिर्फ एआई से प्राप्त जानकारी को कॉपी-पेस्ट करता है, तो वह सिर्फ ‘यूज़र’ बना रहता है, निर्माता नहीं।

    10% लोग ही ऐसे होते हैं जो टूल के साथ समय बिताकर, उसमें डूबकर, उससे कुछ मौलिक निकालते हैं। बाकी 90% लोग आज भी वही करते हैं जो इंटरनेट की शुरुआत के समय करते थे जानकारी को खपत करते हैं, न कि उससे कुछ नया रचते हैं। जो भी टूल इस्तेमाल हो इंटरनेट हो, एआई हो, या कोई अन्य उसका असर इस पर निर्भर करता है कि उपयोगकर्ता उसे कैसे और कितनी समझ के साथ उपयोग करता है। केवल जानकारी जुटा लेना काफी नहीं है, उसे समझना और ढालना ही आज की सबसे बड़ी दक्षता है।

    संस्थानों को बनाना चाहिए नियम

    डा. अशोक कुमार इस बात से सहमत है कि सभी संस्थानों को ऐसा नियम बनाना चाहिए। इससे यह पता चलता है कि एआई का इस्तेमाल कहां और कैसे हुआ है। इससे नकल और गलत तरीके से उपयोग करने पर रोक लगेगी। इससे छात्र एआई को सही ढंग से सीख पाएंगे और आगे चलकर उसका जिम्मेदार तरीके से इस्तेमाल कर पाएंगे।

    टीचर की जिम्मेदारी सिर्फ पढ़ाना नहीं, जानकारी लाना भी

    डा. कुमार कहते हैं कि अगर छात्र को बताना पड़े लेकिन शिक्षक को नहीं, तो यह दोहरी नीति होगी। अकादमिक ईमानदारी की नीति सभी के लिए समान होनी चाहिए। शिक्षक शोध की दिशा तय करते हैं, इसलिए उनका पारदर्शी होना और उदाहरण प्रस्तुत करना आवश्यक है। असमान नियमों से संस्थान में अविश्वास का वातावरण बन सकता है और एआई पर खुलकर चर्चा बाधित हो सकती है। समान नियम व्यवस्था में निष्पक्षता और उत्तरदायित्व को बढ़ावा देते हैं।

    येलो स्लाइस के संस्थापक किशोर फोगला कहते हैं कि आईआईटी दिल्ली का यह नया निर्देश कि छात्रों को अपने AI उपयोग की जानकारी देनी होगी, अकादमिक पारदर्शिता और ईमानदारी की दिशा में एक साहसिक कदम है। लेकिन इसमें एक दोहरा मापदंड उभरता है – छात्र अपने ऑनलाइन और डिजिटल सहयोगियों को बताएं, जबकि प्रोफेसर ऐसा नहीं करते। अगर हम अपने शैक्षणिक तरीकों को वास्तव में नवाचारपूर्ण और न्यायसंगत बनाना चाहते हैं, तो सभी के लिए एक समान नियम होने चाहिए।

    ऋषभ नाग कहते हैं कि आज एक प्रोफेसर या टीचर का काम सिर्फ एक ही विषय को छह अलग-अलग क्लासेज़ में पढ़ाना नहीं है। उनका जॉब है, खुद को अपडेट रखना, नई रिसर्च ढूंढना और उसे छात्रों तक लाना। क्या डब्ल्यूएचओ ने हेल्थ पर नया डेटा जारी किया? क्या आईएमएफ या विश्व बैंक ने अर्थव्यवस्था को लेकर कोई नई रिपोर्ट दी? क्या एआई या साइबर लॉ पर कोई नई थ्योरी पब्लिश हुई? तो उस जानकारी को एक प्रोफेसर को लाना चाहिए और सबसे ज़रूरी बात यह कि यह उसकी कर्तव्य है। अगर 70 साल पुरानी किताबें ही आज भी पढ़ाई जा रही हैं, तो सवाल बनता है नई जानकारी लाने की जिम्मेदारी किसकी है? जवाब है प्राथमिक रूप से शिक्षक की। आज टीचर के पास इतने रिसोर्सेज़ हैं, रिसर्च जर्नल्स, ओपन फोरम्स, डिजिटल लाइब्रेरीज़, और AI-बेस्ड टूल्स कि अब उन्हें ढूंढने की बजाय “चुनने” की जरूरत है कि क्या सबसे प्रासंगिक है। एआई अब शिक्षक की तेजी से डेटा लाने में, कंटेंट को शॉर्टलिस्ट करने में और उनके लेक्चर के लिए बेहतरीन मैटीरियल तैयार करने में मदद करता है।

