'सोच के संकुचित दायरे की शिकार क्यों सिर्फ महिलाएं हों'
लड़कियां रात दो बजे घर से नहीं निकल सकती हैं, यह एक तरह से समाज की मानसिक बाड़ेबंदी है, जिसे तोड़े जाने की दरकार है।
आरती रानी प्रजापति
महिला को देवी के रूप में पूजने वाला हमारा यह अपना देश भारत वास्तव में अपनी पूरी संरचना में स्त्री विरोधी है। महिला के शोषण और उसके पूजे जाने के बीच एक बारीक पर्देदारी कायम है। रोजमर्रा की घटनाएं महिला को पुरुष से कम होने का अहसास कराती हैं। भले ही आपका घर से बाहर जाना ही क्यों न हो, लड़की के लिए यह तय है कि वह देर शाम बाहर न जाए। किसी कारण यदि वह ऐसा करती भी है तो कोई-न-कोई पुरुष उसके साथ में होना जरूरी है। वह उससे छोटा पांच से दस साल का बच्चा भी हो सकता है।
हमारी पूरी भारतीय मानसिक संरचना में यह बात शामिल है कि कोई भी पुरुष शख्स अपनी उम्र से बड़ी महिला की रक्षा करने में ‘समर्थ’ होता है। वह पुरुष है, इतने भर से उसे यह सामथ्र्य हासिल है। भारतीय समाज की यह मानसिकता उस पुस्तक की देन है जिस पर हिंदू समाज का ढांचा टिका हुआ है। हाल ही में एक त्योहार बीता है जिसमें बहन भाई की कलाई पर राखी बांधती है और उससे अपनी रक्षा की प्रार्थना करती है। लड़की अपनी रक्षा कैसे कर सकती है? इसलिए भाई की जरूरत है।
हैरानी की बात है कि यह वही देश है जिसमें दुर्गा और काली जैसी देवियां हैं जिन्हें समाज में ऐसी स्त्री के रूप में दिखाया जाता है जो हथियार उठाना जानती हैं। वह किसके लिए और किसके कहे से यह सशक्तीकरण का काम कर रही थीं, यह अलग चर्चा का विषय है। यह रक्षा सिर्फ एक मामले तक सीमित है कि कोई उस लड़की के साथ शारीरिक संबंध न बना ले। भाई साथ होगा तो कोई उसकी बहन को कोई छेड़ेगा नहीं। सीटी नहीं बजाएगा, पीछा नहीं करेगा, अगवा नहीं करेगा। मगर इसमें एक बात यह भी शामिल है कि रक्षा के नाम पर भाई साथ जाएगा तो बहन की हिम्मत नहीं होगी कि वह परिवार की इच्छा के खिलाफ जाकर किसी गैर पुरुष से प्रेम की हिमाकत कर ले।
भाई द्वारा रक्षा की यह बात तब लागू नहीं की जाती जब मामला प्रेम विवाह, अंतरजातीय विवाह का हो या संपत्ति में अधिकार का। उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में गुड़िया नाम का एक पर्व मनाया जाता है। इसमें छोटी-छोटी, रंग-बिरंगी गुड़िया को पुरुषों द्वारा पीटा जाता है। यह पर्व भारतीय सामाजिक संरचना में पुरुष वर्चस्व को दर्शाता है। बचपन से ही पुरुष को इस तौर-तरीके से प्रशिक्षित किया जाता है कि वह गुड़िया (स्त्री) को मारे। समाज में एक स्त्री को मानसिक तौर पर इतना कमजोर बना दिया जाता है कि उसे सुरक्षा के लिए हमेशा पुरुष की जरूरत महसूस होती है। हालांकि देश में ऐसे मामलों की भी कमी नहीं जिसमें कोई करीबी रिश्तेदार या भाई अथवा पिता ने लड़की का यौन उत्पीड़न न किया हो।
