नई दिल्ली, सीमा झा। संकट बड़ा है, भारी है। हर दिन एक नई और जटिल परीक्षा-सी है। जब ऐसी घड़ी आती है तो भारतीय संस्कृति के सर्वोच्च नायक और जन-जन के आदर्श प्रभु श्रीराम सहज याद आते हैं। रामकथा में प्रभु को हर मुश्किल के सामने संयमी और संकल्पवान दर्शाया गया है, जिससे वे संकट को दूर करने में सक्षम हो पाते हैं। इन दिनों श्रीराम जन्म भूमि अयोध्या में भूमिपूजन की तैयारियों जोरों पर है। जाने-माने लेखक अमीश त्रिपाठी से बातचीत के आधार पर सीमा झा ने जाना कैसे जब प्रभु श्रीराम के रूप में हमारे पास है मानवता का सर्वोच्च आदर्श तो हमें कहीं और जाने की जरूरत नहीं। साथ ही, जानेंगे प्रभु के व्यक्तित्व से सीखने योग्य वे मंत्र, जो हर मुश्किल में बन सकते हैं मजबूत ढाल...
मुझे लगता है दुनिया में कहीं भी चले जाएं प्रभु श्रीराम की बात आते ही उनके नाम के साथ जो दूसरी बात लोगों के मन में तुरंत आती है, वह है रामराज्य। पर श्रीराम का यश ऐसा है कि आप दुनिया में कहीं भी चले जाएं लोग रामराज्य के बारे में जानते तो हैं लेकिन यह क्या है, यह अवधारणा किस प्रकार की बातों का जिक्र करती है, इनकी चर्चा स्पष्ट रूप से कहीं नहीं मिलती। शायद हमारे पूर्वज यही चाहते थे कि हम प्रभु राम के जीवन से सीख लें। उनके तौर-तरीके, दर्शन को, मान्यताओं को अपने जीवन में भी उतारें। इससे एक कदम और आगे जाकर हम हर युग में उस रामराज्य की अवधारणा को स्थापित करें। प्रभु केवल परिवार और समाज नहीं बल्कि संपूर्ण जीव और परिवेश की बेहतरी के लिए कर्तव्यपरायणता की बात करते हैं। कर्म पथ पर उन्होंने खुद को एकाग्र रखा और संयमित रहे। हर परिस्थिति में जिंदगी मार्ग दिखाती रही और वे उस पथ पर आने वाली हर मुश्किल को गले लगाते, उनका सामना करते हुए आगे बढ़ते रहे। श्रीराम ने सिखाया कि उतार-चढ़ाव तो जीवन का अंग है। दुख किसने नहीं सहा और किसे नहीं होगा, पर यदि संकल्प मजबूत रहे और संकट काल में संयम बनाए रखें तो बड़े से बड़े तूफान, झंझावात का सामना कर सकते हैं हम।
सौम्य और संतुलित व्यक्तित्व
प्रभु श्री राम के व्यक्तित्व में संतुलन मिलता है। शांत-गंभीर और सौम्य श्रीराम ने कभी अपना संतुलन नहीं खोया। उन्होंने कभी परिस्थिति को अपने ऊपर हावी होने नहीं दिया बल्कि हर परिस्थति में दृढ़ता बनाए रखना ही उनका स्वभाव है। आज के मुश्किल समय में हमें यही सीखना है। अनिश्चितता और संशय भरे समय में जब हर कोई टूटा हुआ, भंवर में पड़ा महसूस कर रहा है, प्रभु श्रीराम की कर्तव्य पथ पर डटे रहने की प्रेरणा काम आ सकती है। मैं तो कहूंगा यदि हम प्रभु श्रीराम के व्यक्तित्व का कुछ अंश भी, उनसे कुछ बूंद भी ग्रहण कर सकें, तो निश्चित ही अपने व्यक्तित्व और जीवन में बदलाव महसूस कर सकते हैं।
