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    'आप' में मचे घमासान के बीच राजद और सपा की तरह होगा पार्टी का भविष्य

    By Kamal VermaEdited By:
    Updated: Tue, 09 Jan 2018 10:06 AM (IST)

    जब आंदोलन का एकमात्र आधार सत्ता की मुखालफत तक सीमित हो जाए तो वह उद्देश्य से भटक जाता है। शायद अब लंबे समय तक वैकल्पिक राजनीति पर बात करने वालों पर लो ...और पढ़ें

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    'आप' में मचे घमासान के बीच राजद और सपा की तरह होगा पार्टी का भविष्य

    नई दिल्ली [शिवानंद द्विवेदी]। राज्यसभा की तीन सीटों के लिए आम आदमी पार्टी द्वारा टिकट बंटवारे को लेकर उठ रहे सवालों ने आंदोलन से उपजी राजनीति को एक बार फिर बहस के दायरे में खड़ा कर दिया है। भारतीय लोकतंत्र में आंदोलन के रास्ते राजनीति में आने की एक पुरानी परंपरा रही है। समकालीन राजनीति के तमाम बड़े नेता आंदोलनों से होकर राजनीति में आए हैं। अगर देखा जाए तो स्वतंत्रता के बाद देश में छोटे-बड़े अनेक आंदोलन हुए और उन आंदोलनों ने भारतीय राजनीति को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है। देश में आजादी के बाद तीन बड़े आंदोलन चर्चा के केंद्र में रहे हैं। पहला, सत्तर के दशक में इंदिरा सरकार की मनमानी और भ्रष्टाचार के खिलाफ जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए जनांदोलन की चर्चा होती है, तो नब्बे के दशक के शुरुआती दौर में मंदिर आंदोलन को इस देश के लोकतंत्र ने देखा है।

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    भ्रष्टाचार के मुद्दे पर खड़ा हुआ अन्ना आंदोलन

    अगर हाल की बात करें तो 2011-12 में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर खड़ा हुआ अन्ना आंदोलन युवा पीढ़ी के सामने घटित एक बड़ी घटना है। यह कहना उचित होगा कि सत्ता का विरोध किसी भी आंदोलन के मूल स्वभाव का हिस्सा है। अर्थात आंदोलन का रुख आमतौर पर सत्ता के खिलाफ होता है, लेकिन जब आंदोलन का एकमात्र आधार किसी मुद्दे के बहाने सत्ता की मुखालफत तक सीमित हो जाए और उसका कोई वैचारिक आधार नहीं हो तो वह उद्देश्य से भटक जाता है। आज अन्ना आंदोलन का हश्र भी यही हुआ है। चूंकि वह एक मुद्दा आधारित आंदोलन था। अन्ना हजारे के नेतृत्व में खड़े हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में वैचारिक परिपक्वता एवं स्पष्टता का अभाव था। जो लोग अन्ना के सबसे करीबी थे, उनकी लोकजीवन में कोई वैचारिक साम्यता एवं स्पष्टता नहीं थी।

    भ्रष्टाचार के मुद्दे पर एकजुट

    आंदोलन के प्रमुख चेहरों के रूप में चाहे अरविंद केजरीवाल हों, मनीष सिसोदिया हों, कुमार विश्वास हों या अन्य प्रमुख लोग हों, ये सभी लोग भ्रष्टाचार के मुद्दे पर एकजुट हुए थे, न कि किसी वैचारिक साम्यता पर एकजुट थे। हमें समझना होगा कि भ्रष्टाचार का विरोध करना कोई विचारधारा नहीं, बल्कि एक मुद्दे पर व्यापक पक्ष रखना भर है। लिहाजा उस आंदोलन से जिस राजनीति का प्रादुर्भाव हुआ, उसका भ्रष्टाचार के खिलाफ एक राजनीतिक विकल्प देने का दावा स्वाभाविक था, लेकिन दावे को जब व्यावहारिकता की कसौटी पर कसने और फलीभूत करने का समय आया तो स्थिति ढाक के तीन पांत साबित हुई। आम आदमी पार्टी ने स्थापना के साथ ही पार्टी का जो आंतरिक संविधान जनता के बीच प्रस्तुत किया, उसका पालन वह दो चुनाव तक भी नहीं कर पाई। मोहल्ला समितियों से राय लेकर चुनाव में टिकट देने की बात हो अथवा आंतरिक लोकपाल से जांच का दावा हो, सारे नियम कागजों में सिमटकर कहीं खो गए और बहुत कम समय में ही आम आदमी पार्टी ने परंपरागत राजनीति की बुराइयों में खुद को अग्रिम कतार में खड़ा कर लिया।

