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जब तिब्‍बत ने की थी एतिहासिक भूल और चीन ने उस पर किया था कब्‍जा

मौजूदा समय में चीन एक ऐसा देश है जो आज भी अपनी विस्‍तारवादी नीति पर काम कर रहा है। तिब्‍बत पर धोखे से कब्‍जा करने के बाद उसकी निगाहें भारत की सीमा पर लगी हुई है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Sat, 08 Jul 2017 12:37 PM (IST)Updated: Tue, 11 Jul 2017 09:44 AM (IST)
जब तिब्‍बत ने की थी एतिहासिक भूल और चीन ने उस पर किया था कब्‍जा
जब तिब्‍बत ने की थी एतिहासिक भूल और चीन ने उस पर किया था कब्‍जा

नई दिल्‍ली (स्‍पेशल डेस्‍क)। तिब्‍बत को लेकर चीन हमेशा से ही काफी चौकस रहता है। इसकी असली वजह यह है कि तिब्‍बत उसका धोखे से कब्‍जाया हुआ क्षेत्र है। आकार के लिहाज से तिब्‍बत और चीन में काफी अंतर नहीं है। चीन की सेना ने यहां पर लोगों का शोषण किया और आखिर में वहां के प्रशासक दलाई लामा को अपनी जान बचाकर भागना पड़ा था। मौजूदा समय में इस क्षेत्र में प्रशासक महज नाम मात्र के हैं। हकीकत में वहां की सत्‍ता बीजिंग द्वारा ही तय की जाती है। यही वजह है कि जब कभी भी भारत से चीन का तनाव बढ़ता है तब वहां के दलाई लामा द्वारा इस विषय में कुछ नहीं कहा जाता है।

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चीन ने धोखे से किया था तिब्‍बत पर कब्‍जा

यूं भी दलाई लामा का जिक्र वहां के महज कुछ पन्‍नों तक ही सीमित रह गया है। यहां की राजनीति से लेकर तमाम चीजों को चीन की सेना या फिर सरकार तय करती है। बहुत कम लोग इस बात से वाकिफ हैं कि कभी तिब्‍बत ने चीन से अपनी रक्षा के लिए सैन्‍य मदद मांगी थी, लेकिन चीन ने बाद में धोखे से उस पर कब्‍जा ही कर लिया था। यहां पर यह बात भी बतानी जरूरी होगी कि चीन की शुरुआत से ही विस्‍तारवादी नीति रही है जो अभी तक भी बरकरार है। इसलिए ही वह भारत के अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, भूटान, अक्‍साई चिन और लद्दाख पर अपना दावा ठाेकता रहा है। चीन ने अपनी चाल से अपने देश के ही बराबर का हिस्‍सा जिसको तिब्‍बत कहा जाता है, पर कब्‍जा किया हुआ है।

नेपाल से युद्ध में हार के बाद तिब्‍बत पर लगा था हर्जाना

तिब्बत ने दक्षिण में नेपाल से कई बार युद्ध किया, लेकिन हर बार ही उसको हार का सामना करना पड़ा था। इसके हर्जाने के तौर पर तिब्‍बत को हर वर्ष नेपाल को 5000 नेपाली रुपया बतौर जुर्माना देने की शर्त भी माननी पड़ी थी। लेकिन जल्‍द ही तिब्‍बत इस हर्जाने से दुखी हो गया और इससे बचने के लिए चीन से सैन्‍य सहायता मांगी, जिससे नेपाल को युद्ध में हराया जा सके। चीन की मदद के बाद तिब्‍बत को नेपाल को दिए जाने वाले हर्जाने से छुटकारा तो मिल गया, लेकिन 1906-7 ईस्‍वी में तिब्बत पर चीन ने अपना अधिकार जमा लिया और याटुंग ग्याड्से समेत गरटोक में अपनी चौकियां स्थापित कर लीं।

शिमला में हुई भारत-चीन-तिब्‍बत की बैठक

1912 ईस्‍वी में चीन से मांछु शासन का अंत होने के साथ तिब्बत ने अपने को दोबारा स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया था। सन् 1913-14 में चीन, भारत और तिब्बत के प्रतिनिधियों की बैठक शिमला में हुई, जिसमें इस विशाल पठारी राज्य को भी दो भागों में विभाजित कर दिया गया। इसमें पूर्वी भाग जिसमें वर्तमान चीन के चिंगहई एवं सिचुआन प्रांत हैं उसे इनर तिब्‍बत कहा गया। जबकि पश्चिमी भाग जो बौद्ध धर्मानुयायी शासक लामा के हाथ में रहा उसे आउटर तिब्‍बत कहा गया।

