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    'बिछड़ने वाले सबब तो बता जुदाई का': परवीन शाकिर की पुण्‍यतिथि पर विशेष

    By Kamal VermaEdited By:
    Updated: Tue, 26 Dec 2017 03:11 PM (IST)

    अहसास और संवेदना की वादी में कोई बहादुर, दर्द का कोई सबसे अलग स्‍वर जब गूंजता है ताे तो यह समझने में देर नहीं लगती कि यह परवीन शाकिर का है।

    'बिछड़ने वाले सबब तो बता जुदाई का': परवीन शाकिर की पुण्‍यतिथि पर विशेष

    धर्मशाला (नवनीत शर्मा)। अहसास और संवेदना की वादी में कोई बहादुर, दर्द का कोई सबसे अलग स्‍वर जब गूंजता है ताे यह समझने में देर नहीं लगती कि यह परवीन शाकिर का है। इस आवाज़ में वातावरण और परिस्थितियों पर नजर के बावजूद प्‍यार के विभिन्‍न आयाम संबोधित होते हैं। ग़ज़ब की उच्‍च शिक्षा, शायरी में जीते जी लेजेंड का दर्जा, पाकिस्‍तान सिविल सर्विसिज में अधिकारी और सिर्फ 42 साल की उम्र में सड़क हादसे में मौत। वास्‍तव में दर्द ने 'खुशबू की तरह परवीन की पजीराई की।' करीब से पुकारे जाने पर अपनी खा़क तक लौट कर आने की कुव्‍वत सिर्फ परवीन शाकिर में है। परवीन शाकिर ने पाकिस्‍तान जैसे मुल्‍क में नारी अस्मिता के पक्ष में तो आवाज़ बुलंद की। उस माहौल में आवाज़ बुलंद की जिसके बारे में वह अपनी नज्‍म 'टमैटो केचप' में लिखती हैं,

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    हमारे श्‍हां
    शे'र कहने वाली हर औरत का शुमार
    अजायबात (हैरान करने वाली चीज़ें ) में होता है
    हर मर्द खुद को उसका मुखातिब समझता है
    और चूंकि हकीकत में ऐसा नहीं होता
    इसलिए उसका दुश्‍मन हो जाता है।

    मूलत: बिहार के दरभंगा से उनके पुरखे पाकिस्‍तान यानी कराची गए थे और कराची में ही उनकी 24 नवंबर, 1952 को पैदाइश हुई। बहुत पहले से शे'रगोई करने करने वाली परवीन ने इसी वातावरण में अपना मुकाम बनाया।

     

    'खुशबू', 'सदबर्ग', 'खुदकलामी' और 'इन्‍कार' उनके प्रमुख काव्‍य संग्रह रहे। 26 दिसंबर, 1994 को उनका देहांत हो गया। अपने छोटे से जीवन में उन्‍होंने काफी उपलब्धियों के साथ पारिवारिक टूटन की टीस भी सही। डॉ. नजीर उनके पति थे लेकिन तलाक हो गया। अहमद नदीम कास्‍मी जैसे बड़े शायर उनके लिए उस्‍ताद का दर्जा रखते थे। यह खूबी परवीन शाकिर के यहां ही है कि कैसे अपने दर्द के मैं को हम का रूप देना है :

    कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की
    उसने खुशबू की तरह मेरी पजीराई की

    कैसे कह दूं कि मुझे छोड़ दिया है उसने
    बात तो सच है मगर बात है तन्‍हाई की

    यह ग़ज़ल मेहदी हसन ने भी इतनी तबीयत के साथ गाई कि मूलत: राग दरबारी में स्‍वरबद्ध इस ग़ज़ल के शब्‍दों को भी सुरों ने आबरू बख्‍शी है। आमतौर पर दरबारी के साथ दो तीन राग ऊपर नीचे और भी चलते हैं। खासतौर पर दरबारी जैसे सुरों वाली जौनपुरी रागिनी साथ चलती है। वह भी इतनी ही दिलफरेब है कि गाने वाला पक्‍का न हो तो बहक जाता है, इसमें प्रवेश कर जाता है। इस गज़ल के सारे अश्‍आर की खूब यह है कि दूसरे मिसरों में एक स्‍वीकाराेक्ति का भाव है जिसे यह राग बहुत अच्‍छे से निभाता है। जैसे- बात तो सच है मगर बात है रुसवाई की या फिर बस यही बात है अच्‍छी मेरे हरजाई की। इस ग़ज़ल का भी काफी योगदान है भारत में परवीन शाकिर की मकबूलियत में।



