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मातृभाषा में चिकित्सा शिक्षा की बेहतर पहल, हिंदी समेत स्थानीय भाषाओं के प्रति नया नजरिया

स्वतंत्रता के 75 वर्षों के बाद ही सही हमारे देश ने धीरे-धीरे गुलामी की मानसिकता से मुक्त होने का अभियान आरंभ कर दिया है। इसी क्रम में मध्य प्रदेश में नई शिक्षा नीति को आत्मसात करते हुए चिकित्सा की पढ़ाई को हिंदी में आरंभ किया जा रहा है।

By Jagran NewsEdited By: Sanjay PokhriyalPublished: Fri, 21 Oct 2022 11:19 AM (IST)Updated: Fri, 21 Oct 2022 11:19 AM (IST)
मातृभाषा में चिकित्सा शिक्षा की बेहतर पहल, हिंदी समेत स्थानीय भाषाओं के प्रति नया नजरिया
भोपाल में रविवार को चिकित्सा शिक्षा की हिंदी पाठ्यपुस्तक का लोकार्पण करते शिवराज सिंह चौहान और गृहमंत्री अमित शाह)। फाइल

इलाहाबाद, लालजी जायसवाल। नई शिक्षा नीति का सबसे अच्छा अनुसरण मध्य प्रदेश सरकार ने किया है। मध्य प्रदेश पहला ऐसा राज्य बन गया है जहां मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में भी होगी। पिछले दिनों केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने भोपाल में एमबीबीएस प्रथम वर्ष की तीन पुस्तकों का विमोचन किया। इस प्रकार अब मध्य प्रदेश के सभी सरकारी मेडिकल कालेजों में प्रथम वर्ष के छात्रों को तीन एमबीबीएस विषय एनाटामी, फिजियोलाजी और बायोकेमिस्ट्री हिंदी में ही पढ़ाया जाएगा।

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अच्छी बात यह है कि मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में होने से गरीब बच्चों की जिंदगी में एक नया प्रकाश आएगा। ध्यातव्य है कि हिंदी में लिखने की सुविधा मध्य प्रदेश आयुर्विज्ञान विश्वविद्यालय ने वर्ष 2018 में ही शुरू कर दी थी। बहरहाल एमबीबीएस के करीब 10 प्रतिशत विद्यार्थी तब से हिंदी या फिर अंग्रेजी और हिंदी के मिले-जुले वाक्य परीक्षाओं में लिख रहे हैं। अब तो हिंदी में किताबें भी उपलब्ध होने से विद्यार्थियों के लिए परीक्षा में लिखना और आसान हो जाएगा।

मातृभाषा में मेडिकल शिक्षा लेने की शुरुआत

गौरतलब है कि राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग की भी यह बाध्यता नहीं है कि उत्तर अंग्रेजी में ही लिखे जाएं। यही कारण है कि आज सरकार की इस पहल को विद्यार्थियों द्वारा भरपूर सराहा जा रहा है। उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वैश्विक मंचों पर अक्सर हिंदी में बोलते हैं और शिक्षा नीति में प्राथमिक, तकनीकी तथा चिकित्सा शिक्षा में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता देने के पक्षधर भी रहे हैं।

यहां तक कि पिछले दिनों प्रधानमंत्री मोदी ने हिंदी, तमिल, तेलुगु, मलयालम, गुजराती, बंगाली आदि क्षेत्रीय भाषाओं में मेडिकल और इंजीनियरिंग की शिक्षा उपलब्ध कराने का आह्वान किया था। ऐसे में मध्य प्रदेश ने सबसे पहले हिंदी में मेडिकल की पढ़ाई आरंभ कर प्रधानमंत्री की इच्छा की पूर्ति भी एक तरह से की है। अब मेडिकल की पढ़ाई के साथ जल्द ही इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी हिंदी में शुरू होगी। अच्छी बात यह है कि देश की लगभग आठ भाषाओं में इंजीनियरिंग की पुस्तकों का अनुवाद शुरू हो चुका है और अब विद्यार्थी अपनी मातृभाषा में तकनीकी और मेडिकल शिक्षा लेने की शुरुआत करेंगे।

ब्रेन ड्रेन की जगह ब्रेन गेन 

ब्रेन ड्रेन का मतलब होता है ‘प्रतिभा पलायन’ अर्थात प्रतिभा का देश से बाहर जाना। हमारे देश की एक बड़ी चुनौती ब्रेन ड्रेन की ही रही है। लेकिन आज प्रधानमंत्री मोदी ‘ब्रेन ड्रेन’ की थ्योरी को ‘ब्रेन गेन’ अर्थात प्रतिभाओं को देश में लाने की थ्योरी पर तेजी से काम कर रहे हैं।

