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भारत के जीवक थे महान प्‍लास्टिक सर्जन, जानें कैसे समय के साथ आयुर्वेद को झेलना पड़ा नुकसान

टीपू सुल्‍तान और अंग्रेजों के बीच हुई लड़ाई में जब एक अंग्रेज कोचवान की पकड़कर नाक काट दी गई थी तब उसका इलाज आयुर्वेद के ही एक शल्‍य चिकित्‍सक ने ही दो अंग्रेज डॉक्‍टरों के सामने किया था।

By Kamal VermaEdited By: Published: Mon, 30 Nov 2020 12:49 PM (IST)Updated: Mon, 30 Nov 2020 12:49 PM (IST)
भारत के जीवक थे महान प्‍लास्टिक सर्जन, जानें कैसे समय के साथ आयुर्वेद को झेलना पड़ा नुकसान
महान प्‍लास्टिक सर्जन थे भारत के आचार्य जीवक

प्रो. शिवजी गुप्‍त। वृहत्तरयी (चरक, सुश्रुत एवं वाग्भट) में अष्टांग आयुर्वेद की कल्पना की गई है, जिसमें शल्य (सर्जरी) और शालाक्य (आइ एंड ईएनटी-आंख व नाक, कान, गला) प्रमुख अंग के रूप में वर्णित हैं। आचार्य सुश्रुत ने अष्टांग आयुर्वेद में शल्य को प्रथम अंग के रूप में वर्णितकर इसकी प्रधानता सिद्ध करते हुए उपयोगिता बताई है। वेदों व सुश्रुत संहिता में वर्णित(ऋग्वेद 1/117/22) व (सुश्रुत सूत्र1/17) शल्य संबंधी कई विषय सिर प्रत्यारोपण आज भी कल्पना से परे लगते हैं। आचार्य सुश्रुत ने सर्वप्रथम शल्य तंत्र संबंधी विषयों का विस्तार से अपनी कृति सुश्रुत संहिता में वर्णन किया है। सुश्रुत को संधान कर्म (प्लास्टिक सर्जरी) का जनक माना जाता है। सुश्रुत संहिता शल्य चिकित्सा के तमाम पहलुओं का व्यापक वर्णन है। ये तथ्य प्रमाणित करते हैं कि वैदिक एवं संहिता काल में शल्य तंत्र, पठन-पाठन एवं चिकित्सकीय रूप में बेहद ऊंचे स्तर पर था।

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बौद्ध धर्म अहिंसा में विश्वास रखने के कारण शल्य चिकित्सा को हिंसात्मक चिकित्सा मानता था। अत: बौद्ध शासकों ने शल्य चिकित्सा को बढ़ावा नहीं दिया। प्राचीन भारत में काशी, तक्षशिला एवं नालंदा शल्य तंत्र के केंद्र थे। यहां शल्य तंत्र के अध्ययन एवं अध्यापन की उत्तम व्यवस्था थी। उस युग के प्रसिद्ध शल्यविद आचार्य जीवक तक्षशिला के स्नातक थे। जीवक एक महान शल्पज्ञ थे। उनको मगध के राज दरबार में राजवैद्य का सम्मान प्राप्त था। वह बुद्ध एवं उनके शिष्यों के भी चिकित्सक थे। सम्राट अशोक द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने और अहिंसा के विचार को प्रोत्साहन देने से शल्य कर्म को आसुरी चिकित्सा माना जाने लगा। इसी का परिणाम रहा कि शल्य तंत्र का उस काल में उत्तरोत्तर ह्रास होता गया। मध्यकालीन भारत में विदेशी आक्रांताओं ने बड़े-बड़े पुस्तक संग्रहालयों को या तो लूट लिया या जला दिया। इस कारण विज्ञान के साथ शल्य तंत्र का साहित्य भी लुप्तप्राय सा हो गया।

उत्तर मध्य काल में मुगलों का राज था। इस समय राजनीतिक स्थायित्व हो जाने के कारण पुन: चिकित्सा शास्त्र की उन्नति की ओर ध्यान दिया गया और आयुर्वेद की कई पुस्तकें जैसे चरक संहिता, सुश्रुत संहिता आदि का अनुवाद अरबी, फारसी में हुआ। अंग्रेजों के शासन के समय देश के पारंपरिक ज्ञान-विज्ञान, चिकित्सा पद्धति तथा अन्य विधाओं को बढ़ने से रोका गया। शल्य तंत्र तो अंग्रेजों के आगमन से पूर्व ही ह्रास की ओर था, यह गति और बढ़ गई। इन सभी घटनाक्रमों के साथ-साथ भारत में शल्य तंत्र कुछ घरानों में यत्र-तत्र वंशानुगत क्रम में व्यवहार रूप में जीवंत रहा। इसका एक उदाहरण 1772 ई. में टीपू सुल्तान एवं अंग्रेजों के बीच मैसूर युद्ध में मिलता है। टीपू सुल्तान के सैनिकों ने अंग्रेजों की तरफ से लड़ रहे एक कोवास जी नामक गाड़ीवान एवं चार सिपाहियों को पकड़कर उनकी नाक काट दी। एक मराठी शल्य चिकित्सक ने सफलतापूर्वक उनके कटे अंगों का संधान किया, जिसे दो अंग्रेज सर्जनों ने देखा। इसका सचित्र प्रकाशन मद्रास गजट, फिर लंदन में अक्टूबर 1794 में जेंटल मैन पत्रिका में हुआ।

इस तरह 19वीं शताब्दी तक आयुर्वेद का अध्ययन-अध्यापन गुरु-शिष्य परंपरा के जरिये प्रचालित रहा। 19वीं शताब्दी के अंत एवं 20वीं सदी से आरंभ काल में कहीं कहीं आयुर्वेद महाविद्यालयों की स्थापना हुई। 1916 में महामना पंडित मदन मोहन मालवीय ने वाराणसी में काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की। उनका विचार था कि हम अपनी चिकित्सा पद्धति का जब तक आधुनिक विज्ञान एवं तकनीक के सानिध्य में अध्ययन नहीं करेंगे, उसका विकास एवं वैश्वीकरण संभव नहीं है। अब देश की आजादी के 73 वर्षों के बाद भारत सरकार एवं आयुष मंत्रालय द्वारा प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद को पुन: वैधानिक मान्यता दी गई। भविष्य में निश्चित ही भारतीय चिकित्सा पद्धति को एक नया आयाम मिले।

(लेखक काशी हिंदू विश्वविद्यालय में आयुर्वेद संकाय, शल्य तंत्र विभाग के अध्यक्ष हैं)


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