आइए जानें कठिन क्यों हो जाती है संकल्प सिद्धि की राह और इसे कैसे बनाएं सहज..
आपदा का यह दौर हम सभी के संयम व इच्छाशक्ति की परीक्षा ले रहा है। भविष्य को लेकर आशान्वित रहना वक्त की मांग है पर इस प्रक्रिया में संकल्प कमजोर क्यों पड़ने लगता है? जीत के पर्व विजयदशमी के अवसर पर आइए जानें इसे कैसे बनाएं सहज....
डॉ. विजय अग्रवाल। 'संकल्प' क्या है? ऐसा लगता है कि किसी लंबी उम्र वाले निर्णय को ‘संकल्प’ कहा जा सकता है। लेकिन इस बात को व्यापकता में देखें तो संकल्प इससे भी आगे का निर्णय है। सामान्य रूप में इसके लिए दृढ़-निश्चय, प्रतिज्ञा आदि शब्द प्रयोग में लाए जाते हैं। किंतु इसके स्थान पर यदि हम ‘भीष्म प्रतिज्ञा’ शब्द का प्रयोग करें, तो ज्यादा सही होगा। वहीं आप दृढ़-निश्चय के उदाहरण के रूप में भगवान श्रीराम को अरण्यकांड में देखें, ‘निसिचरहीन करऊ महि, भुज उठाई पन कीन्ह।’
हां, चाहे वह भीष्म पितामह की बात हो या राम की, यहां हमें उनके ‘पन’ यानी प्रण में स्पष्ट रूप से सार्वजनिक उद्घोष सुनाई देता है। आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि एक संकल्पवान व्यक्ति अपने सच्चे निर्णय की सार्वजनिक घोषणा करता है। वह स्वयं के ऊपर समाज के दबाव को भी एक तरह से आमंत्रित करता है, ताकि उसका संकल्प कमजोर न पड़ने पाए, कहीं राह भटक न जाए।
दरअसल, निरंतर संकल्पवान बने रहने की एक बाह्य स्थिति निर्मित की जाती है। यदि आप श्रीरामचरितमानस में राम की संकल्प सिद्धि को इन पैमानों पर मापेंगे, तो पाएंगे कि उसकी प्रक्रिया यही रही है। इसी प्रक्रिया ने वनवासी राम के समर्थन में प्रकृति की इतनी सारी शक्तियों का संयोजन किया कि वे इस पृथ्वी के महानिशाचर रावण का अंत कर सके। चूंकि संकल्प बहुत बड़ा था, उसका उद्देश्य बहुत ऊंचा और प्रभाव बहुत व्यापक था, इसलिए संकल्प सिद्धि का यह दिवस ‘दशहरे’ के रूप में भारतीय चेतना के इतिहास में हमेशा-हमेशा के लिए दर्ज हो गया।
संपूर्ण अस्तित्व हो जाएगा संकल्पवान: हमारे पास ऊर्जा के मुख्यत: चार स्नेत होते हैं- शरीर की ऊर्जा, मस्तिष्क की ऊर्जा, भावना की ऊर्जा एवं आत्मा की ऊर्जा। यदि आपके द्वारा लिया गया निर्णय आपकी ऊर्जा के इन चारों स्नेतों को उत्तेजित कर देता है, तो समझ लीजिए कि संकल्प सही है। ध्यान दें, शरीर की ऊर्जा आपको थकने नहीं देगी और मस्तिष्क की ऊर्जा मंजिल तक पहुंचने के लिए आपको मार्ग सुझाती रहेगी। जब कोई मार्ग बंद होता दिखाई देगा तो यह नए मार्ग की ओर संकेत करेगी।
यह जानना दिलचस्प है कि जब आप हार भी मान चुके होंगे तो मस्तिष्क की ऊर्जा आपके अंदर उत्साह और जोश के ताप को लगातार बनाए रखेगी। आपकी आत्मा की ऊर्जा यानी भावनात्मक ऊर्जा अलग तरह से काम करेगी। यह आपको आपके संकल्प से अलग होने नहीं देगी। इसके बाद आप अपने संकल्प में ही ‘रब’ देखने लगेंगे। इस तरह, आपका संपूर्ण अस्तित्व ही संकल्पवान हो उठेगा, क्योंकि आप इससे भावना के स्तर पर जुड़ चुके हैं। वह आपकी पहचान से जुड़ने लगा है, एक तरह से आपका पर्याय बन चुका है।
साथ हो लेता है ब्रम्हांड: पाउलो कोएलो के विश्वप्रसिद्ध उपन्यास ‘अलकेमिस्ट’ का एक बहुत ही लोकप्रिय वाक्य है, ‘जब आप किसी को बहुत शिद्दत से चाहते हैं, तो पूरा ब्रम्हांड आपकी सफलता के लिए षड्यंत्र रचता है।’ भावनात्मक लगाव जब अत्यंत सघन हो जाता है, तो यही सघनता हमारी आत्मिक ऊर्जा के द्वार को उन्मुक्त कर देती है। अब हमारी ऊर्जा के तार ब्रम्हांड की ऊर्जा के तार से जुड़ जाते हैं। हम ब्रम्हांड की ऊर्जा के अंग बन जाते हैं। ऐसे में यह पूरा जगत प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से हमारे संकल्प की संपूर्णता के यज्ञ में अपनी आहुति देने लगता है। यह कोई कल्पना नहीं। यह कोई भावनात्मक कथन भी नहीं है। यह साहित्य का कोई भड़काऊ वाक्य भी नहीं है। यह एक विज्ञान है। यदि आप इस विज्ञान की एक झलक पाना चाहते हैं, तो मैं आपको एक बहुत सरल-सा मनोरंजक उपाय बताता हूं। आप एक फिल्म देख लीजिए, ‘गुंजन सक्सेना-ए कारगिल गर्ल’। यदि आप इस फिल्म में उन तत्वों की तलाश करेंगे, जिन्हें मैं यहां ब्रrांडीय मदद के रूप में आपके सामने रख रहा हूं, तो वे बखूबी मिल जाएंगे। ऐसा कभी-कभी और एकाध के साथ ही नहीं होता, बल्कि हर उस व्यक्ति के साथ होता है, जिनका निर्णय गुंजन के समान होता है।
सिर्फ जोश से नहीं बनेगी बात: आज के दौर में सोशल मीडिया का एक बड़ा अभिशाप यह है कि वह लाखों की संख्या में लोगों को गुनगुना तो कर रहा है, लेकिन तप्त नहीं। निश्चित तौर पर उनमें एक जबर्दस्त उत्तेजना व जोश है। इसी जोश के दौर में वे कोई बड़ा निर्णय ले बैठते हैं। इन निर्णयों को संकल्प भले कह दूं, पर जब तक जोश जिंदा रहता है (जो काफी कम समय तक ही टिक पाता है), तब तक तो वे लगे रहते हैं। लेकिन जल्द ही वे इस स्वनिर्मित चक्रव्यूह से निकलने के रास्तों की तलाश करने लगते हैं। रास्तों की कमी नहीं है। ये बड़ी आसानी से मिल जाते हैं। धीरे-धीरे उनके विकल्प की लिस्ट लंबी होती जाती है, जिन्हें पूरा करने की प्रेरणा का इंतजार करने लगते हैं। पर उनका अंतर्मन न जाने ऐसे कितने संकल्पों की क्रमश: एक समृद्ध कब्रगाह बनता चला जाता है। इसलिए यदि भावना के आवेश में आकर कोई संकल्प लिया जाता है, तो उसकी पूर्णता की संभावना न्यूनतम होती है। इसलिए संकल्प-सिद्धि का बड़ा सूत्र है कि यह विचारपूर्वक किया जाना चाहिए, अपनी क्षमता को देखकर और संपूर्ण स्थितियों का तथ्यपूर्ण ढंग से मूल्यांकन करके किया जाना चाहिए।
अनुकूल हो कर्म
- हमें यह पता होना चाहिए कि अपने संकल्प को पूरा करने की बौद्धिक प्रक्रिया क्या होगी। ज्ञान तो हो गया, लेकिन यदि हमने उसके अनुकूल कर्म नहीं किया, तो अकेला ज्ञान कुछ नहीं कर पाएगा
- ज्ञान और कर्म का संयोग होने के बाद जब हम उसमें पूरे समर्पण के साथ जुट जाते हैं, तो वही कर्म भक्ति बन जाता है और फल की प्राप्ति भगवान। वस्तुत: चेतना की समर्पित स्थिति हमें बहुत अधिक आंतरिक गहराई तक ले जाती है
- हमारा दिमाग इच्छाओं का उपजाऊ केंद्र है। हर समय कोई न कोई इच्छा पैदा होती रहती है। इनमें से हमें अपने लिए जो थोड़ी-सी बेहतर लगती हैं, उन्हें हम विचारों के पास भेज देते हैं। फिर विचार इन सबका लेखा-जोखा करके इनमें से कुछ को निर्णय में तब्दील करता है। ध्यान दें, इन विचारों में से कुछ ही निर्णय इतने ऊर्जावान होते हैं कि वे हमें कर्म करने के लिए प्रेरित कर पाते हैं।
- जो निर्णय आपको किसी कार्य के लिए प्रेरित कर सके, वह एक ‘सच्चा निर्णय’ होता है। पर इन सच्चे निर्णयों में से ज्यादातर को अकाल मौत मरना पड़ता है। एकाध को ही लंबी उम्र मिल पाती है। ये लंबी उम्र वाले निर्णय ही हमारी पहचान बनते हैं।
एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है संकल्प का कार्य रूप में बदलना : संकल्प अपने आप में कोई बाह्य अथवा केवल एक बौद्धिक क्रिया भर नहीं है। मूल रूप से यह एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है, एक ऐसी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया, जिसके अंतर्गत व्यक्ति के भौतिक शरीर से लेकर अंत:करण के सभी भाव एक ही निश्चित दिशा में गतिमान होते हैं। उसमें आपका मन और मस्तिष्क दोनों पूरी तरह से शामिल होते हैं। यह क्रिया इन दोनों की चरम अवस्था में ही संभव होती है। पर कुछ लोग दिखावे तक ही सीमित हो जाते हैं। जाहिर है उनका संकल्प इसी वजह से कार्य रूप में परिणत नहीं हो पाता। अपने आसपास आप ऐसे अनेक उदाहरणों को देख सकते हैं।
[पूर्व आइएएस व लेखक]