चंडीगढ़ में वर्णिका कुंडू ने दो लड़कों पर पीछा करने और छेड़छाड़ का आरोप लगाया है। वह लड़की बाद में यह जान पाई की वह लड़के कौन थे। उस लड़की की हिम्मत ही है जिसने उस बात को अपनी शर्म से नहीं छुपाया बल्कि सबके सामने रखा। मगर हैरानी वाली बात है कि महिला सशक्तिकरण झंडेबरदार सियासी पार्टियों के लोगों कहना था कि वह रात में निकली ही क्यों? अगर पुरुषों के नजरिये से देखें तो यह बड़ा सवाल है कि लड़की आखिर रात को क्यों निकली? जबकि यह वक्त तो पुरुषों के निकलने का माना जाता है।
पिछले दिनों आई फिल्म पिंक में भी यह बताया गया कि भले घर की लड़कियां रात में बाहर नहीं निकला करतीं। यदि वह बाहर जाएंगी तो लड़कें छेड़ेंगे ही। फिर लड़का यदि किसी सवर्ण या उच्च वर्ग का हो तो कहना ही क्या? वर्णिका की घटना खबर इसलिए बन पाई क्योंकि वह एक अधिकारी की बेटी है।अभिजात्य वर्ग से उसका नाता है। वरना यहां रोज दलित महिलाओं का बलात्कार किया जाता है, उसे नंगा कर के गांव में घुमाया जाता है। उस पर खबर तो दूर शिकायत तक नहीं दर्ज की जाती।
लड़की को कब, कैसे, किसके साथ निकलना है यह भारतीय समाज के ‘कुछ’ लोग तय करते हैं। यदि लड़की कुछ इधर उधर करती है तो, भई जिम्मेदारी उसकी खुद की बनती है। दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री का बयान, ‘महिलाओं को ज्यादा एडवेंचर्स नहीं होना चाहिए’ पितृसत्तात्मक सोच को बयान करता है। लड़की हो, समय से घर लौट आया करो वरना लड़के तुम्हें छेड़ेंगे? पुरुष वर्चस्व को कायम रखने के लिए कभी तेजाब, कभी बलात्कार का डर दिखाकर घर में रहने को मजबूर किया जाएगा। और यही बात लड़की के बाहर काम करने को भी अप्रत्यक्ष रूप से मनाकर देती है।
असल में, स्त्री को भारतीय समाज वस्तु के रूप में ही देखता है, जिसे जब चाहे जैसे चाहे इस्तेमाल किया जा सकता है। मगर मर्दवादी ढांचे को अब समझना होगा कि सड़क पर पुरुषों के जितना महिलाओं का भी हक है। अगर सड़क से महिलाओं की दूरी बनी हुई है तो यह समाज के विकास में बाधक ही होगी। क्या यह जरूरी नहीं कि इस देश के हर कोने को महिला के लिए सुरक्षित किया जाए? पितृसत्ता ने स्त्री को घर में बंद किया और उसे रात में बाहर न जाने की सलाह दी, इसे कहीं से भी उचित नहीं कहा जा सकता है।
स्त्री-पुरुष दोनों की आदत में नहीं है कि महिला को रात में सड़क पर घूमता देखें। इसलिए जैसे ही कोई स्त्री सड़क पर दिखाई देती है आकर्षण का केंद्र बन जाती है। ऐसे में अपने सुरक्षा की जिम्मेदारी लड़की की होती है यानी यात्री अपने समान की रक्षा खुद करें। क्योंकि समाज आपकी रक्षा नहीं कर सकता। चंडीगढ़ जैसी घटनाएं रोज होती हैं लेकिन यह घटना शहर की थी। लड़की भी बड़े घर की थी। इसलिए मामला सामने आ पाया वरना यहां बलात्कार पीड़ित लड़की को ही सवालों से गुजरना पड़ता है। अदालत के चक्कर में उम्र बीत जाती है। शायद यह समाज न बदले क्योंकि उसे हमने ही बनाया है। बदल दिया तो यह जो लड़कियां आज रात 2 बजे घूम रही हैं कल पूरी रात बाहर रहेंगी। ऐसे समाज की संरचना टूट जाएगी। स्त्री पर वैसा हक नहीं जमा सकेगा, जैसा पुरुष अभी जमा पाता है।
(लेखिका जेएनयू में शोधार्थी हैं)
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