    बोर्ड ऑफ स्टेलर इनोवेशन के चेयरमैन शशि भूषण कहते हैं कि आईआईटी दिल्ली द्वारा एआई के उपयोग की जानकारी देने का निर्देश अकादमिक पारदर्शिता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह छात्रों की पहले से मौजूद जिम्मेदारी को और मजबूत करता है कि वे अपनी किसी भी एआई मदद को स्पष्ट रूप से बताएं।

    यह एक अच्छा प्रयास है ताकि एआई के बढ़ते उपयोग के बीच शैक्षणिक ईमानदारी बनी रहे और शिक्षा प्रणाली अधिक जिम्मेदार हो सके। लेकिन इस निर्देश में शिक्षकों पर कोई समान जिम्मेदारी नहीं डाली गई है, जो इस अच्छे प्रयास की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करता है। दिशानिर्देश कहते हैं कि एआई टूल्स की मदद से तैयार की गई किसी भी सामग्री की जानकारी दी जानी चाहिए ताकि पारदर्शिता बनी रहे और आपकी शैक्षणिक ईमानदारी दिख सके। यह एक अच्छा विचार है, लेकिन अगर सिर्फ छात्रों से यह अपेक्षा हो और शिक्षकों को छूट हो, तो यह एकतरफा है।

    यूनिवर्सिटी के पास एआई जनिट कंटेंट को पहचानने के लिए टूल्स की भरमार

    नाग कहते हैं कि जहां तक प्लेजरिज़्म यानी साहित्यिक चोरी का सवाल है, बड़ी यूनिवर्सिटियों और संस्थानों ने पहले ही ऐसे टूल्स को अपना लिया है, जो एआई-जनित कंटेंट को पहचान सकते हैं। लेकिन जब छात्र स्पष्ट रूप से स्रोतों का हवाला देते हुए कहता है कि उसने यह जानकारी इस रिसर्च पेपर, वेबसाइट या व्हाइट पेपर से ली है, तो यह पारदर्शिता और ईमानदारी का संकेत है। जानकारी का स्रोत चाहे एक हो या दस, अगर अंतिम समाधान सही है, तो यह महत्वपूर्ण नहीं रह जाता कि जानकारी कहां से आई।

    डा. कुमार कहते हैं कि यदि एआई पर अत्यधिक कड़े प्रतिबंध लगाए गए तो इससे छात्रों की रचनात्मकता और नवाचार की भावना पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। नियमों की ज़रूरत है, लेकिन वे छात्रों को एआई की संभावनाओं का जिम्मेदारी से उपयोग करने के लिए प्रेरित करें। जब तक छात्र अपने कार्य में पारदर्शिता बरतते हैं, उन्हें एआई के साथ प्रयोग की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। नैतिकता और स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाना आवश्यक है।

    फोगला मानते हैं कि एआई की बनाई सामग्री क्या "मूल विचार" हो सकती है? शायद नहीं। लेकिन क्या एआई दूसरों के विचारों को जन्म दे सकती है और नई संभावनाएं खोल सकती है? बिल्कुल! वह कहते हैं कि जैसे एक अभिनेता किसी स्क्रिप्ट को अपने नजरिए से निभाता है और उसमें अपनी सच्चाई ढूंढता है। असल सवाल यह है कि कैसे हम रचनात्मकता को बढ़ावा देने वाली मानवीय प्रक्रिया को बनाए रखते हुए अकादमिक ईमानदारी भी सुनिश्चित करें?

