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    400 वर्ष पुरानी परंपरा से चीनी खिलौनों को मात दे रहा कोंडापल्ली, जादुई हस्‍तकला के कारण मिला जीआइ टैग

    By Krishna Bihari SinghEdited By:
    Updated: Sun, 04 Sep 2022 10:24 PM (IST)

    आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा से 23 किलोमीटर दूर स्थित कोंडापल्ली कस्बा लकड़ी के खिलौने बनाने की 400 साल पुरानी दुर्लभ हस्तकला के दम पर चीनी खिलौनों को मात दे रहा है। यह कस्‍बा मेक इन इंडिया की कहानी बयां कर रहा है। पेश है इस कस्‍बे पर एक खास रिपोर्ट....

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    पेश है आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा से 23 किलोमीटर दूर स्थित कोंडापल्ली कस्बा की कहानी जो गढ़ रहा नए आयाम...

    नितिन उपमन्यु, कोंडापल्ली। आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा से 23 किलोमीटर दूर स्थित कोंडापल्ली कस्बा 'मेक इन इंडिया' की असली कहानी लिख रहा है। लकड़ी के खिलौने बनाने की 400 साल पुरानी दुर्लभ हस्तकला के दम पर यह कस्बा चीनी खिलौनों को भी मात दे रहा है। इसी कला ने इस कस्बे को देश-विदेश में पहचान दिलाई है। केंद्र सरकार ने भी इसे जियोग्राफिकल इंडीकेशन (जीआइ) टैग प्रदान किया है। यह टैग ऐसे उत्पादों को दिया जाता है, जो विशेष भौगोलिक पहचान रखते हैं। करीब 35 हजार की आबादी वाले कोंडापल्ली के 100 परिवार इस पुश्तैनी कारोबार से जुड़े हैं।

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    हमारे खिलौनों का मुकाबला नहीं कर सकता चीन 

    ऐसे दौर में जब चीनी समान भारतीय बाजारों में खासी पैठ बना चुका है, कोंडापल्ली के खिलौना निर्माता इससे बेफिक्र हैं। चार पीढि़यों की विरासत को आगे बढ़ा रहे हनुमंता राव कहते हैं, 'चीन के खिलौने हमारे खिलौनों का मुकाबला नहीं कर सकते। चीनी खिलौने मशीनों व प्लास्टिक के बने होते हैं, जबकि हम कड़ी मेहनत से लकड़ी के खिलौनों को हाथ से बनाते हैं, इसीलिए लोग इन्हें ज्यादा पसंद करते हैं।'

    बिना मशीन की मदद के बेहतरीन कला 

    राज्य पुरस्कार से सम्मानित के. वेंकटाचारी का पूरा परिवार इस कारोबार से जुड़ा है। उनके पूर्वज भी यही काम करते थे। अब वेंकटाचारी के साथ उनकी पत्‍‌नी ज्योति और बेटी भार्गवी भी इस कला को आगे बढ़ा रही हैं। इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहीं भार्गवी चीन की चुनौती के सवाल पर आत्मविश्वास के साथ कहती हैं, 'जो काम मशीन भी नहीं कर सकती, वो हम हाथ से कहीं बेहतर ढंग से करते हैं। यह एक साधना भी है।'

    क्या है कोंडापल्ली खिलौनों की विशेषता

    इनकी सबसे बड़ी खासियत है कि ये पूरी तरह हाथ से बनते हैं। मशीन का इस्तेमाल नहीं होता। इनके निर्माण के लिए आसपास पाए जाने वाले तेल्ला पोनिकी पेड़ की लकड़ी का उपयोग होता है। यह काफी हल्की है और इस पर नक्काशी करना आसान है। लकड़ी के एक-एक टुकड़े को घंटों तराशने के बाद इमली के बीज व लकड़ी के बुरादे से बने पेस्ट (मक्कू) के साथ इन टुकड़ों को जोड़ा जाता है। इसके बाद इनेमल पेंट व प्राकृतिक रंगों से इन्हें पेंट किया जाता है।

    दंतकथाओं से लिए जातें है ख‍िलौनों के चरित्र 

    इनेमल पेंट इन्हें अम्ल, क्षार, पानी, भाप, गैस व धुएं से बचाता है। फिर लकड़ी के बुरादे से पालिश कर इन्हें चमकाया जाता है। खिलौनों के चरित्र दंतकथाओं और धर्मग्रंथों से लिए जाते हैं। दशावतार, गणपति, हनुमान, लक्ष्मी, बालाजी, भगवान अयप्पा आदि समेत कई धार्मिक देवी-देवताओं की काष्ठ कृतियां बनाई जाती हैं। यह 20 रुपये से लेकर 15 हजार रुपये तक की हैं तथा आनलाइन भी उपलब्ध हैं।

    नई पीढ़ी को सरकार दे रही प्रशिक्षण

    आंध्र प्रदेश पर्यटन प्राधिकरण की सहायक निदेशक लाजवंती नायडू बताती हैं कि इस कला को प्रोत्साहित करने के लिए युवा पीढ़ी को प्रशिक्षण दिया जाता है। तीन माह के प्रशिक्षण के दौरान प्रशिक्षुओं को प्रतिदिन 300 रुपये मेहनताना दिया जाता है। के. वेंकटाचारी कहते हैं कि यह प्रशिक्षण एक साल कर देना चाहिए तथा अन्य राज्यों के युवाओं को भी प्रशिक्षण देना चाहिए।