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    श्वेत क्रांति:आणंद से निकली दूध की छोटी सी धारा आज बन चुका है विशाल समुद्र, कुरियन थे जनक

    By Kamal VermaEdited By:
    Updated: Thu, 26 Nov 2020 07:46 AM (IST)

    डॉक्‍टर कुरियन ने भारत को दूध में आत्‍मनिर्भर बनाया। उन्‍होंने एक छोटे से गांव से जो शुरुआत की वो आज एक विशाल रूप ले चुकी है। इस श्‍वेत क्रांति ने भारत को विश्‍व में एक नया मुकाम दिलाया।

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    श्‍वेत क्रांति के जनक थे डॉक्‍टर वर्गीज कुरियन (फाइल फोटो)

    तरुण श्रीधर। वर्ष 1976 में एक फिल्म बनी थी मंथन। यह उस दौर में डॉ. वर्गीज कुरियन द्वारा आरंभ की गई श्वेत क्रांति पर आधारित थी। इसमें दिखाया गया था कि किस तरह से एक डॉक्टर ग्रामीणों की भलाई के लिए एक सहकारी समिति डेयरी शुरू करने के लिए गांव का दौरा करते हैं। इस फिल्म ने अनेक राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किए, जिसमें उस वर्ष की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी शामिल है।

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    दरअसल यह भारत की पहली फिल्म है जिसके लिए धन आमजन के अंशदान यानी क्राउडफंडिंग के जरिये हासिल किया गया। इसमें अधिकतम अंशदान देने वाले गुजरात के पशुपालक, भूमिहीन व सीमांत और छोटे किसान थे। क्या प्रेरणा थी कि ये गरीब पशुपालक अपनी पूंजी लगाकर फिल्म के निर्माता बने। किसानों की इसी भूमिका के कारण इस फिल्म के आरंभ में ही लिखा हुआ आता है- गुजरात के पांच लाख किसान प्रस्तुत करते हैं मंथन।

    ऐसा क्या जोश था कि फिल्म के रिलीज होने पर गुजरात के सिनेमाघरों में हजारों की संख्या में किसान अपनी उपस्थिति दर्ज कराते थे। श्वेत क्रांति की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म मंथन कहानी थी इन्हीं किसानों के उत्पीड़न की, संघर्ष की, सशक्तीकरण की और कहानी उस नायक की जिसने इन निर्धन किसानों को संगठित कर आर्थिक व सामाजिक सम्मान प्रदान किया।

    यह कहानी है सहकारिता आंदोलन की, संगठन में शक्ति की। व्यापारियों के प्रभाव से डरे पशुपालक जब दूध सहकारी सभा को बेचने में अनिच्छा प्रकट करते हैं, तब कहानी का एक पात्र भोला जो एक दलित युवक है, आक्रोश में आह्वान करता है, यह सोसाइटी हमारी अपनी है। यही निचोड़ है सहकारिता के सिद्धांतों पर आधारित श्वेत क्रांति का और दूध बना प्रतीक इस आंदोलन का।

    यह इसी क्रांति की देन है कि पिछले लगभग दो दशकों से भारत ने दुग्ध उत्पादन में विश्व में शीर्ष स्थान कायम रखा है। गत वर्ष हमने 18.8 करोड़ टन दूध उत्पादित किया जो विश्व के कुल उत्पादन का 22 प्रतिशत है। 1950-51 में हमारा दूध उत्पादन केवल 1.7 करोड़ टन थो। वहीं आज 394 ग्राम दूध प्रति व्यक्ति प्रतिदिन उपलब्धता के साथ हम वैश्विक औसत 273 ग्राम से कहीं ऊपर हैं। इस क्षेत्र में हमारी उपलब्धि का आकलन इस तथ्य से भी किया जा सकता है कि देश में दूध पैदावार का मूल्य 7,01,530 करोड़ रुपये है, जबकि गेहूं और धान मिलाकर कुल मूल्य 4,46,205 करोड़ रुपये है।

    भारत में श्वेत क्रांति का इतिहास और इसमें डॉ. कुरियन व उनके साथियों की भूमिका का विवरण किसी वीरगाथा से कम नहीं। इस क्रांति के बीज बोए गए थे 1946 में गुजरात के खेड़ा जिले के एक छोटे शहर आणंद में। यहां की ग्रामीण आजीविका और अर्थव्यवस्था लगभग पूर्णत: दुग्ध आधारित थी और अधिकतर पशुपालक भूमिहीन या सीमांत खेतिहर। दूध के व्यापार पर बिचौलियों की पकड़ मजबूत थी और उनके ऊपर थी पोल्सन डेयरी, जो बाजार में एकाधिकार के अतिरिक्त सरकार की नीतियों को भी प्रभावित करती थी। दुग्ध उत्पादकों का शोषण व्याप्त था। यदि उत्पादन अधिक होता तो खरीद से इन्कार कर दिया जाता और अगर बाजार में दूध की कमी है तो दूध की गुणवत्ता पर उंगली उठा दी जाती।