यही वजह है कि नई शिक्षा नीति के माध्यम से हमारी भाषाओं को महत्व देने की शुरुआत हुई। वास्तव में अगर पढ़ाई-लिखाई और अनुसंधान मातृभाषा में हो तो भारत के विद्यार्थी दुनिया के किसी भी देश के विद्यार्थियों से कम नहीं हैं और वे पूरे विश्व में अनुसंधान के क्षेत्र में भी भारत का नाम रोशन करेंगे। इसी बात को ध्यान में रखते हुए जेईई, नीट और यूजीसी परीक्षाओं को देश की 12 भाषाओं में आयोजित करने की शुरुआत की गई है। इसी तरह कामन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट देश की 13 भाषाओं में आयोजित किया जा रहा है और 10 राज्यों ने इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम का तमिल, तेलुगु, मराठी, बंगाली, मलयालम और गुजराती में अनुवाद करके इसकी शिक्षा शुरू की है।मातृभाषाओं में पढ़ाई से विद्यार्थियों की क्षमता बढ़ेगी। लेकिन सबसे पहले हमें भाषाई हीनभावना से बाहर आना होगा।

कई देशों में व्यवस्था

यूक्रेन, रूस, जापान, चीन, किर्गिस्तान और फिलीपींस जैसे कई देशों में मेडिकल की पढ़ाई अपनी मातृभाषा में होती है। उन्हीं के तर्ज अब भारत में भी मेडिकल की पढ़ाई मातृभाषा में भी होगी। लेकिन अभी इसका आरंभ मध्य प्रदेश में ही हुआ है। आने वाले समय में मध्य प्रदेश की ही तरह अन्य राज्यों को भी अपने यहां मेडिकल की पढ़ाई मातृभाषा में करने हेतु तेजी से पहल करना होगा।

हमारे संविधान का अनुच्छेद 29 अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण हेतु उपबंध करता है कि भारत के राज्य क्षेत्र या उसके किसी भाग के निवासी नागरिकों को अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार होगा। अनुच्छेद 120 संसदीय कार्यवाही हेतु हिंदी या अंग्रेजी भाषा के उपयोग का प्रविधान करता है, लेकिन साथ ही संसद सदस्यों को अपनी मातृभाषा में अभिव्यक्ति का अधिकार प्रदान करता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 से 351 तक आधिकारिक भाषाओं से ही संबंधित है।

अनुच्छेद 350ए के मुताबिक प्रत्येक राज्य और राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी भाषाई अल्पसंख्यकों के बच्चों को प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करेंगे। अनुच्छेद 350 बी भारत के राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अधीन भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए उपबंधित रक्षोपायों से संबंधित सभी विषयों का अन्वेषण करने और इस संबंध में रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति की जाएगी। राष्ट्रपति ऐसे सभी प्रतिवेदनों को संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष प्रस्तुत करेंगे और संबंधित राज्यों की सरकारों को भी भिजवाएंगे। अनुच्छेद 351 केंद्र सरकार को हिंदी भाषा के विकास के लिए निर्देश जारी करने की शक्ति देता है। साथ ही भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 आधिकारिक भाषाओं को सूचीबद्ध किया गया है। शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009 के मुताबिक जहां तक संभव हो शिक्षा का माध्यम मातृभाषा में होनी चाहिए। इसीलिए सरकार लगातार इस ओर प्रयासरत है।

समयानुकूल प्रयास

भारत डिजिटल इंडिया और दीक्षा जैसे प्रमुख कार्यक्रमों द्वारा संचालित तकनीक- आधारित बुनियादी ढांचे, बिजली और सस्ती इंटरनेट कनेक्टिविटी तक पहुंच बढ़ाने के साथ इस क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए मजबूत प्रयास भी कर रहा है। बस आवश्यकता है आज के युवाओं को आगे आने की और हिंदी के साथ अन्य स्थानीय भाषाओं को बढ़ावा देने की। हमें यह भी मूल्यांकन करने की जरूरत है कि आखिर हम हिंदी और अन्य स्थानीय भाषाओं से इतना दूर क्यों होते जा रहे हैं? हम अपना स्वत्व क्यों भूल रहे हैं? यहां तक कि आज विदेशी हमारी ‘भाषा’, हमारे ‘योग’ को बखूबी अपना रहे हैं। अब यह किसी किसी से छिपा नहीं है कि कोरोना काल में विश्व ने हाथ जोड़कर ‘नमस्कार’ करना भारत से ही सीखा है। लेकिन हम हैं कि अपना ‘मूल’ भुलाकर अंग्रेज बनने में ही लगे हुए हैं।