    पार्टी में वैचारिक टकराव स्वाभाविक 

    चूंकि अन्ना आंदोलन के दौरान हुआ जुटान वैचारिक नहीं था, लिहाजा देर-सबेर पार्टी में वैचारिक टकराव का होना स्वाभाविक था। योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण के निष्कासन ने इस वैचारिक टकराव से होने वाले बिखराव की बुनियाद रख दी। फिर एक-एक करके टकराव की खबरें सामने आने लगीं और वर्तमान में यहां तक पहुंच गई कि आम जनता से पूछकर टिकट बांटने का दावा करने वाले अरविंद केजरीवाल ने राज्यसभा में उस व्यक्ति को भेज दिया जो बीस दिन पहले कांग्रेस से इस्तीफा देकर आया था। आरोप की राजनीति करने वाले केजरीवाल पर यह सवाल निराधार नहीं है कि आंदोलन के शुरुआती चेहरों को दरकिनार कर एक व्यापारी को आखिर किस आधार पर उन्होंने टिकट दिया है? जहां तक शुचिता की राजनीति के दावों का सवाल है तो इसे तो आम आदमी पार्टी ने बहुत पहले ही छोड़ दिया था। आंदोलन के मूल में वैचारिक आधार नहीं होने की वजह से अन्ना आंदोलन का हश्र भी वही हुआ, जो कुछ हद तक जेपी आंदोलन का हुआ था।

    शेष आंदोलनों से कुछ भिन्न 

    नब्बे के दशक के मंदिर आंदोलन की स्थिति शेष दोनों आंदोलनों से कुछ मामलों में भिन्न है। पहली यह कि मंदिर आंदोलन की बुनियाद एक ठोस वैचारिक स्पष्टता पर टिकी थी। उस आंदोलन के पीछे भाजपा के रूप में एक राजनीति दल की संगठन शक्ति अवश्य थी। उस आंदोलन के देशव्यापी बनने के पीछे कारण राजनीतिक संगठन का होना न होकर, वैचारिक स्पष्टता का होना था। भाजपा महज उस विचारधारा के संप्रेषण की प्रतिनिधि चेहरा थी। यही कारण था कि आज भी न वह मुद्दा भाजपा से अलग है और न भाजपा उस मुद्दे से अलग है। वैचारिक आधार में स्पष्टता होने की वजह से उस आंदोलन को लेकर भाजपा में राजनीतिक अंतर्विरोध और मुद्दे से पलायन की स्थिति भी गत ढाई दशकों में देखने को नहीं मिली है। हिंदू समाज के आंतरिक संघर्ष को कम करने और उन्हें वैचारिक एकजुटता के सूत्र में पिरोने में मंदिर आंदोलन की भूमिका को खारिज नहीं किया जा सकता है।

    आम आदमी पार्टी के भविष्य को लेकर कयास 

    आज आम आदमी पार्टी में जो हो रहा है, वह एक और महत्वपूर्ण सवाल खड़ा करता है। कुछ राजनीतिक विश्लेषक आम आदमी पार्टी के भविष्य को लेकर कयास लगा रहे हैं। चूंकि अब मामला इस बहस से परे जा चुका है कि कौन यह पार्टी छोड़ेगा और कौन इस पार्टी में रहेगा, क्योंकि अब इस बात के लक्षण दिखने लगे हैं कि आने वाले समय में और भी कई नाम इस पार्टी से अलग हो सकते हैं। मगर इस पार्टी का भावी ढांचा धुंधला ही सही मगर दिखने लगा है। यह पार्टी दिल्ली की एक स्थानीय दल के रूप में कम या ज्यादा जनाधार के साथ भविष्य में कायम रह सकती है। इसका दलीय आधार अरविंद केजरीवाल की अगुआई में ठीक वैसा ही होगा जैसा बिहार में लालू यादव की राजद और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी है। एक परिवार अथवा व्यक्ति के अपने दल के रूप में ही आम आदमी पार्टी का भावी स्वरूप तैयार होता दिख रहा है। आने वाले कुछ वर्षो में हम शायद आम आदमी पार्टी को दिल्ली में इसी रूप में देख रहे होंगे।

    (लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में फेलो हैं)