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    Madhya Pradesh : दो सौ साल पुराने हिंगोट युद्घ पर कोरोना का साया, पहली बार नहीं निभाई जाएगी यह परंपरा

    By Krishna Bihari SinghEdited By:
    Updated: Fri, 13 Nov 2020 08:31 PM (IST)

    दो सदी में ऐसा पहली बार होगा जब हिंगोट युद्घ की परंपरा नहीं निभाई जाएगी। इस बार कोरोना संक्रमण के चलते इस युद्घ को खेलने की इजाजत नहीं दी गई है। यह युद्घ इतना भीषण होता है कि इसमें कई लोग घायल भी हो जाते हैं। पढ़ें यह दिलचस्‍प रिपोर्ट...

    इस बार कोरोना संक्रमण के चलते इस युद्घ को खेलने की इजाजत नहीं दी गई है।

    कुलदीप भावसार, इंदौर। हिंगोट युद्घ की करीब दो सौ वर्षो पुरानी जिस परंपरा को ना प्रशासन रोक सका, ना न्याय व्यवस्था और ना ही आधुनिकता का दबाव, उस पर इस बार कोरोना का साया है। दो सदी में ऐसा पहली बार होगा, जब यह परंपरा नहीं निभाई जाएगी। दरअसल, प्रशासन ने इस बार कोरोना संक्रमण के चलते इस युद्घ को अनुमति नहीं दी है।

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    देखने को उमड़ती है भारी भीड़

    यह युद्घ प्रत्येक साल दीपावली के दूसरे दिन मध्य प्रदेश में इंदौर के समीप स्थित दो गांवों गौतमपुरा और रूणजी के ग्रामीणों के बीच होता है। इसमें दोनों गांवों के लोग एक-दूसरे पर बारूद से भरे हुए हिंगोट (स्थानीय स्तर पर तैयार पटाखा) फेंकते हैं। इस अनूठे युद्घ को देखने के लिए दूरदराज से लोग पहुंचते हैं।

    भीषण लड़ाई में घायल हो जाते हैं लोग

    युद्घ इतना भीषण होता है कि इसमें कई ग्रामीण घायल भी हो जाते हैं। बीते वर्षों में कुछ योद्घाओं की तो जान भी चली गई। मान्यता है कि मुगल काल में गौतमपुरा क्षेत्र में रियासत की सुरक्षा में तैनात सैनिक मुगल सेना के दुश्मन घुड़सवारों पर हिंगोट दागते थे। सटीक निशाने के लिए वे इसका कड़ा अभ्यास करते थे। यही अभ्यास परंपरा में बदल गया।

    यह होता है हिंगोट

    हिंगोरिया के पेड़ का फल होता है हिंगोट। नींबू के आकार के इस फल का बाहरी आवरण बेहद सख्त होता है। युद्घ के लिए गौतमपुरा और रूणजी के लोग महीनों पहले चंबल नदी के समीपवर्ती इलाके से हिंगोट तोड़कर जमा कर लेते हैं और फिर इसका गूदा निकालकर इसे सुखा लेते हैं। इसके बाद इसमें बारूद भरकर पटाखा तैयार कर लेते हैं। इन्हीं से युद्ध लड़ा जाता है। युद्ध के दौरान सुरक्षा के लिए दोनों दलों के योद्घाओं के हाथों में ढाल भी रहती है।

    तुर्रा और कलंगी के बीच छिड़ता है संग्राम

    हिंगोट युद्घ में गौतमपुरा के दल तुर्रा और रूणजी के दल कलंगी में भिड़ंत होती है। युद्घ शुरू होते ही दोनों दल एक—दूसरे पर जलते हिंगोट से हमला करते हैं। शाम को शुरू होने वाला यह युद्घ अंधेरा गहराने तक जारी रहता है। युद्घ समाप्त होते ही दोनों दलों के योद्घा एक-दूसरे को गले मिलकर बधाई देते हैं।

    सुरक्षा के होते हैं इंतजाम

    हिंगोट की चपेट में आने से कई बार योद्घा घायल हो जाते हैं। तीन साल पहले युद्घ के दौरान लोगों की जान भी चली गई थी। यही वजह है कि मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के दखल के बाद से जिला प्रशासन युद्घ के दौरान सुरक्षा के इंतजाम करता है। आपात स्थिति से निपटने के लिए फायर बिग्रेड और एंबुलेंस तैनात रहती हैं।

    अदालतें भी नहीं रोक सकी परंपरा

    विश्व मंच पर गौतमपुरा को पहचान दिलाने वाले हिंगोट युद्घ को खतरनाक करार देते हुए बीते वर्षो में तीन जनहित याचिकाएं दायर की गई। इन पर अलग-अलग समय में तीन साल तक सुनवाई चली। न्यायालय ने निर्देश दिए और प्रशासन को सख्ती से इसे रोकने के लिए भी कहा, बावजूद इसके यह परंपरागत युद्घ नहीं रुक सका।

    परंपरा टूटना दुखद

    हिंगोट युद्ध में योद्घा के तौर पर भाग लेने वाले गोपाल माली कहते हैं कि कितनी भी विकट परिस्थिति रही हो लेकिन यह परंपरा पहले कभी नहीं रुकी थी। इस बार कोरोना की वजह से यह परंपरा टूटने का दुख है। वहीं योद्धा हितेश माली कहते हैं कि वर्षों से दीपावली के दूसरे दिन तुर्रा दल की तरफ से युद्घ लड़ रहा हूं। कभी युद्घ नहीं टला। योद्घा के रूप में लोग सम्मान भी देते हैं। इस साल युद्घ का टलना दुखद है।