नई दिल्ली, विवेक तिवारी। पहाड़ों में इस साल बर्फबारी काफी देर से शुरू हुई। गर्मियों का मौसम आने को है लेकिन बर्फबारी का दौर अब तक जारी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि मौसम में आए इस बदलाव के चलते आने वाले वाले दिनों में उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में रहने वाले लोगों की मुश्किल बढ़ेगी। कहीं बाढ़ की घटनाएं बढ़ेंगी तो कहीं पीने के पानी का भी संकट होगा। यूके की यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग की ओर से किए गए एक अध्ययन के आधार वैज्ञानिकों का दावा है कि पहाड़ों में बर्फबारी और बारिश लाने वाले पक्षिमी विक्षोभ का पैटर्न बदला है। वो काफी देरी से आ रह हैं। पिछले 70 वर्षों में, अप्रैल से जुलाई तक वेस्टर्न डिस्टर्बेंस की आवृत्ति 60% बढ़ गई है, जिससे बर्फबारी कम हो गई है और भारी बाढ़ का खतरा बढ़ गया है।

सामान्य तौर पर वेस्टर्न डिस्टर्बेंस जिन्हें सॉक्लॉनिक सर्कुलेशन के तौर पर भी जाना जाता है आमतौर पर दिसंबर से मार्च तक हिमालय में में भारी बर्फबारी और बारिश लाते हैं। लेकिन इस साल हिमालय में बर्फबारी जनवरी अंत में शुरु हुई। वेदर एंड क्लाइमेट डायनेमिक्स जर्नल में छपे अध्ययन में वैज्ञानिकों ने पाया कि एक नए अध्ययन में पाया गया है कि उत्तरी भारत में महत्वपूर्ण बर्फबारी और वर्षा प्रदान करने वाले शीतकालीन तूफान काफी देर से आ रहे हैं। पिछले 70 सालों में पश्चिमी विक्षोभ का पैटर्न बदला है। सर्दियों की तुलना में गर्मी में पश्चिमी विक्षोभ बढ़े हैं। इससे विनाशकारी बाढ़ का खतरा बढ़ गया है। लाखों भारतीयों के लिए महत्वपूर्ण जल आपूर्ति भी कम हो गई है।

पश्चिमी विक्षोभ के चलते हिमालय के पहाड़ों में दिसंबर से मार्च के बीच अच्छी बर्फबारी होती है। ये बर्फ समय के साथ नीचे बठती जाती है और बर्फ की कई परतें बन जाती हैं जो गर्मी आने पर धीरे धीरे पिघलती हैं। हिमालय से निकलने वाली ज्यादातर नदियों में पानी का मुख्य स्रोत ग्लैशियर और पहाड़ों में जमी बर्फ के गलने से निकलने वाला पानी ही होती है। इस साल बर्फ काफी देरी से गिरी है। ऐसे में बर्फ की परतों को जम कर ठोस होने का समय नहीं मिलेगा। ऐसे में गर्मियां शुरू होती ही बर्फ तेजी से गलेगी जिससे नदियों में अचानक पानी बढ़ जाएगा। इससे मैदानी इलाकों में बाढ़ की संभावना बढ़ेगी। वहीं पहाड़ों में बर्फ के जल्दी गल जाने से कुछ महीने के बाद नदियों के जल स्तर में तेजी से कमी आएगी। इस इससे कई इलाकों में पेयजल का संकट खड़ा हो सकता है।

यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग के वैज्ञानिक और इस शोध के लेखक डॉ. कीरन हंट कहते हैं कि "70 साल पहले की तुलना में जून में उत्तर भारत में अब तेज तूफान आने की संभावना दोगुनी है। साल के इस समय गर्म और नम हवा के साथ, ये देर से आने वाले तूफान हैं।" बर्फ की जगह भारी बारिश हो रही है। इससे घातक बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है जैसा कि हमने 2013 में उत्तराखंड में और 2023 में दिल्ली के आसपास देखा था।

रिपोर्ट के मुताबकि "कश्मीर के कुछ इलाकों में दिसंबर या जनवरी में बिल्कुल भी बर्फबारी नहीं हुई। यह सिंधु और ऊपरी गंगा घाटियों के 750 मिलियन लोगों के लिए एक गंभीर चिंता का कारण है। इस इलाके के लोग पानी की आपूर्ति के लिए सर्दियों में होने वाली बर्फबारी पर ही निर्भर हैं। सर्दियों में बर्फबारी कम होना, पश्चिमी विक्षोभ का देरी से आना बाढ़ के खतरे को बढ़ाता है।

