Move to Jagran APP

मेघालय में लंबा है खदान हादसों का इतिहास, सभी की मिलीभगत से चलता है ये गोरखधंंधा

मेघालय में ही खदान हादसों का इतिहास देखें तो पता चलता है कि वहां ऐसी घटनाओं का सिलसिला चलता रहा है और शायद ही ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के बारे में कोई गंभीरता दिखाई गई हो।

By Kamal VermaEdited By: Published: Thu, 10 Jan 2019 11:19 AM (IST)Updated: Thu, 10 Jan 2019 11:19 AM (IST)
मेघालय में लंबा है खदान हादसों का इतिहास, सभी की मिलीभगत से चलता है ये गोरखधंंधा
मेघालय में लंबा है खदान हादसों का इतिहास, सभी की मिलीभगत से चलता है ये गोरखधंंधा

अभिषेक कुमार सिंह। प्राकृतिक संसाधनों की लूट के संबंध में कहा जा सकता है कि पूरे देश में एक तंत्र विकसित है जिसमें खनन माफिया से लेकर राजनीतिक और प्रशासनिक अमला एवं वह तबका भी शामिल है जिसे लगता है कि उसके बिना देश की आर्थिक तरक्की नहीं हो सकती। इस सुनियोजित गठजोड़ में सबका हिस्सा तय है इसलिए इसके खिलाफ कारगर कार्रवाई मुश्किल है। हालांकि जब प्रशासन इस संबंध में कोई तत्परता दिखाता है तो राजनीतिक प्रभुत्व निजी स्वार्थवश उसमें अड़ंगे डालता है। इसमें भी एक बेहद खतरनाक चेहरा वह है जो आजकल मेघालय में जयंतिया हिल्स में मौजूद रैटहोल कोयला खदान हादसे में दिखाई दे रहा है।

loksabha election banner

न के बराबर है मजदूरों के जिंदा होने की संभावना 

करीब महीना भर पहले 13 दिसंबर 2018 को मेघालय के जयंतिया हिल्स में 370 फुट गहरी और बेहद संकरी एक कोयला खदान में जब 15 मजदूर कोयला निकालने गए थे तो उसमें पानी भर जाने की वजह से खदान धंस गई और मजदूर अंदर ही फंस गए। खदान में इनके फंसने की खबर देर से मिली और उससे ज्यादा देर इन्हें बचाने के काम में। इस बीच सुप्रीम कोर्ट राज्य सरकार और प्रशासन के खिलाफ तल्ख टिप्पणी कर चुका है कि इन मजदूरों को बचाने में देरी असहनीय है और इस काम के लिए प्रत्येक सेकेंड कीमती है। एनडीआरएफ की टीमें हाइ पावर पंप के साथ बचाव अभियान चला चुकी हैं, लेकिन इन मजदूरों के जीवित होने की संभावना नगण्य है। भले ही कोई इस मामले में चमत्कार की उम्मीद कर रहा हो, लेकिन खदान के इलाके में बिजली न मिलना, दूरी और अन्य भौगोलिक कारणों को देखते हुए यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि आखिर इन मजदूरों के साथ क्या हुआ होगा।

पहले भी हुई हैं ऐसी घटनाएं  

मेघालय में ही खदान हादसों का इतिहास देखें तो पता चलता है कि वहां ऐसी घटनाओं का सिलसिला चलता रहा है और शायद ही ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के बारे में कोई गंभीरता दिखाई गई हो। वर्ष 1992 में मेघालय के दक्षिण गारो हिल्स जिले में एक हादसा हुआ था जिसमें 30 मजदूर खदान के अंदर फंस गए थे और उनमें से आधे मारे गए थे। इसी जिले में 2012 में ही खदान के अंदर फंसे 14 बाल मजदूरों को बाहर निकाला नहीं जा सका। यह मामला गंभीर इसलिए है, क्योंकि यहां अरसे से कोयला माफिया राज्य की सत्ता पर हावी रहा है इसलिए इसके आतंक के आगे हर कोई चुप रहने में ही अपनी भलाई समझता है। जयंतिया हिल्स इलाके में ही पांच हजार से अधिक अवैध कोयला खदानें बताई जाती हैं, लेकिन उन पर प्रशासन का कोई नियंत्रण नहीं है। दावा किया जाता है कि कोयला खदानों के मालिकों की सरकार के लोगों से कथित तौर पर अच्छे संपर्क हैं, ऐसे में अगर कोई बड़ा मामला न हो तो उसकी पुलिस में रिपोर्ट तक नहीं लिखी जाती।