    दोनों परिस्थितियां दुग्ध उत्पादक को असहाय बना देतीं और मजबूरन जो दाम दिया जाए उसे स्वीकारना पड़ता। बड़ी संख्या में पशुपालक दलित समुदाय से थे और महिलाएं पशुपालन के संचालन से जुड़ी थीं, सो सामाजिक भेदभाव से अलग जूझना पड़ता। हड़ताल हुई, किसानों ने दूध बिचौलियों को बेचने की बजाय सड़कों पर बहाना शुरू किया पर नतीजा कोई नहीं। हताश किसान सरदार वल्लभाई पटेल की शरण में पहुंचे। सरदार ने परामर्श दिया कि बिचौलियों से छुटकारा पाने के लिए सहकारी सभा का गठन कर दूध के संग्रहण से विपणन तक का सारा प्रबंधन स्वयं करो। ऐसे जन्म हुआ सहकारिता के कट्टर समर्थक व सत्यनिष्ठा के प्रतीक त्रिभुवनदास पटेल के नेतृत्व में खेड़ा जिला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ का।

    सहकारी सभा बढ़ती तो अवश्य रही, पर धीमी गति से। रोजाना की तकनीकी समस्याओं, प्रभावशाली व्यापारियों से प्रतिस्पर्धा और सामाजिक पूर्वाग्रहों से जूझने के कारण सभा को सार्थक दिशा दे पाना कठिन था। इसमें निर्णायक मोड़ आया डॉ. वर्गीज कुरियन के आगमन पर। त्रिभुवनदास पटेल के आग्रह पर डॉ. कुरियन ने इस कार्य को अपने नियंत्रण में लिया और जल्द ही मूल्यांकन कर यह निष्कर्ष निकाला कि यदि संगठित व वैज्ञानिक कार्यप्रणाली से संचालन किया जाए तो किसानों को दाम भी बेहतर मिलेंगे एवं उत्पादकता को बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन भी मिलेगा। डॉ. कुरियन का सिद्धांत एकदम साधारण और व्यावहारिक था।

    ग्रामीणों की बुद्धिमत्ता व विवेक और शिक्षित कारोबारियों के कौशल का संगम। सहकारिता के मूल सिद्धांतों से समझौता न करने का यह फल था कि इस जिला सहकारी संघ की निरंतर उन्नति हुई और यह गुजरात सहकारी दुग्ध विपणन संघ बना, जो आज अमूल ब्रांड के नाम से लोकप्रिय है। इस मॉडल को देश के अन्य भागों में प्रचलित करने के लिए राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड का गठन किया गया और उसके माध्यम से इसे देशभर में विस्तारित किया गया।

    गत वर्ष अमूल ने 38,542 करोड़ का व्यापार कर विश्व की शीर्ष दस डेयरी कंपनियों में स्थान बनाया और इस विशाल संस्था के मालिक कोई अरबपति व्यापारी या साहूकार नहीं, बल्कि छोटे और सीमांत किसान हैं। सहकारिता की ताकत का जीवंत प्रमाण। आज देश में सहकारिता के माध्यम से 1,86,000 ग्रामीण प्राथमिक सभाओं के 1.6 करोड़ दुग्ध उत्पादकों का एक राष्ट्रीय नेटवर्क बन गया है। पर अभी सफरर लंबा है, क्योंकि सहकारिता के माध्यम से केवल 15 प्रतिशत दूध का ही विपणन हो रहा है। इसे और आगे बढ़ाना होगा।

    दुग्ध के क्षेत्र में विश्व में शीर्ष स्थान तक की यात्र केवल उत्पादन या व्यापार की उपलब्धि नहीं है, यह एक प्रतीक है सामाजिक व आर्थिक समानता का, सहकारिता की महत्ता व उसकी संभावनाओं का

    (पूर्व सचिव, मात्स्यिकी, पशुपालन एवं डेयरी मंत्रलय, भारत सरकार)

    डॉ. वर्गीज कुरियन। फाइल