विरोधी से भी सीखें हम
लोककथाओं से ज्ञात होता है कि कैसे प्रभु श्रीराम ने अपने विरोधी या शत्रु से भी सीखने को वरीयता दी। रावण उनका शत्रु था लेकिन प्रभु ने अपने अनुज लक्ष्मण को इस बात की प्रेरणा दी कि बेशक रावण हमारा शत्रु है लेकिन चूंकि उस पर देवी सरस्वती की कृपा है, वह ज्ञानी है, इसलिए हमें उससे सम्मान से पेश आना है। प्रभु श्रीराम की यह सीख जीवन में कितने लोग उतार सकते हैं? यह प्रभु श्रीराम के विराट व्यक्तित्व का वह उदाहरण है, जो उनकी स्वयं के प्रति संकल्प और सत्य के प्रति निष्ठा को बयान करता है। वे न कभी अपने कर्तव्य मार्ग से विचलित हुए और न ही अपने साथ के लोगो को ऐसा करने दिया। उन्होंने यही संदेश दिया कि खुद हम सत्य मार्ग पर रहें तो इससे औरों को भी प्रेरणा मिलती है।
नकारात्मकता से मुक्त मन
रामचरितमानस का एक प्रचलित दोहा है, जो श्रीराम के व्यक्तित्व की विराटता का प्रतीक है-‘पुरुष, नपुंसक, नारी वा जीव चराचर कोई सर्व भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोई’ यानी प्रभु श्रीराम की कृपा चाहिए तो अपने मन को नकारात्मक भावों से मुक्त करना होगा। छल-कपट से इसे खाली कर प्रेम भाव भरना होगा। इस दोहे के माध्यम से प्रभु श्रीराम ने कहा है, 'मुझे वह जीव प्रिय है जो सारे कपट भूलकर मुझे मानता है, मेरा भजन करता है। वह चाहे पुरुष हो, नपुंसक, नारी या ब्रह्मांड का कोई भी जीव हो।‘ प्रभु श्रीराम यही कहना चाहते हैं कि जिनका पवित्र और प्रेम भरा मन है, वे मुझे यानी प्रभु श्रीराम-सा चरित्र पा सकते हैं। उनकी तरह जीवन के तमाम संकट-बाधाओं पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। अब हमें अपने आप से पूछना है कि क्या हम अपने मन को नकारात्मक भावों से मुक्त कर पाते हैं, क्या इस दिशा में प्रयास कर रहे हैं? यदि हां, तो यह हमारी संकल्प शक्ति की परीक्षा है और हमें इसमें उतीर्ण होकर दिखाना है।
न्याय के लिए कानून का पालन जरूरी
यह एक बड़ा विरोधाभास है। अजीब है कि जो हमारे जन-जन के नायक हैं। जिन प्रभु श्रीराम को अपनी सांसों में बसाया है, जिनमें इतनी आस्था है, जिनका पूजा करते हैं, हम उन व्यक्तित्व से मिली सीख को अपने जीवन में नहीं उतार पाते। जरा सोचिए क्या न्याय पाने के लिए कानून को तोड़ा जा सकता है? प्रभु श्रीराम ने तो न्याय के लिए बड़े से बड़ा त्याग किया। अपने-पराए किसी भी चीज की परवाह नहीं की। न्याय के लिए नियमों को सर्वोपरि रखा और मर्यादापुरुषोत्तम कहलाए! पर हमने यह नहीं सीखा और न्याय के नाम पर नियमों को तोडऩा आम बात हो गई है। संयमित रहना है और नियमों का पालन करना चाहिए, इस बात को गंभीरता से नहीं लेते लोग।
प्रभु श्रीराम ने सिखाया, हमने कितना अपनाया?
