Forgotten Hero: महिलाओं के सम्मान और उत्थान के लिए लगातार प्रयासरत रहे वंचित वर्ग के मसीहा अय्यंकाली
समाज में समानता के अधिकार को लेकर सतत व तंत्र के भीतर रहते हुए दुष्प्रयोगों पर आघात करने वाले महात्मा अय्यंकाली ने शुरुआती जागरूकता के लिए लोकनृत्य को माध्यम बनाया। महिलाओं के सम्मान और उत्थान के लिए लगातार प्रयासरत रहे समाजसुधारक अय्यंकाली पर प्रियंका दुबे मेहता का आलेख...

गुरुग्राम, प्रियंका दुबे मेहता। अय्यंकाली केवल एक नाम नहीं बल्कि वंचित वर्ग के उत्थान के मील का पत्थर है। मानवाधिकारों तक से वंचित इस वर्ग को हाशिए से निकालकर स्वावलंबन की पगडंडी पर बढ़ाते हुए समाज की मुख्याधारा से जोडऩे वाले अय्यंकाली ने न केवल इनकी पीड़ा को समझा बल्कि उसे दूर करने के लिए अभियान भी चलाए। अधिकारों के प्रति जागरूक कर शिक्षा की रोशनी से उनके जीवन के अभिशाप के अंधेरे को दूर करने का काम किया और समाज में बराबरी का अधिकार दिलवाया।
मिथक तोड़ किए बदलाव
28 अगस्त,1863 पुलाया समुदाय में जन्मे अय्यंकाली बचपन से ही वंचित वर्ग के प्रति हो रहे अन्याय से खिन्न थे। उन्हें ऊंच-नीच का वर्गीकरण कभी रास नहीं आया और इसका विरोध करना उन्होंने बचपन से ही शुरू कर दिया था। माता-पिता समझाते, लेकिन उन्हें तो बस समानता का अधिकार ही समझ में आता था। अय्यंकाली ने ब्रिटिश भारत के त्रावणकोर राज्य (वर्तमान केरल) में उन लोगों की प्रगति के लिए काम किया, जिन्हें अस्पृश्य माना जाता था। इस वर्ग के लोगों को अच्छे कपड़े पहनने तक की इजाजत नहीं थी। तो वहीं शान की सवारी मानी जाने वाली बैलगाड़ी पर पुलाया समुदाय के लोगों को बैठना भी निषेध था। अय्यंकाली तो थे ही आंधियों के विपरीत खड़े होने वाले योद्धा। उन्होंने बैलगाड़ी खरीदी और निकल पड़े उन गलियों में, जहां से उस समुदाय का गुजरना भी अवैध माना जाता था।
नहीं छोड़ा कानून का साथ
समाज में वंचित वर्ग को भी समानता का अधिकार दिलाने का लक्ष्य रखने वाले अय्यंकाली ने कभी नियमों के विरुद्ध जाकर समाज से लड़ाई नहीं की, बल्कि उन्होंने तंत्र के भीतर रहते हुए उसके दुष्प्रयोगों पर आघात किया। बदलाव के लिए उठाए गए उनके कदम ऐसे होते थे कि कोई कानून टूटे बिना जागरूकता की लौ प्रज्ज्वलित होने लगी थी। शुरुआत में उन्होंने लोकनृत्य को माध्यम बनाया। उस नृत्य के जरिए दिए जा रहे संदेश इतने तीक्ष्ण होते कि उस दौर की व्यवस्था की खामियों को भेदते हुए हर जनमानस तक पहुंच जाते थे।
उतरवाई गुलामी की माला
पुलाया या वंचित वर्ग की महिलाएं अपने साथ होने वाले शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने में डरती थीं। अय्यंकाली ने इन्हें अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की प्रेरणा दी। उनके द्वारा संचरित दो क्रांतिकारी लहरें उरपिल्लई (स्नेहिल) और मिथापिल्लई (बुजुर्ग) समाज की कुरीतियों को चुनौती देने लगी थी। छोटी ही सही, लेकिन बदलाव की उस लहर की वह कंपन अत्याचारियों के दिलों में धुकधुकी तो पैदा करने ही लगा था। प्रयास छोटे और धीमे जरूर थे, लेकिन उनके प्रभाव दिखने लगे थे। इतना ही नहीं, अय्यंकाली ने अपने समुदाय की महिलाओं द्वारा पहनी जाने वाली पत्थर की माला भी उतरवा दी थी क्योंकि वह उस समय गुलामी का प्रतीक होती थी। केरल में उस वक्त यह हालात थे कि वंचित वर्ग को अछूत मानते हुए उनके लिए नियम बने थे कि वे नायर समुदाय से 64 कदम और नंबूदिरिस समुदाय के लोगों से 128 कदम की शारीरिक दूरी रखेंगे। अय्यंकाली ने इस वर्ग के लोगों को सड़कों और बाजारों में जाने की प्रेरणा दी। एक बार उन्हें और उनके समुदाय के सदस्यों को विरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन वे पीछे नहीं हटे। जिसकी परिणिति बहुचर्चित चलियार दंगों के रूप में हुई थी।
जलाई शिक्षा की लौ
अय्यंकाली ने समाज में फैली कुरीतियों और समुदाय विशेष के साथ हो रहे अन्याय का प्रमुख कारण अशिक्षा को माना। ऐसे में उन्होंने 1904 में वंचित वर्ग की शिक्षा के लिए आंदोलन शुरू किया और पुलयार व अन्य शोषित वर्ग के बच्चों को स्कूलों से जोड़ा। इसके लिए उन्हें विरोधों का सामना भी करना पड़ा, लेकिन फिर भी वे अपने उद्देश्य से डिगे नहीं। स्वामी सदानंद से प्रभावित अय्यंकाली ने शोषित वर्ग के लोगों को एक सूत्र में पिरोने व उन्हें दासता से मुक्त करने के लिए 'साधु जन परिपालना संघम' का निर्माण किया। इस संस्था के जरिए नारी कल्याण को भी प्रेरित किया और शिक्षा और संस्था के जरिए विकास का नारा भी दिया। 'समुद्या कोडथी' यानी सामुदायिक न्यायालयों की स्थापना में भी अय्यंकाली का योगदान रहा। अय्यंकाली उस अदालत के जज थे।
असेंबली के पहले पुलयार सदस्य
कहा जाता है कि अय्यंकाली ने डा.भीमराव अंबेडकर से पहले ही वंचित वर्ग के उत्थान की एक जमीन तैयार कर ली थी, लेकिन उन्हें और उनके प्रयासों को खास पहचान नहीं मिली। न अधिकांश किताबों में उनका जिक्र मिलता है और न ही किसी तरह से समाज सुधारक के रूप में वह श्रेय दिया गया, जिसके वे हकदार थे। 1912 में उस वक्त त्रावणकोर के दीवान पी. राजगोपालाचारी द्वारा श्रीमूलम पापुलर असेंबली के लिए नामित किए गए। इस तरह से वे असेंबली के वंचित वर्ग के पहले नामित सदस्य बने और 22 वर्ष तक इसके सदस्य रहे। वे बदलाव के प्रतीक बनकर बैलगाड़ी पर सवारी करके असेंबली पहुंचे। इसी वर्ष उन्होंने वंचित वर्ग और निम्न माने जाने वर्ग के बच्चों का पब्लिक स्कूलों में दाखिला सुनिश्चित करवाने की मांग रखी। तमाम विरोधों के बाद सरकार ने 1914 में इस पर अपनी सहमित दे दी थी।
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