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    जानें तिब्‍बत का इतिहास जिसको यहां की निर्वासित सरकार के प्रमुख के अमेरिकी दौरे से मिली हवा

    तिब्‍बती शासकों की एक चूक की वजह से इस पर चीन का अधिकार हुआ था। वर्षों से चीन और तिब्‍बत में खटास जारी है। दलाई लामा वर्षों से भारत में हैं। वहीं 60 वर्षों में पहली बार तिब्‍बत की निर्वासित सरकार का कोई अधिकारी व्‍हाइट हाउस पहुंचा है।

    By Kamal VermaEdited By: Updated: Sun, 22 Nov 2020 03:20 PM (IST)
    तिब्‍बत पर वर्षों से चीन ने किया हुआ है कब्‍जा (फाइल फोटो रॉयटर)

    नई दिल्‍ली (ऑनलाइन डेस्‍क)। तिब्‍बत के मुद्दे पर चीन और अमेरिका के बीच गतिरोध की खाई और अधिक हो सकती है। इसकी एक बड़ी वजह तिब्‍बत को लेकर अमेरिका का चीन के प्रति कड़ा रुख है। दूसरा कारण तिब्‍बत की निर्वासित सरकार के प्रधानमंत्री डॉक्‍टर लोबसांग सांगे की अमेरिकी यात्रा है। उन्‍होंने व्हाइट हाउस में तिब्बत मामलों के नवनियुक्त समन्वयक रॉबर्ट डेस्ट्रो से भी विभिन्‍न मसलों पर वार्ता की है। आपको बता दें कि बीते साठ वर्षों में तिब्‍बत की निर्वासित सरकार से जुड़े किसी भी व्‍यक्ति की ये पहली आधिकारिक अमेरिकी यात्रा है। इसके अलावा हाल ही में अमेरिकी संसद में तिब्बत की वास्तविक स्वायत्तता को मान्‍यता दी है। इन सभी को लेकर चीन के तेवर कड़े होना तय माना जा रहा है। बहरहाल आपको बता दें कि डॉक्‍टर सांगे अमेरिका के नव-निर्वाचित राष्‍ट्रपति जो बाइडन को उनकी जीत पर बधाई भी दे चुके हैं। आपको यहां पर ये भी बता दें कि तिब्‍बत की निर्वासित सरकार का मुख्‍यालय हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में स्थित है। तिब्‍बती धर्म गुरू दलाई लामा के 1959 में रातों-रात अपनी जमीन छोड़कर भागने और भारत द्वारा उन्‍हें शरणार्थी बनाए जाने के बाद से ही ये मुख्‍यालय यहां पर काम कर रहा है।

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    जब ल्‍हासा से बच कर भागे थे दलाई लामा 

    31 मार्च 1959 दलाई लामा पैदल ही चीनी सैनिकों से बचते बचाते तिब्‍बत की राजधानी ल्‍हासा से भारत आने के लिए निकले थे। 15 दिनों तक लगातार चलने के बाद वो भारत पहुंचे थे। इस दौरान चीन सैनिक भी उन्‍हें तलाशते रहे। उनके भारत आने की जानकारी किसी को नहीं थी। यही वो समय था जब चीन ने तिब्‍बत पर पूरी तरह से अधिकार कर लिया था। हालांकि तिब्‍बत पर अधिकार करने की पटकथा इससे काफी पहले ही लिखी जा चुकी थी। इसकी शुरुआत उस वक्‍त हुई थी जब नेपाल के शासकों ने तिब्‍बत के राजा को हराकर उस पर भारी भरकम जुर्माना लगा दिया था। ये जुर्माना हर वर्ष देना होता था। लेकिन तिब्‍बत आर्थिक रूप से काफी कमजोर था।

    तिब्‍बत की गलती और चीन का इस पर कब्‍जा 

    यही वजह थी कि तिब्‍बत का सत्‍ताधारी वर्ग इसको दे पाने में नाकामी महसूस कर रहा था। इसको देखते हुए तिब्‍बत के प्रमुख ने चीन से मदद मांगी थी। ये मदद केवल जुर्माने की रकम को खत्‍म करवाने तक सीमित नहीं थी बल्कि नेपाल को हराना भी इसमें शामिल था। तिब्‍बत और चीन की सेना ने मिलकर नेपाल पर आक्रमण बोल दिया। इस घमासान युद्ध में नेपाल के शासकों की करारी हार हुई। इस हार से तिब्‍बत को हर साल देने वाले जुर्माने से मुक्‍ती मिल गई थी। लेकिन तिब्‍बत की सत्‍ता पर चीन का अंकुश बढ़ चुका था। इसका फायदा उठाते हुए चीन ने 1906-7 ईस्‍वी में तिब्बत पर अधिकार कर लिया। तिब्‍बत के पूरे इलाके में चीन की सेना ने अपनी चौकियां बना लीं।

    फिर आजाद घोषित हुआ तिब्‍बत 

    चीन में 1912 में बड़ा फेरबदल हुआ और वहां से मांछु शासन का अंत हो गया। इसका फायदा उठाकर तिब्‍बत ने खुद को दोबारा आजाद राष्‍ट्र घोषित कर दिया। इसके बाद भारत-तिब्‍बत और चीन के बीच हिमाचल प्रदेश की राजधानी में एक बैठक हुई। इसमें तिब्‍बत के विशाल पठारी राज्‍य को दो भागों में बांट दिया गया। इसके पूर्वी भाग को चिंगहई एवं इनर तिब्‍बत को सिचुआन प्रांत कहा गया। वहीं पश्चिमी भाग को आउटर तिब्‍बत कहा गया। इस भाग पर बौद्ध धर्मगुरू लामा के हवाले था।

    कड़ा होता गया हस्‍तक्षेप

    13वें दलाई लामा के निधन के बाद 1933 में इस इलाके पर तिब्‍बत का घेरा कड़ा होने लगा था। 1940 में नए दलाई लामा ने शासन की बागडोर अपने हाथों में ली। 1950 में यहां पर लामा के चयन को लेकर शक्तिप्रदर्शन की नौबत आ गई। इसके बाद चीन को मौका मिल गया और उसने तिब्‍बत पर आक्रमण कर दिया। 1951 में इसको लेकर जो संधि हुई उसके मुताबिक ये पूरा क्षेत्र साम्यवादी चीन के प्रशासन में मौजूद एक आजाद राज्‍य था। बावजूद इसके तिब्‍बत के मामलों में हस्‍तक्षेप लगातार बढ़ता ही चला गया।

    रातोंरात पड़ा भागना 

    इतना ही नहीं जब चीन ने दलाई लामा के अधिकारों में कटौती की तो ये बात वहां की आम जनता को रास नहीं आई और इसके खिलाफ वो एकजुट होने लगे। चीन की सरकार के खिलाफ लगातार विरोध प्रदर्शनों का दौर शुरू हो चुका था। चीन ने भूमि सुधार कानून पर भी अपनी कैंची चला दी थी। इन दोनों घटनाओं ने वहां की जनता के मन में चीन के प्रति असंतोष की भावना को जागृत कर दिया था। 1956 और फिर 1959 में चीन की इस इलाके में दादागिरी के खिलाफ जबरदस्‍त प्रदर्शन हुए। हालांकि चीन ने इनको बेरहमी से कुचल दिया। दलाई लामा को भी कैद करने की कोशिशें तेज होने लगी थीं। लेकिन वो ल्‍हासा से मौका मिलते ही भाग निकले और भारत आ गए।