द एनर्जी एंड रिसोर्स इंस्टीट्यूट टेरी के वैज्ञानिक और लम्बे समय से पानी पर काम कर रहे डॉक्टर चंदर सिंह कहते हैं कि पिछले कुछ सालों भारत में बारिश का पैटर्न बदला है। वहीं जलवायु परिवर्तन से मौसम में कई तरह के बदलाव देने जा रहे हैं। सामान्य तौर पर जनवरी के बाद ठंड कम हो जाती है। लकेनि इस साल मार्च के दौरान भी ठंड पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है। इस साल बर्फबारी का पैटर्न भी बदला है। दरअसल मौसम का पूरा मूवमेंट तापमान से ही निर्धारित होता है। जलवायु में बदलाव से ग्लोबल एयर सर्कुलेशन और ग्लेबल ओशियन सर्कुलेशन चेंज हो रहा है। वैज्ञानिक 2050 तक धरती का तापमान डेढ़ डिग्री तक बढ़ने की बात कह रहे है। ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन भी धरती को गर्म करने में अहम भूमिका निभा रहा है। ये गैसें सूरज की गर्मी को लम्बे समय तक पर्यावरण में रोक कर रखती हैं। सामान्य तौर पर

धरती के इक्वेटर पर हवा गर्म होती है और दोनों ध्रुवों की की तरफ जाती है। ध्रुवों में ठंडे तापमान के कारण हवा भारी हो जाती है और वापस नीचे आती है। इन्हीं हवाओं के आधार पर मौसम भी नियंत्रित होता है। लेकिन जलवायु परिवर्तन के चलते ये पूरा सिस्टम बिगड़ रहा है। ऐसे में एस्क्ट्रीम वेदर इवेंट की घटनाएं बढ़ी हैं।

मौसम वैज्ञानिक समरजीत चौधरी कहते हैं कि गर्मी बढ़ने से बारिश और बर्फबारी का पैटर्न चेंज हो रहा है। मार्च में भी हिमालयन रीजन में बर्फबारी चल रही है और अगले कुछ दिनों तक चलते रहने की संभावना है। दरअसल बर्फबारी के बाद बर्फ को ठोस होने में समय लगता है। अचानक से गर्मी आने से तेजी से बर्फ गलेगी। इससे दिक्कत बढ़ेगी। बर्फ धीरे गलने से नदियों में धीरे धीरे पानी आता था। लेकिन इस साल नदियों में अचानक से ज्यादा पानी आ सकता है। इससे बाढ़ का खतरा बढ़ेगा। पहाडों में जमीन धसने का संभावना रहेगा। अगर मानसून लेट शुरू होता है तो मुश्किल और बढ़ सकती है। इस साल मौसम का सर्किल काफी डिले चल रहा है।

तिब्बती पठार हो रहे हैं गर्म

वैज्ञानिकों के मुताबिक इस मौसमी बदलाव का कारण उपोष्णकटिबंधीय जेट स्ट्रीम में आ रहा बदलाव है। ये ऊंचाई वाली वायु धारा है जो पश्चिमी विक्षोभ को नियंत्रित करती है। तिब्बती पठार का तेजी से गर्म होना - जो कि मध्य, दक्षिण और पूर्वी एशिया की सीमाओं के करीब एक समतल ऊँची भूमि है, के आसपास के क्षेत्रों के साथ एक बड़ा तापमान विरोधाभास पैदा कर रहा है, जिससे एक मजबूत जेट स्ट्रीम बना रही है।

ग्लोबल वार्मिंग भूमध्य रेखा और ध्रुवों के बीच तापमान के अंतर को कमजोर कर रही है जो आमतौर पर गर्मियों में जेट स्ट्रीम को उत्तर की ओर खींचता है। परिणामस्वरूप, जेट स्ट्रीम बाद में वसंत और गर्मियों में दक्षिणी अक्षांशों पर तेजी से बढ़ती जा रही है, जिससे सर्दियों के बर्फीले मौसम के बाद उत्तर भारत में और अधिक तूफान आने की संभावना बनाता है। प्री-मानसून के करीब आने वाले ये तूफान बर्फ के बजाय भारी वर्षा लाते हैं, जिससे विनाशकारी बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है। इस बीच, क्षेत्र के गर्म होने के कारण सर्दियों में बर्फबारी कम हो रही है।