ध्यातव्य है कि ब्रिटेन, मारीशस, त्रिनिदाद और टोबैगो जैसे देश विश्व हिंदी सम्मेलन की मेजबानी तक कर चुके हैं। इन देशों में ‘संस्कृत’ भाषा भी सिखाई जा रही है, योग तो सिखाया ही जा रहा है। परंतु हम भारतीय अभी भाषाई दंभ में ही जीवन जी रहे हैं। वास्तव में, यही वक्त है कि हम सब अपना मूल्यांकन करें और अपनी जड़ों को मजबूत करें। अन्यथा न तो हम सही से ‘हिंदी’ हो सकेंगे और न ही सही से ‘अंग्रेजी’। हमें अपनी हिंदी भाषा पर गर्व करना और उसे ही अपनी पहचान बनाना होगा। तभी हमारा यह कथन वास्तविकता में चरितार्थ होगा- हिंदी है हम वतन है हिंदुस्तां हमारा। फिलहाल राज्य सरकार द्वारा मध्य प्रदेश में मेडिकल/ एमबीबीएस की पढ़ाई और उसके पाठ्यक्रम को हिंदी में रूपांतरण कर ऐसी शिक्षा को बढ़ावा देना सराहनीय कदम है।

हमारे देश में अंग्रेजी भाषा के प्रति एक अजीब प्रेम दिखाई देता है। हम अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच इत्यादि भाषाओं के प्रति भरपूर लगाव दिखाते हैं और इन भाषाओं को सिखाने के लिए अनेक कोचिंग इंस्टीट्यूट भी आसानी से हर जगह मिल जाते हैं। लेकिन हमने यह कभी नहीं सोचा कि अभी हमें तो सही से ‘हिंदी’ ही होना बाकी है। उचित तो यह होता कि हम हिंदी, संस्कृत, तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, उड़िया जैसी भाषाओं को सीखने पर जोर देते। इससे अपने देश की भाषाई विविधता का ज्ञान तो होता ही और हम भाषाई पुल के माध्यम से अपने देश से जुड़ पाते। लेकिन आंग्ल केंद्रित मानसिकता हमें जड़ों से जुड़ने में बाधा बन रही है। परंतु कई कारणों से हिंदी का विरोध अपने देश में ही होता रहा है।

दक्षिण भारत में अक्सर हिंदी विरोधी आंदोलन भी होते रहते हैं। यह भाषाई झगड़ा आखिर क्यों? हिंदी तो राजभाषा है। क्या राजभाषा का अपमान करना स्वाभिमान का प्रतीक बन सकता है? अगर ऐसा है तो वह दिन ज्यादा दूर नहीं है, जब हम मानसिक रूप से अंग्रेजी गुलाम बनकर रह जाएंगे। सत्य तो यह है कि हम आज भले कहें कि ‘अनेकता में एकता हमारे देश की विशेषता है’, लेकिन हकीकत यह है कि हमारी मानसिकता अनेकता में एकता की नहीं बल्कि अनेकता में एक-दूसरे से श्रेष्ठता की ही बनी हुई है।

हम आज भी तमिल, तेलुगू, हिंदी, मराठी, इत्यादि में बटे हुए हैं। फिर एकता कहां है? उचित तो तब होता जब हम अपनी भाषा पर गर्व करते, अपने विविधता को समझते और भाषाई दंभ से दूर रहते। आज की स्थिति ऐसी है, या यूं कहें कि मानसिकता ही ऐसी बन गई है कि हम अंग्रेजी माध्यम में अपने बच्चों को पढ़ाना सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़कर देखते हैं। हम अंग्रेजी भाषा पढ़ने या बोलने वाले को ज्यादा जानकार और संस्कृति-सभ्यता में अन्यों से श्रेष्ठ मानते हैं और उसे ही सर्वोच्च स्थान देते हैं। लेकिन संस्कृति और सभ्यता आत्म केंद्रित होती है, न कि आंग्ल केंद्रित।

भाषाई झगड़ा तो तभी बंद होगा, जब हम अनेकता में एकता की मूल भावना को समझ जाएंगे और भाषा को एक पुल के रूप में जोड़ने का माध्यम मानेंगे ऐसा नहीं है कि अंग्रेजी या अन्य भाषाओं के विरोध पर हिंदी को सम्मान देना चाहिए। लेकिन इतना तो है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मातृभाषा का सम्मान करना चाहिए। हमें अधिक से अधिक भाषाओं को सीखना चाहिए लेकिन हिंदी भाषा से कटना नहीं चाहिए, क्योंकि हिंदी भाषा से कटाव का मतलब अपनी ही जड़ों को कमजोर करना होगा और इससे अपसंस्कृति को बढ़ावा मिलेगा।

[शोधार्थी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय]


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