चीन के घेरे में आने लगा था तिब्‍बत

सन् 1933 ईस्‍वी में 13वें दलाई लामा की मृत्यु के बाद आउटर तिब्बत भी धीरे-धीरे चीन के घेरे में आने लगा था। 14वें दलाई लामा ने 1940 ईस्‍वी में शासन भार संभाला। 1950 ईस्‍वी में जब ये सार्वभौम सत्ता में आए तो पंछेण लामा के चुनाव को लेकर दोनों देशों में शक्तिप्रदर्शन की नौबत तक आ गई और चीन को आक्रमण करने का बहाना मिल गया। 1951 की संधि के अनुसार यह साम्यवादी चीन के प्रशासन में एक स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया गया। इसी समय से भूमिसुधार कानून एवं दलाई लामा के अधिकारों में हस्तक्षेप एवं कटौती होने के कारण असंतोष की आग सुलगने लगी जो 1956 एवं 1959 ईस्‍वी में जोरों से भड़क उठी, लेकिन बलप्रयोग द्वारा चीन ने इसे दबा दिया। चीन द्वारा चलाए गए दमन चक्र से बचकर किसी प्रकार दलाई लामा नेपाल से होते हुए भारत पहुंचे। मौजूदा समय में सर्वतोभावेन चीन के अनुगत पंछेण लामा यहां के नाममात्र के प्रशासक हैं।

तिब्‍बत की मौजूदगी

मध्य एशिया की ऊंची पर्वत श्रंख्‍लाओं, कुनलुन और हिमालय के मध्य स्थित 16000 फीट की ऊंचाई पर स्थित तिब्बत का इतिहास कई शताब्‍दी पुराना है। 8वीं शताब्दी तक यहां बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार शुरू हो चुका था। 1013 ईस्‍वी में नेपाल से धर्मपाल तथा अन्य बौद्ध विद्वान् तिब्बत गए। 1042 ईस्‍वी में दीपंकर श्रीज्ञान अतिशा तिब्बत पहुंचे और बौद्ध धर्म का प्रचार किया। शाक्यवंशियों का शासनकाल 1207 ईस्‍वी में प्रांरभ हुआ। मंगोलों का अंत 1720 ईस्‍वी में चीन के मांछु प्रशासन द्वारा किया गया। तत्कालीन साम्राज्यवादी अंग्रेंजों ने, जो दक्षिण पूर्व एशिया में अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सफलता प्राप्त करते जा रहे थे, यहां भी अपनी सत्ता स्थापित करनी चाही, लेकिन 1788-1792 ईस्‍वी में गोरखाओं ने उन्‍हें करारी मात दी। 19वीं शताब्दी तक तिब्बत ने अपनी स्वतंत्रता को बरकरार रखा था। इसी बीच लद्दाख़ पर कश्मीर के शासक ने तथा सिक्किम पर अंग्रेंजों ने अधिकार जमा लिया।

तिब्बत का कुछ ऐसा है इतिहास

1912: चीन में किंग वंश के पतन के बाद चीनी सेना तिब्बत की राजधानी ल्हासा से बाहर कर दी गई।
13वें दलाई लामा ने स्वतंत्रता की घोषणा की और 1950 तक तिब्बतियों ने वहां शासन किया।
1935: 6 जुलाई को 14वें दलाई लामा का जन्म हुआ। नवंबर 1950 चौदहवें दलाई लामा की ताजपोशी हुई।
1950: अक्टूबर में चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी तिब्बत में दाखिल हुई।
1951: मई में तिब्बत के प्रतिनिधियों ने दबाव में आकर चीन के साथ एक 17-सूत्री समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसमें तिब्बत को स्वायत्तता देने का वादा किया गया था।
1951: सितंबर में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ल्हासा में दाखिल हो गई।
1954: दलाई लामा ने पीकिंग की यात्रा की।
1959: 10 मार्च को चीन के कब्जे के खिलाफ विद्रोह शुरू हुआ।
1965: चीन ने तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र का गठन किया।
1979: तिब्बत में मंद गति से उदारीकरण शुरू हुआ।
1985: तिब्बत को बड़े पैमाने पर पर्यटन के लिए खोल दिया गया।
1987: ल्हासा और शिगात्से में विद्रोह शुरू हुआ।
1989: हू जिंताओ और उनकी पार्टी के नेताओं के नेतृत्व में तिब्बत में दमनचक्र चला।
2002: चीन की सरकार ने दलाई लामा के साथ बातचीत प्रारंभ की। लेकिन वार्ता बेनतीजा रही।
2008: 14 मार्च को ल्हासा में चीन विरोधी दंगे के बाद तिब्बत में विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ।
चीन की सरकार ने इस प्रदर्शन को शक्ति से दबाया, कई लोगों की गिरफ्तारी हुई।

तिब्बत में विदेशी पत्रकारों के घुसने पर प्रतिबंध लगा दिया गया।


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