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    तिब्बती कला का अद्भुत उदाहरण है Thiksey Monastery

    बौद्ध धर्म के दो दिवसीय वार्षिक मठ उत्सव ‘थिकसे गुस्टर’ का मंगलवार को समापन हुआ। मठ के सैकड़ों भिक्षुओं और श्रद्धालुओं ने वार्षिक मठ उत्सव में भाग लिया। उत्सव में भिक्षु अपनी पारंपरिक वेशभूषा पहनकर धार्मिक वाद्य-यंत्रों पर नाच-गाना करते है।

    By Geetika SharmaEdited By: Updated: Wed, 24 Nov 2021 04:57 PM (IST)
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    तिब्बती कला का अद्भुत उदाहरण है Thiksey Monastery

    लेह एएनआइ: लेह जिले में मंगलवार को बौद्ध धर्म के दो दिवसीय पारंपरिक वार्षिक मठ उत्सव ‘थिकसे गुस्टर’ का समापन हुआ। महोत्सव की शुरुआत धार्मिक कार्यक्रम से की गई, जिसमें मठ के सैकड़ों भिक्षुओं और श्रद्धालुओं ने भाग लिया। पारंपरिक वेशभूषा में भिक्षुओं ने धार्मिक वाद्ययंत्रो के साथ बुराई पर अच्छाई की जीत का संदेश देते हुए नाच-गाने के साथ महोत्सव की शुरूआत की। तिब्बती कैलेंडर के नौवें या दसवें महीने में यहां 'थिकसे गुस्टर' महोत्सव मनाया जाता है।

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    गोम्पा क्या होता है

    आपको बता दें कि थिकसे मठ या गोम्पा भारत के केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख के लेह जिला से 19 कि.मी. की दूरी पर सिंधु नदी के किनारे स्थित है। यह गोम्पा सिंधु घाटी में 3600 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह मध्य लद्दाख का सबसे बड़ा गोम्पा है। तिब्बती स्टाईल में बने बौद्ध-मठ या भवन को गोम्पा कहते है। इस मठ का आर्किटेक्चर ल्हासा के पोटाला पैलेस से काफी मिलता-जुलता है। मठ की दीवारें स्तूपों, मूर्तियों, थांगका और पुरानी तलवारों से भरी हुई हैं। इस मठ में करीब 100 बौद्ध भिक्षु और नन रहते हैं। पहाड़ी पर स्थित यह गोम्पा तिब्बती कला का खूबसूरत उदाहरण है।

    क्या है थिकसे मठ की खासियत

    मठ के अंदर 15 मीटर ऊंची भगवान मैत्रेय बुद्ध की कांसे की मूर्ति है, जिसे मठ की हर मंजिल से देखा जा सकता है। यह लद्दाख में सबसे बड़ी मूर्ति है। बौद्ध धर्म के अनुसार मैत्रेय भगवान बुद्ध के उत्तराधिकारी हैं और मैत्रेय देव अभी तुषित नाम के स्वर्ग में हैं। भविष्य में धर्म की रक्षा करने के लिए मैत्रेय देव धरती पर जन्म लेंगे। इसलिए मैत्रेय देव को भविष्य का बुद्ध कहा जाता है। बौद्ध ग्रंथों में विस्तार से मैत्रेय देव का वर्णन किया गया है।

    त्योहार नहीं प्रथा है थिकसे गुस्टर

    थिकसे मठ के प्रमुख ठिकसे खेंपो नवांग चंबा स्टेनज़िन रिनपोछे ने बताया कि इस वार्षिक मठ उत्सव में भिक्षु अपनी पारंपरिक वेशभूषा पहनकर धार्मिक वाद्ययंत्रों पर नाच-गाना करते है। उन्होंने कहा कि पूरे साल देवताओं के चहरे कपड़ों से ढके रहते है, जिन्हें उत्सव के दौरान भक्तों के लिए खोला जाता हैं। उत्सव में भाग लेने आए श्रद्धालुओं ने बताया कि यह एक त्योहार नहीं है बल्कि यह एक प्रथा है, जो भगवान बुद्ध के समय से चली आ रही है। उन्होंने कहा कि हमने भगवान से प्रार्थना की है कि जल्द से जल्द कोरोना महामारी खत्म हो जाए। उन्होंने बताया कि महोत्सव देखने आए लोगों में काफी उत्साह और खुशी का माहौल था।