    परवीन शाकिर के यहां हर अहसास की शारी मिलती है। देखिए किस खूबी के साथ वह सबको बंधा हुआ बता देती हैं जो पाकिस्‍तान के संदर्भ में तो यह और समीचीन है :

    पा ब गिल सब हैं रिहाई की करे तदबीर कौन
    दस्‍त बस्‍ता शहर में खोले मेरी ज़ंजीर कौन

    दुश्‍मनों के साथ मेरे दोस्‍त भी आज़ाद हैं
    देखना है छोड़ता है मुझपे पहला तीर कौन

    और गुलाम अली की दिलफरेब आवाज़ में इसे किसने नहीं सुना होगा :

    कुछ तो हवा भी सर्द थी, कुछ था तेरा ख्‍याल भी
    दिल को खुशी के साथ-साथ होता रहा मलाल भी

    मेरी तलब था एक शख्‍स वा जो नहीं मिला तो फिर
    हाथ दुआ से यूं गिरा भूल गया सवाल भी

    उदासी का एक घनघोर अंधेरा उनके इन अश्‍आर में देखा जा सकता है :

    बिछड़ा है जो इक बार तो मिलते नहीं देखा
    इस ज़ख्‍म को हमने कभी सिलते नहीं देखा

    इक बार जिसे चाट गइग्‍ धूप की खाहिश
    फिर शाख पे उस फल को खिलते नहीं देखा

    किस तरह मेरी रूह हरी कर गया आखिर
    वो ज़हर जिसे जिस्‍म में खिलते नहीं देखा

    कहा तो यही जाएगा कि परवीन शाकिर पाकिस्‍तान की शायरा थीं लेकिन उनके साहित्‍य को जानने वाले जानते होंगे कि वह कितनी भारतीय थीं। भारतीय इस लिहाजा से नहीं कि भारत में भी प्रसिद्ध थीं, अपितु इसलिए भी कि उनकी कतिपय रचनाओं में ठेठ भारतीय शब्‍द और बिंब मिलते हैं कि किसी कविता के साथ नाम न दिया जाए और पाठक को पूछा जाए तो वह किसी भारतीय शायरा का भी नाम नहीं लेगा, हिंदी कवयित्री का नाम लेगा। और यह बात कुछ ज्ञात या अज्ञात कारणों से सामने नहीं लाई जाती रही है। एक कविता का अंश देखिए :

    मनोहर
    क्‍या वारूं तुझ पर मेरी जीवन थाली में तो
    शेष नहीं कोई दीवट
    जले हुए सपनों का तट
    माथे तेरे क्‍या तिलक लगाऊं
    राख भई मेरी मांग
    ओक में तेरी क्‍या जल डालूं
    मैं संपूरन प्‍यास।

    उनकी नज्‍म गोरी करत सिंगार का एक रूप देखिए :

    बाल बाल मोती चमकाए
    रोम रोम महकार
    मांग सिंदूर की सुंदरता से
    चमके वंदनवार

    या 'श्‍याम मैं तोरी गइयां चराऊं' का एक रंग देखें :
    आंख जब आईने से टकराई
    श्‍याम सुंदर से राधा मिल आई
    आए सपनों में गोकुल के राजा
    देने सखियों को बधाई....

    शाम मैं तोरी गइयां चराऊं
    मोल ले ले तू मेरी कमाई
    कृष्‍ण गोपाल तो रस्‍ता ही भूले
    राधा प्‍यारी तो सुध बुध भूल आई
    सारे सुर एक मुरली की धुन में
    ऐसी रचना भला किसने गाई....

