उम्मीदों के नए 'नायक' बने मोदी, दूसरों ने क्यों खोया भीड़ का भरोसा?
नायक और भीड़ राजनीतिक रैलियों के दो पाये माने जाते हैं। नायक को सामने से देखने-सुनने या छूने की लालसा ही लोगों को तमाम मुसीबतों से बेपरवाह बनाते हुए रै ...और पढ़ें

[मनोज झा], मेरठ। नायक और भीड़ राजनीतिक रैलियों के दो पाये माने जाते हैं। नायक को सामने से देखने-सुनने या छूने की लालसा ही लोगों को तमाम मुसीबतों से बेपरवाह बनाते हुए रैली स्थल तक खींच कर ले जाती है। इधर हाल के वर्षों में राजनीतिक रैलियों के प्रति लोगों की उदासीनता कहीं न कहीं नायक के खो जाने की कहानी जैसी है। मानो जनता थक-हारकर घर बैठ गई हो। टेलीविजन या सोशल मीडिया ने तो इस जन-उदासीनता को और गाढ़ा ही किया है। हालांकि मायावती, मुलायम या लालू जैसे क्षत्रपों ने अपने प्रभाव वाले इलाके में समय-समय पर भीड़ खींचकर इतना जरूर बताया कि राष्ट्रीय स्तर पर न सही, अपने सूबे में वे नायक जैसे तो है हीं। लेकिन राष्ट्रीय मंच पर भाजपा नेता नरेंद्र मोदी के नमूदार होने के बाद से राजनीतिक रैलियों के प्रति जन-उदासीनता मानो छूमंतर होने लगी है। मेरठ से पहले भी मोदी अब तक जहां गए हैं, वहां भीड़ नए-नए रिकार्ड बना रही है। सवाल है कि मोदी की हर सभा में जनसैलाब उमड़ने की आखिर क्या वजह है? क्या भीड़ को उसका नायक मिल गया है? यदि नहीं तो फिर यह जनसैलाब कैसा?
लोकसभा चुनाव बड़ी चुनौती
यदि मोदी की रैली में उमड़ने वाली भीड़ कोई पैमाना हो तो आप यों कह सकते हैं कि बाकी दलों के लिए आगामी लोकसभा चुनाव बड़ी चुनौती के रूप में सामने आ रहे हैं। कहीं दो लाख, कहीं पांच लाख तो कहीं इससे भी ज्यादा भीड़ के दावे किए जा रहे हैं। अभी भाजपा को इस भीड़ को वोट में बदलने के लिए एड़ी-चोटी एक करना बाकी है। यूपी जैसे सूबे में करीब दशक भर से सांगठनिक अंतर्कलह से बुरी तरह छीज चुकी भाजपा के सामने निश्चित तौर पर पहाड़ की चढ़ाई है। कभी यूपी पर राज करने वाली यह पार्टी आज विधायकों और सांसदों के लिहाज से क्रमश: तीसरे और चौथे नंबर की पार्टी बन गई है। लेकिन समांतर सच यह भी है कि भाजपा की रैलियों पर अर्से बाद भीड़ मेहरबान होने लगी है। ऐसे में मोदी जनता से पहले तो मानो भाजपा के उद्धारक बनकर आए हैं। मंच पर ऐसा दिखता भी है।
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एक सुर में हर-हर मोदी
बड़े से छोटे तमाम नेता अब एक सुर में हर-हर मोदी जप रहे हैं। पार्टी को भी शायद इस बात का एहसास हो चुका है कि अटल बिहारी वाजपेयी के बाद उसे जिस एक अदद नायक की तलाश थी, वह मोदी ही हैं। मोदी को लेकर भीड़ का जोश भी चौंकाता है। कभी मंदिर आंदोलन के नायक रहे कल्याण सिंह को भी सुनने के लिए भीड़ जयकारा लगाती थी। आज मंच पर कल्याण की मौजूदगी के बावजूद भीड़ मोदी के जयकारे लगाती है। मोदी के मंच से कोई भी नेता भाषण दे रहा हो, भीड़ मोदी-मोदी ही जपती है। इसमें कोई शक नहीं कि गुजरात के विकास की कहानियां सुनाकर मोदी जनता की एक उम्मीद बनकर उभरे हैं। लोगों को लगता है कि गुजरात की कहानी पूरे देश की कहानी बन सकती है।
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रत्ती भर भी टस से मस नहीं होते
मोदी कुछ इसी अंदाज में भरोसा भी दिलाते हैं। विरोधी दलों के लिए सांप्रदायिक राजनीति के प्रतीक बन चुके नरेंद्र मोदी आश्चर्यजनक रूप से अपने भाषण को विकास की डगर से रत्ती भर भी टस से मस नहीं होने देते। हां, सोनिया या मुलायम जैसे मजबूत प्रतिद्वंद्वियों को उलटबासी के अंदाज में जवाब देकर भीड़ का दिल जरूर जीतते हैं। वह हर जगह 60 महीने मांगते हैं और विकास की पूरी गारंटी देते हैं। शायद मोदी के मुंह से जनता को ये वादे सब्जबाग प्रतीत नहीं होते हैं, क्योंकि चाहे गुजरात ही सही, उन्होंने मुकम्मल तौर पर कुछ करके दिखाया है। आज जनता कुछ कर दिखाने वाले नायकों की ही तलाश में है। ऐसे में यदि मोदी जन-उम्मीदों के नए नायक बनकर उभर रहे हैं तो बहुत सारे नेताओं को यह सोचना होगा कि आखिर उन्होंने भीड़ का भरोसा क्यों खो दिया?
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