तेजी से बढ़ रही हैं एक्स्ट्रीम वेदर इवेंट की घटनाएं

जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग की भयावहता अब सामने आने लगी है। पिछले 50 सालों में भारत में यूनाइटेड नेशनल ऑफिस फॉर डिजास्टर रिस्क रिडक्शन (UNDRR) की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 1970 से 2019 के बीच इन 50 सालों में एक्स्ट्रीम वेदर इवेंट की लगभग 7063 घटनाएं भारत में दर्ज की गईं। इन घटनाओं में लगभग 141,308 लोगों को अपनी जान गवांनी पड़ी है। रिपोर्ट के मुताबिक एक्सट्रीम वेदर इवेंट्स के चलते हुई मौतों में से 75 फीसदी चक्रवात और बाढ़ के चलते हुई हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के चलते मौसम की चरम घटनाओं की तीव्रता पिछले कुछ दशकों में तेजी से बढ़ी है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की ‘द इम्पैक्ट ऑफ डिजास्टर्स ऑन एग्रीकल्चर एंड फूड सिक्युरिटी रिपोर्ट 2023’ के अनुसार मौसम की चरम घटनाओं की चलते 1970 के दशक में पूरे साल में जहां लगभग 100 आपदाएं आती थीं, वो अब बढ़कर साल में लगभग 400 हो चुकी हैं। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के वैज्ञानिकों की ओर से किए गए एक अध्ययन के मुताबिक भारत में पिछले 50 सालों के दौरान 117 चक्रवात आए और 40,000 से अधिक लोगों की जान गई।

IISER में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक, उत्तरी हिंद महासागर और अरब सागर के किनारों पर 2001 से 2019 के बीच चक्रवाती तूफानों में 52 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है। वहीं भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम) के एक समीक्षा अध्ययन अध्ययन के अनुसार, हाल के दशकों में अरब सागर में चक्रवातों की तीव्रता 20-40% बढ़ गई है। अध्ययन में कहा गया है कि पिछले चार दशकों के दौरान, अरब सागर में चक्रवातों की अधिकतम तीव्रता 40% (100 किमी प्रति घंटे से 140 किमी प्रति घंटे ) तक बढ़ गई है। अध्ययन के मुताबिक पिछले 40 सालों में हर मॉनसून से पहले अरब सागर की ऊपरी सतह का तापमान 1.4 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाता है। इसके पीछे सीधे तौर पर ग्लोबल वॉर्मिंग जिम्मेदार है।

नेशनल सेंटर फॉर अंटार्टिक एंड ओशन रिसर्च के पूर्व निदेशक (NCAOR) डॉक्टर प्रेम चंद्र पांडेय कहते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते समुद्र की सतह का तापमान बढ़ रहा है। क्लाइमेट चेंज के चलते समुद्र की लगभग 300 मीटर तक की गहराई तक पानी गर्म हुआ है। इसके चलते चक्रवात की संख्या तेजी से बढ़ी है। अगर जल्द कदम नहीं उठाए गए तो आने वाले समय में तटीय इलाकों में रहने वाले लोगों की मुश्किल काफी बढ़ जाएगी। दरअसल समुद्र का तापमान बढ़ने से चक्रवात की फ्रिक्वेंसी बढ़ने के साथ ही तीव्रता भी बढ़ती जाती है। गर्मी के चलते हवाओं की स्पीड़ भी बढ़ती है, चक्रवात के दौरान बारिश की तीव्रता भी बढ़ जाती है। इससे तटीय इलाकों में बाढ़ जैसे हालात बन जाते हैं। पिछले 10 सालों में साइक्लॉन के पूर्वानुमान की तकनीक काफी आधुनिक हो चुकी है। आज हम साइक्लॉन की तीव्रता का सटीक अनुमान लगा कर बचाव कार्य को तेज कर तटीय इलाकों में काफी लोगों की जान बचा पाते हैं। लेकिन साइक्लॉन का लैंडफॉल कहां होगा इसके पूर्वानुमान को और बेहतर बनाने के लिए अभी भी काफी काम किए जाने की जरूरत है।