    उन्‍होंने ग़ज़ल की तकनीक भी निभाई और मुक्‍त छंद में भी लिखा। वह न होकर भी ऐसे हमारे आसपास बिखरी हुई हैं कि उन्‍हें समेटना कठिन हैं। प्रेम के हर भाव में वह हैं, स्‍त्री की हर कोमल भावना में परवीन दिखती है, साहस और हौसले के पथ पर भी परवीन दिखती हैं, उदास होने का सलीका भी परवीन ही सिखाती हैं। शायद इसीलिए उन्‍होंने कहा होगा :

    अक्‍से खुशबू हूं बिखरने से न रोके कोई
    और बिखर जाऊं तो मुझको न समेटे कोई

    मैं तो उस दिन से हिरासयां हूं कि जब हुक्‍म मिले
    खुश्‍क फूलों को किताबों में न रखे कोई।

    जाहिर है, इस शे'र में वह फ़राज साहब से आगे की बात कर रही हैं। फ़राज़ साहब ने कहा था :

    अब के हम बिछड़े तो शायद कभी खाबों में मिलें
    जैसे दो सूखे हुए फूल किताबों में मिलें

    परवीन के अनुभव इस तरह के रहे कि उन्‍हें इस बात से भयभीत होना पड़ा कि किसी दिन ऐसे आदेश भी न आ जाएं कि खुश्‍क फूलों को किताबों में न रखे कोई। भारतीय उपमहाद्वीप की अविस्‍मरणीय शायरा परवीन शाकिर को उनकी पुण्‍यतिथि पर आदरांजलि।


    परवीन शाकिर की कुछ ग़ज़लें

    अब भला छोड़ के घर क्या करते
    शाम के वक़्त सफ़र क्या करते

    तेरी मसरुफियतें जानते हैं
    अपने आने की ख़बर क्या करते

    जब सितारे ही नहीं मिल पाए
    ले के हम शम्स-ओ-कमर क्या करते

    वो मुसाफिर ही खुली धूप का था
    साये फैला के शजर क्या करते

    खाक़ ही अव्वल-ओ-आख़िर ठहरी
    करके ज़र्रे को गुहर क्या करते

    राय पहले से बना ली तूने
    दिल में अब हम तिरे घर क्या करते

    2.
    पा-ब-गिल सब हैं रिहाई की करे तदबीर कौन
    दस्त-बस्ता शहर में खोले मेरी ज़ंजीर कौन

    मेरा सर हाज़िर है लेकिन मेरा मुंसिफ़ देख ले
    कर रहा है मेरी फ़र्द-ए-जुर्म की तहरीर कौन

    आज दरवाज़ों पे दस्तक जानी-पहचानी-सी है
    आज मेरे नाम लेता है मिरी ताज़ीर कौन

    कोई मक़तल को गया था मुद्दतों पहले मगर
    है दरे-ख़ेमा पे अब तक सूरते-तस्वीर कौन

    मेरी चादर तो छिनी थी शाम की तन्हाई में
    बे-रिदाई को मिरी फिर दे गया तशहीर कौन

    3.

    शदीद दुःख था अगरचे तिरी जुदाई का
    सिवा है रंज हमें तेरी बेवफाई का

    तुझे भी ज़ौक नए तजुर्बात का होगा
    हमें भी शौक था कुछ बख्त आज़माई का

    जो मेरे सर से दुपट्टा न हटने देता था
    उसे भी रंज नहीं मेरी बेरिदाई का

    सफ़र में रात जो आई तो साथ छोड़ गए
    जिन्होंने हाथ बढ़ाया था रहनुमाई का

    रिदा छिनी मिरे सर से मगर मैं क्या कहती
    कटा हुआ तो न था हाथ मेरे भाई का

    मैं सच को सच भी कहूँगी मुझे खबर ही न थी
    तुझे भी इल्म न था मेरी इस बुराई का

    कोई सवाल जो पूछे तो क्या कहूँ उससे
    बिछड़ने वाले सबब तो बता जुदाई का

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