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बेजोड़ कामयाबी: समाज की खींची लकीरों से आगे निकल आसमान छू रही बेटियां

47 फीसद लड़कियों की शादी भारत में 18 वर्ष की उम्र से पहले हो जाती है। इससे बाल विवाहिताएं स्कूल जाने की बजाय शारीरिक व अन्य प्रकार के शोषण का शिकार होने लगती हैं।

By Digpal SinghEdited By: Published: Sat, 20 Jan 2018 04:53 PM (IST)Updated: Sun, 21 Jan 2018 08:34 AM (IST)
बेजोड़ कामयाबी: समाज की खींची लकीरों से आगे निकल आसमान छू रही बेटियां
बेजोड़ कामयाबी: समाज की खींची लकीरों से आगे निकल आसमान छू रही बेटियां

नई दिल्ली, [अंशु सिंह]। हर बच्चा, हर किशोर, हर युवा...राष्ट्र के लिए महत्वपूर्ण है, चाहे वह लड़का हो या लड़की। बेटियां विपरीत परिस्थितियों में मिसाल पेश कर रही हैं। परिवार और समाज के लिए नई लकीर खींच रही हैं। राष्ट्रीय बालिका दिवस (24 जनवरी) पर मिलेंगे कुछ ऐसी ही बेमिसाल बेटियों से...

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मुंबई के मुलुंद स्थित झुग्गी बस्ती में जन्मीं आरती नाइक को 10वीं में स्कूल छोड़ना पड़ा था। घर की आर्थिक स्थिति कमजोर होने और सही मार्गदर्शन न मिलने के कारण आगे पढ़ाई की उम्मीद भी नहीं बची थी। पर उन्होंने हार नहीं मानी। तमाम चुनौतियों का डटकर सामना किया। खुद अपना रास्ता बनाया। ओपन यूनिवर्सिटी से स्नातक करते हुए पार्ट टाइम नौकरी की। जो पैसे मिले, उससे बस्ती की लड़कियों को बेसिक शिक्षा देना शुरू किया। 2008 में आरती ने पांच लड़कियों के साथ ‘सखी फॉर गर्ल्स एजुकेशन’ संगठन की नींव रखी। यह राह आसान नहीं थी। बेटियों के प्रति परिवारों का रवैया बदलने में वक्त लगा। रोड शोज करने पड़े। धीरे-धीरे उनकी संख्या बढ़ती गई। एक समय जहां सातवीं व आठवीं की लड़कियों को वर्णमाला के अलावा कुछ मालूम नहीं था, वहीं आज वे आराम से पढ़-लिख सकती हैं। नौ सालों में एक भी लड़की ने ड्रॉप आउट या फेल नहीं किया है। सावित्री बाई फुले को अपना प्रेरणास्रोत मानने वाली आरती का कहना है कि जीवन में उतार-चढ़ाव, संघर्ष होते हैं। लेकिन कभी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए।

सखी बनकर सहेजती भविष्य 

आरती कहती हैं, ‘मेरे जीवन में कोई मार्गदर्शक या सखी नहीं थी। न कोई प्लेटफॉर्म था। लेकिन मैं इन लड़कियों की सखी बनकर उन्हें आगे बढ़ते देखना चाहती हूं। उस परंपरा व सोच को बदलना चाहती हूं कि बीच में पढ़ाई छूटने या क्लास में फेल करने के बावजूद शादी अंतिम विकल्प नहीं होता है। जिंदगी उसके बाद भी चलती है।' आरती का मानना है कि शिक्षा से आत्मविश्वास बढ़ता है। जब लड़कियां बाहर निकलती हैं, तो उन्हें एक्सपोजर मिलता है। मुझे अपनी लीडरशिप क्वालिटी का एहसास था। लेकिन संगठन चलाने या नेटवर्किंग की कोई जानकारी न होने से आठ साल तक अकेले ही सब संभाला।' अशोका फेलोशिप मिलने के बाद आरती का हौसला बढ़ा। अशोका वेंचर एवं रिलायंस फाउंडेशन से आर्थिक मदद मिलने के बाद उन्होंने किराये पर कमरा लेकर बस्ती की लड़कियों को बेसिक शिक्षा देने के साथ उनके लिए लाइब्रेरी व बैंक शुरू किए। इनका सपना हर स्लम में सखी का केंद्र शुरू करना है।   

संभव हुआ जरूरतमंदों का इलाज 

छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले की स्मिता तांडी पेशे से कॉन्टेबल हैं, लेकिन इनकी पहचान गरीबों के मसीहा के रूप में है। वे पैसों की कमी से जूझ रहे बीमार व्यक्तियों के इलाज में मदद करती हैं। कभी धन के अभाव में अपने पिता को खोने वाली स्मिता ने इसे अपनी जिंदगी का मकसद बना लिया है। 'नारी शक्ति' पुरस्कार से सम्मानित हो चुकीं स्मिता कहती हैं, ‘मैंने कभी समाज सेवा से जुड़ने की नहीं सोची थी। बचपन से पुलिस सेवा में जाना चाहती थी और उस सपने को पूरा भी किया। लेकिन तभी पापा की बीमारी का पता चला। इलाज महंगा था। समय पर पैसे का इंतजाम न हो पाने से हम उन्हें बचा नहीं सके। उसी दिन ठान लिया कि पैसों के अभाव में किसी और को अपनी जान नहीं गंवाने दूंगी।' इसके बाद स्मिता ने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर ‘जीवनदीप’ नामक ग्रुप की स्थापना की। सोशल मीडिया की मदद से बीमार लोगों के लिए फंड इकट्ठा करना शुरू किया। वह बताती हैं कि शुरुआत में लोगों ने नजरअंदाज किया। लेकिन एक वक्त आया जब पोस्ट पढ़कर लोग मदद के लिए आगे आए। हमने सफलता की कहानियां फेसबुक पर साझा कीं, जिससे हमारी मुहिम के प्रति आमजन का विश्वास बढ़ता गया।