- वे वचन के पक्के थे और इसके लिए बड़े से बड़ा त्याग किया।
- खुद पर भरोसा हो तो साथ रहने वाले लोगों में भी भरोसा जगता है।
- आगे बढऩे के लिए दृढ़ संकल्प काफी है। इसके बाद साधन की कमी राह में रोड़ा नहीं बनती। चाहे सेना कम हो या सुविधाओ का अभाव, राम ने रावण पर अपने दृढ़ संकल्प की बदौलत ही जीत हासिल की।
- अपनी संकल्प शक्ति से प्रभु श्रीराम की तरह व्यक्ति महानता के उस शिखर को भी छू सकता है, जहां देवता भी नहीं पहुंच पाए थे।
- एक युवा मन ने वन-गमन के फैसले को सहर्ष स्वीकार किया। तनिक भी विचलित नहीं हुए, बल्कि उस समय विलाप कर रहे मां, भाई और समाज के लोगों में भी अपने निर्णय पर अटल रहने की प्रेरणा जगा दी।
- उद्देश्य को लेकर स्पष्ट होना जरूरी है, आपका लक्ष्य क्या है, यह पता होना चाहिए।
- अनुचित भाषा का प्रयोग प्रभु श्रीराम ने कभी नहीं किया। हर किसी का स्वागत मुस्कुरा कर करते और उसे तुरंत अपना बना लेते।
- कोई भला-बुरा आकर कह जाए तो उसे गौर से सुनते और बड़ी सरलता से हंसते हुए उसकी गलतफहमी दूर कर देते।
- कभी यह नहीं याद रखा कि औरों ने उनके साथ क्या और कैसा व्यवहार किया, सबके प्रति प्रेम भाव रखा और कर्म पथ पर अडिग रहे।
- दृष्टि संकुचित नहीं, बल्कि इसमें अथाह विस्तार था। वह परिवार केंद्रित नहीं रहा, बल्कि समस्त मानव जाति के प्रति प्रेम ही था उनका संदेश।
- अपनी महानता के बारे में कभी विचार नहीं किया, न इसका एहसास कराने की जरूरत समझी। जमीनी बने रहे।
इसलिए तो कहलाए मर्यादा पुरुषोत्तम
मर्यादा पुरुषोत्तम यानी वह पुरुष जो अपनी सीमाओं में रहना जानता था। इसका विस्तार करें तो हम समझ सकते हैं कि एक सामान्य इंसान नैतिक जिम्मेदारियों और अपनी सीमाओं का सम्मान करते हुए, नियमों का पालन करते हुए भी महानता को प्राप्त कर सकता है। इसलिए हमें कठिनाइयों में भी अपनी नैतिक मर्यादाओं को नहीं खोना चाहिए। तमाम उतार-चढ़ाव में भी अपने पथ पर आगे बढऩा ही श्रेष्ठ है, न कि बुराई के आगे सर्मपण कर देना।
-यदि इच्छाभोगी, अहंकारी और भ्रम में रहते हैं तो कितना भी ज्ञान प्राप्त कर लें, अंतत: रावण की तरह हार ही होती है। यह निर्माण नहीं विध्वंस का कारण बनता है।
संयम की मिसाल
लंका नरेश रावण द्वारा माता सीता के हरण ने श्रीराम को विचलित कर दिया। मार्ग में जो सबसे बड़ी बाधा थी वह समुद्र था। इसे पार करने की चुनौती सबको परेशान कर रही थी। प्रभु लक्ष्मण चाहते थे कि समुद्र सुखाकर आगे बढ़ा जाए लेकिन प्रभु श्रीराम को यह मंजूर नहीं था। उन्होंने समुद्र से मार्ग दिखाने की विनम्र प्रार्थना की और अंतत: समुद्र ने मार्ग बताया। जीवन में ऐसी परिस्थितियां आती रहती हैं। पर प्रभु की तरह यदि मुश्किल समय में हम संयम बरतें तो आगे बढ़ने की राह जरूर मिल जाती है।
प्रभु के चरणों को पकड़ा, पर आचरण को नहीं
जाने-माने अभिनेता और लेखक आशुतोष राणा के अनुसार हजारों साल की सभ्यता में मनुष्य ने कितनी ही व्यवस्थाओं को जन्म दिया। वे समय के साथ काल के गर्भ में समाती चली गईं, लेकिन रामराज यानी श्रीराम की व्यवस्था हमारे मानस पर पहले पायदान पर अंकित है। क्योंकि इस व्यवस्था में सभी मनुष्य परस्पर प्रेम से रहते हैं और वेदों द्वारा बताई गई रीतियों पर चलते हैं। अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं। इस व्यवस्था में दैहिक दैविक भौतिक ताप होते तो हैं पर इसके दुष्प्रभाव से लोग बचे रहते हैं। पर सोचने की बात यह है कि जब श्रीराम के दर्शन में इतनी शक्ति है तो हम इतने विभिन्न तापों से ग्रस्त क्यों हो जाते हैं? दरअसल, हमने श्रीराम के चरणों को तो पकड़ा, उन्हें पूजा, पर उनके आचरण को धारण करने में चूक हो जाती है हमसे।
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