रोजगार की कमी

यह भी ध्यान में रखने वाली बात है कि बेरोजगारी की मार से जूझ रहे मेघालय के ज्यादातर ग्रामीण इलाकों के युवाओं के पास कोयला खदान में काम करने के अलावा कोई रोजगार नहीं होता। ऐसे में वे खतरनाक अवैध रैटहोल खदानों में काम करना स्वीकार कर लेते हैं। स्थानीय युवाओं के अलावा कोयले की इन खानों में उतारने के लिए नेपाल और पड़ोसी राज्यों से बच्चे बाल मजदूर के रूप में लाए जाते रहे हैं। एक समस्या इन खदानों में लगातार जारी खनन के कारण नदियों और पर्यावरण को नुकसान का भी है। इन शिकायतों के आधार पर कुछ वर्ष पहले गैर-सरकारी संगठनों ने जब मेघालय में कोयला खनन पर रोक लगाने की याचिका दायर की थी, तो वर्ष 2014 में राष्ट्रीय हरित पंचाट (एनजीटी) ने अप्रैल 2014 से वहां कोयला खनन और उसके ट्रांसपोर्टेशन पर रोक लगा दी थी। लेकिन हालिया हादसा साबित कर रहा है कि रोक के बावजूद मेघालय की खदानों में गैर-कानूनी रूप से काम जारी है। वजह यही है कि कई बड़े सरकारी अधिकारी और नेतागण खदान मालिकों से मिले हुए हैं। एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि पिछले साल फरवरी में मेघालय विधानसभा चुनावों में खड़े उम्मीदवारों में से 30 फीसद से ज्यादा कोयला खदान मालिक थे या कोयले की ढुलाई से जुड़े काम में संलग्न थे और इनमें से ज्यादातर ने जीत दर्ज की।

लोगों की आर्थिक स्थिति खराब

इसमें संदेह नहीं कि मेघालय में एनजीटी द्वारा प्रतिबंध के बाद लोगों की आर्थिक स्थिति खराब हो गई जिसके बाद खदान मालिकों ने अवैध ढंग से कोयला निकालने का काम शुरू कर दिया। मेघालय में बीजेपी के साथ मिलकर गैर-कांग्रेसी सरकार बनाने वाले एनपीपी के मुख्यमंत्री कोनरॉड संगमा ने इसी तथ्य के मद्देनजर कोयला खनन पर लगी पाबंदी के मुद्दे का हल खोजने की कोशिश की बात कही थी। हालांकि उन्होंने इसके लिए कानूनी प्रक्रिया अपनाने की बात उठाई थी, लेकिन कानूनी और विज्ञानसम्मत तरीके से यह काम अभी तक नहीं किया गया है। इसकी वजह यह है कि ऐसा करने में खर्च है, क्योंकि इसके लिए पर्याप्त उपकरणों की जरूरत होती है, मजदूरों की सुरक्षा के नियम-कायदे अपनाए जाते हैं और इसमें खनन के लिए बंद घोषित खदानों को छुआ नहीं जाता है। उल्लेखनीय है कि मेघालय सरकार को कोयला खनन से सालाना 700 करोड़ रुपये का राजस्व मिलता है। ऐसे में यदि कानूनसम्मत प्रक्रिया अपनाई जाती है तो खर्च और कमाई का यह आंकड़ा काफी हद तक बदल जाएगा। इसीलिए कोई सरकार कानूनी प्रक्रिया पर आगे नहीं बढ़ना चाहती है। सिर्फ सत्ताधारी दल ही नहीं विपक्षी कांग्रेस भी वहां मांग करती रही है कि बेरोजगारी के मद्देनजर वहां रैटहोल कोयला खनन को मंजूरी मिलनी चाहिए और इसकी नीति बनानी चाहिए।

हकीकत चौंकाने वाली

मेघालय में एनजीटी के बाद भी कोयले का खनन कैसे हो रहा है इसकी हकीकत चौंकाने वाली है। असल में 2014 में एनजीटी ने यहां कोयला खनन पर पाबंदी तो लगाई, लेकिन साथ ही एक लूपहोल छोड़ दिया। उसने अपने आदेश में यह व्यवस्था की कि जिस कोयले का खनन अप्रैल 2014 से पहले किया गया है, उसकी ढुलाई (परिवहन) को इजाजत होगी। खदान मालिक इस छूट का अब तक फायदा उठा रहे हैं। चूंकि यह पता लगाना बहुत मुश्किल है कि कोयला खदान से कब निकाला गया, खदान मालिक यह कहकर खनन के बाद कोयले की ढुलाई करवाते हैं कि यह कोयला अप्रैल 2014 से पहले का है। सच्चाई यह है कि मेघालय से असम के कछार और करीमगंज जिले तक और फिर त्रिपुरा व बांग्लादेश तक, इसी तरह मेघालय से कार्बी आंगलोंग, धरमतुल, जागीरोड, जोराबाट और अन्य स्थानों तक कोयले से लदे ट्रकों को नकली चालान के जरिये भेजा जाता है और इस तरह सरकार को भारी पैमाने पर राजस्व को नुकसान भी पहुंचाया जाता है।

रिश्वत से कर दिए जाते हैं सबके मुंह बंद

पुलिसकर्मी, आयकर अधिकारी और ट्रांसपोर्ट अफसर आदि जानते हैं कि नए निकाले गए कोयले को नकली चालान के आधार पर अप्रैल 2014 से पहले का बताया जा रहा है, लेकिन रिश्वत से इन सबके मुंह बंद कर दिए जाते हैं। एकाध मौकों पर अगर कुछ लोग कोयला खनन या परिवहन मामले में पकड़े भी गए तो सतही जांच के बाद उन्हें ले-देकर छोड़ दिया जाता है। ऐसे ज्यादातर मामलों में उच्चस्तरीय जांच नहीं होती। ऐसे में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि देश के 10 शीर्ष कोयला उत्पादक राज्यों में शामिल मेघालय व असम में गैर-कानूनी तरीके से कोयला खनन की अनुमति असल में राज्य सरकारों की तरफ से मिलती रही है, जिसका नतीजा हमेशा गरीब खनन मजदूरों को भुगतना पड़ता है।

(लेखक एफआइएस ग्लोबल से संबद्ध हैं)


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.