संवारा ग्रामीण महिलाओं का जीवन

बतौर सॉफ्टवेयर इंजीनियिर बेंगलुरु की प्रतिभा कृष्णैया के पास मल्टीनेशनल में अच्छे पैकेज पर काम करने का विकल्प था। लेकिन उन्होंने उत्तराखंड के छोटे से गांव खेतीखान एवं आसपास की ग्रामीण महिलाओं का जीवन संवारने के लिए खुद को समर्पित कर दिया। वे बताती हैं, ‘महीनों के अध्ययन के बाद मैंने देखा कि महिलाएं खेतों में काम या मजदूरी कर जैसे-तैसे जीवन चला रही थीं, जबकि उनके पास बुनाई की विशेष कला थी। मुझे लगा कि इसके जरिए ही उनका सशक्तीकरण हो सकता है। कृषि से होने वाली आय के अलावा वे गर्म कपड़ों की बुनाई से भी अच्छी कमाई कर सकती हैं। इसके बाद ही हमने ‘हिमालयन ब्लूम्स’ संस्था के माध्यम से उन्हें प्रशिक्षित और संगठित करना शुरू किया, ताकि वे स्वयं के साथ-साथ दूसरों के जीवन में भी उजाला ला सकें।' आज करीब 35 महिलाओं का एक ग्रुप बन चुका है, जो स्कार्फ, हैट, मफलर, मोजे, पोंचू आदि बनाती हैं। हाथ से बने इनके उत्पाद अब सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी लोकप्रिय हैं।

फाउंडेशन के जरिये समाजसेवा 

बॉलीवुड अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा कहती हैं फिल्म एक्टर होने के नाते जनता ने मुझे एक प्लेटफॉर्म दिया है। मैं बदलाव के लिए इस पोजीशन का इस्तेमाल करना चाहती हूं। मेरा अपना भी एक फाउंडेशन है, जो बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए काम करता है। हम उन गरीब बच्चों को स्कॉलरशिप और पढ़ने का मौका देते हैं, जिन्हें पढ़ने का शौक है। मेरी मां डॉक्टर हैं। अगर किसी बच्चे को स्वास्थ्य की समस्या होती है, वह उन्हें देखती हैं। 

मेंस्ट्रुअल हाइजीन पर जागरुकता

मैं अपने हमउम्र युवाओं से अलग सोच रखती हूं जेंडर इक्वलिटी जैसे गंभीर मुद्दे पर काम करने के अलावा ‘माइना महिला फाउंडेशन’ से जुड़कर मेंस्ट्रुअल हाइजीन को लेकर महिलाओं को जागरुक करती हूं। मैं ‘सैनिटरी नैपकिन्स को लग्जरी नहीं, बल्कि जरूरत मानती हूं। यह महिलाओं की हाइजीन के लिए अतिआवश्यक है। मुझे लगता है कि इस पर टैक्स नहीं बढ़ना चाहिए, क्योंकि इससे उनकी परेशानियां कम होने की बजाय और बढ़ जाएंगी। हफ्ते में करीब छह घंटे फाउंडेशन को देती हूं, जो कम कीमत में उच्च क्वालिटी वाले सैनिटरी पैड्स का निर्माण करती है और उन्हें समाज के गरीब तबके में वितरित करती है। इसने कई महिलाओं को रोजगार के अवसर भी दिए हैं। मुझे इससे संतुष्टि मिलती है। - सान्या रुनवाल, लेखिका, ‘टेन डॉलर ब्राइड’ 

क्रिकेटर सुरेश रैना कहते हैं, ग्रेसिया रैना फाउंडेशन के माध्यम से हम सुरक्षित गर्भावस्था, बच्चों के जन्म और मां व बच्चों के स्वास्थ्य के मुद्दे पर समाज को जागरुक करने का काम कर रहे हैं। साथ ही गरीब तबके की महिलाओं को स्वरोजगार में मदद दे रहे हैं।

- 47 फीसद लड़कियों की शादी भारत में 18 वर्ष की उम्र से पहले हो जाती है। इससे बाल विवाहिताएं स्कूल जाने की बजाय शारीरिक व अन्य प्रकार के शोषण का शिकार होने लगती हैं।

- यूएनएफपीए एवं मुंबई स्थित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशनंस स्टडीज के एक हालिया अध्ययन के अनुसार, सरकारी योजनाओं में मिलने वाले आर्थिक फायदे के कारण अब अभिभावकों का बेटियों के प्रति रवैया बदल रहा है। वे उन्हें बोझ न मानते हुए स्कूलों में उनका नामांकन करा रहे हैं। यहां तक कि उनकी शादियों में भी विलंब कर रहे हैं।

इनपुट : नंदिनी दुबे


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