    एआई के छुपे उपयोग का पता लगाया जा सकता है, लेकिन यह आसानी से एक अत्यधिक निगरानी वाला तंत्र बन सकता है। अगर हम ज़रूरत से ज़्यादा निगरानी करेंगे, तो वह रचनात्मकता ही दब सकती है जिसे हम बढ़ाना चाहते हैं।

    संरचना में पेश कर रहा एआई

    नाग कहते हैं कि कोई भी विचार या थॉट साइलो में पैदा नहीं होता। न ही इंसान, न ही मशीन। हर विचार कहीं से आता है, कभी किसी चर्चा से, किसी पढ़े गए शोध से, किसी सुनी बात से, या फिर किसी देखे गए तथ्य से। जब आप किसी विषय पर बात करते हैं तो आपकी बातों में आपके अनुभव, आपकी पढ़ाई, आपके संदर्भ झलकते हैं। आपने कुछ सुना, जाना, परखा और फिर एक नई व्याख्या गढ़ी। यही एक जीवंत विचार प्रक्रिया है।

    उसी प्रकार, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस भी कोई नई चीज नहीं देता, वह भी तो वही करता है जो इंसान करता है। वह डेटा पढ़ता है, तुलना करता है, किसी भरोसेमंद स्रोत से जानकारी लाता है, और फिर उसे एक संरचना में पेश करता है। इसमें सबसे बड़ी खास बात यह है कि यह आपको वह रास्ता दिखाता है, जो आपने शायद पहले न देखा हो। लेकिन जो भी जानकारी एआई आपको दे रहा है, वह भी आखिर में इंसान की बनाई गई जानकारी है, जो किसी थॉट प्रोसेस से होकर निकली है। यानी, चाहे वह इंसान हो या एआई, कोई भी विचार एकदम नया नहीं होता, वह संदर्भों और संदर्भित ज्ञान का ही पुनर्गठन होता है।

    ऋषभ नाग कहते हैं कि अब ज़रा शिक्षा के परिप्रेक्ष्य में इस पूरी प्रक्रिया को देखें। एक अच्छा शिक्षक सिर्फ कंटेंट डिलीवर करने वाला व्यक्ति नहीं है। उसका असली काम है समकालीन दुनिया में क्या चल रहा है, दुनिया में किस विषय पर नई खोज हो रही है, कौन सा विचार कितना भरोसेमंद है, यह खोजना और फिर उस जानकारी को विद्यार्थियों के लिए प्रासंगिक बनाकर प्रस्तुत करना। चाहे रिसर्च हार्वर्ड में हुई हो या सिंगापुर में, या फिर भारत में वह हर जगह से रिसर्च को देखे, परखे, और तय करे कि छात्रों को क्या बताना है। वही असली शिक्षण है।

    इसीलिए विश्वविद्यालय प्रोफेसरों और शोधकर्ताओं को विभिन्न जर्नल्स, डेटाबेस और फोरम्स तक एक्सेस देती है, ताकि वे वैश्विक ज्ञान से जुड़े रहें। उनका काम केवल वही पुरानी किताब पढ़ाना नहीं है जो 70 साल पहले लिखी गई थी, बल्कि यह तय करना है कि आज की तारीख में कौन सी जानकारी, कौन सा शोध, कौन सा दृष्टिकोण छात्रों के लिए सबसे उपयोगी और प्रासंगिक है। यह जिम्मेदारी मुख्यतः शिक्षक की है, न कि छात्र की।

    मौलिकता को नियंत्रित करने के बजाए नई परिभाषाएं बनाएं

    शशि भूषण कहते हैं कि एआई विचारों को इकट्ठा करने और शोध में मदद कर सकता है, लेकिन मूल विचार तब आते हैं जब हम जानकारी को अपनी सोच, आलोचना और संदर्भ के साथ जोड़ते हैं। एआई के छिपे उपयोग का पता लगाना तकनीकी रूप से तो संभव है, लेकिन यह एआ के इस्तेमाल को मुश्किल और एक डरावना अनुभव बना सकता है, जहां छात्र और संस्थान एक-दूसरे के विरोधी बन जाएं। हमें अपनी सोच बदलनी चाहिए। मौलिकता को नियंत्रित करने के बजाय हमें स्पष्ट परिभाषाएं तैयार करनी चाहिए, ताकि एआई के साथ नवाचार संभव हो सके।

    अगर सभी संस्थान ऐसी नीतियां बनाएं जो छात्रों और शिक्षकों दोनों को समान रूप से जवाबदेह बनाएं, तो हम एक अधिक पारदर्शी और जिम्मेदार शैक्षणिक वातावरण बना सकते हैं। जहां एआई को अपनाया जाए लेकिन शैक्षणिक ईमानदारी भी बनी रहे।

    एआई के आने से शिक्षक की भूमिका और जिम्मेदार हुई

    ऋषभ नाग का मानना है कि आज एआई जैसे उपकरण शिक्षक को यह सुविधा दे रहे हैं कि वे झटपट डब्ल्यूएचओ, वर्ल्ड बैंक, IMF जैसी संस्थाओं से जानकारी लाकर, उसे प्रोसेस कर, अपने नोट्स बना सकें और विद्यार्थियों को ताज़ा जानकारी दे सकें। इसका मतलब यह नहीं कि शिक्षक की भूमिका खत्म हो गई, बल्कि उसकी भूमिका अब और भी ज़िम्मेदार हो गई है कि वह यह तय करे कि कौन सी जानकारी भरोसेमंद है, कौन सी नहीं, और कौन सी कितनी प्रासंगिक है। विद्यार्थियों के लिए भी यही बात लागू होती है। पहले छात्र तीसरे चरण पर काम करते थे कि किताब से जानकारी उठाई, उसे समझा और उसका हल निकाल लिया। लेकिन अब उन्हें एक साथ दस स्रोतों से जानकारी मिल रही है, जिनमें से उन्हें खुद फिल्टर करना है कि किस पर भरोसा किया जाए, किसे नजरअंदाज किया जाए और फिर उस पर अपनी समझ विकसित की जाए। इसका मतलब यह है कि अब छात्रों के लिए भी “समझने की क्षमता” और “जानकारी के चुनाव” की ज़रूरत पहले से कहीं ज़्यादा हो गई है। तो कुल मिलाकर आज शिक्षक हो या छात्र, दोनों को अपना स्तर उठाना होगा। शिक्षक को बेहतर डिलीवरी करनी होगी, और छात्र को बेहतर लर्निंग करनी होगी। एआई इन दोनों को सहायता देता है, लेकिन सोचने और निर्णय लेने की जिम्मेदारी खत्म नहीं करता। उल्टा, यह जिम्मेदारी और अधिक स्पष्ट हो जाती है। और सबसे अहम बात यह है कि विचार या ज्ञान, चाहे किसी इंसान ने कहा हो या मशीन ने, वह तभी मूल्यवान है जब उसमें मौलिकता हो, आलोचनात्मक सोच हो, और उसे सही संदर्भ में प्रस्तुत किया गया हो। अगर आप केवल दस जगह से जानकारी इकट्ठा करके कह दें कि यह मेरा विचार है तो यह न केवल बौद्धिक रूप से अनुचित है, बल्कि यह उस प्रक्रिया का भी अपमान है जिसमें विचारों की नींव रखी जाती है।

    डा. कुमार मानते हैं कि एआई द्वारा लिखी गई सामग्री को ‘मौलिक विचार’ नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसमें मानवीय रचनात्मकता और उद्देश्य की भावना नहीं होती। एआई तो केवल पहले से मौजूद जानकारी को पैटर्न के आधार पर जोड़ता है, नए विचार उत्पन्न नहीं करता। इसलिए एआई से प्राप्त किसी भी योगदान को स्पष्ट रूप से क्रेडिट देना चाहिए। यह न केवल शैक्षणिक ईमानदारी को बनाए रखता है, बल्कि मानव और मशीन के कार्य के बीच अंतर को भी स्पष्ट करता है।

    फोगला इस बात से इत्तेफाक रखते हैं कि हर संस्थान को ऐसे ही कदम उठाने चाहिए। लेकिन केवल तब जब वे पारदर्शी और समान प्रक्रियाएं बनाएं। हमें एक ऐसा शैक्षणिक वातावरण बनाना चाहिए जहां तकनीक इंसानों की सोच को बढ़ाए, न कि उसे बदल दे।

    पाठ्यक्रम में शामिल होनी चाहिए एआई साक्षरता

    डा. अशोक कुमार कहते हैं कि संस्थान जिम्मेदार एआई उपयोग के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश बनाकर इस संतुलन को साध सकते हैं। उन्हें यह स्पष्ट करना चाहिए कि एआई का उपयोग छात्र की सोच और रचनात्मकता को बढ़ाने के लिए हो, न कि उसका स्थान लेने के लिए। पाठ्यक्रम में एआई साक्षरता को शामिल करना चाहिए ताकि छात्र इसके फायदे और सीमाओं को समझ सकें। मूल्यांकन प्रक्रिया को ऐसे डिज़ाइन किया जाना चाहिए जो छात्रों के मौलिक विश्लेषण पर केंद्रित हो। इससे एआई का नैतिक उपयोग सुनिश्चित होता है और छात्रों की सोच और समझ भी विकसित होती है।