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देश के गौरव: विदेशी धरती पर फहरायी विजय पताका, सलारिया की बहादुरी को सलाम

कैप्टन गुरबचन सिंह ने कांगो में संयुक्त राष्ट्र शांति सेना की तरफ से लड़ते हुए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया और भारत सरकार ने उन्हें मरणोप्रांत परमवीर चक्र से नवाजा।

By Digpal SinghEdited By: Published: Fri, 26 Jan 2018 09:02 AM (IST)Updated: Fri, 26 Jan 2018 12:50 PM (IST)
देश के गौरव: विदेशी धरती पर फहरायी विजय पताका, सलारिया की बहादुरी को सलाम
देश के गौरव: विदेशी धरती पर फहरायी विजय पताका, सलारिया की बहादुरी को सलाम

नई दिल्ली, [स्पेशल डेस्क]। देश की एकता और अखंडता को बरकरार रखते हुए हमारे अनगिनत वीर सपूतों ने अपने प्राणों की आहूति देकर देश के गौरव को बढ़ाया है। शहीदों की इस फेहरिस्त में एक नाम शहीद कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया का भी आता है, जिन्होने विदेशी धरती यानी अफ्रीका के कांगो में भारत द्वारा भेजी गई शांति सेना का नेतृत्व करते हुए न सिर्फ 40 विद्रोहियों को मार गिराया बल्कि खुद शहादत का जाम पीते हुए भारत गणतंत्र के पहले परमवीर चक्र विजेता होने का गौरव प्राप्त किया। (हालांकि उनसे पहले सोमनाथ शर्मा, जाडूनाथ सिंह, रामा रंघोबा राणे, पीरू सिंह शेखावत और करम सिंह को यह सम्मान मिल चुका था, लेकिन उन्हें जिस काल 1947-48 के लिए यह सम्मान मिला, उस वक्त भारत में अपना संविधान लागू नहीं हुआ था।) इनकी बहादुरी का सम्मान करते हुए देश के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राधा कृष्णन ने इन्हें मरणोपरांत देश के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित किया था।

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पिता के बहादुरी के किस्से सुन बने फौजी:

गुरबचन सिंह का जन्म 29 नवम्बर 1935 को शकरगढ़ के जनवल गांव में हुआ था। यह स्थान अब पाकिस्तान में है। इनके पिता मुंशी राम सलारिया भी फौजी थे और ब्रिटिश-इंडियन आर्मी के डोगरा स्क्वेड्रन, हडसन हाउस में नियुक्त थे। इनकी मां धन देवी एक साहसी महिला थीं तथा बहुत सुचारू रूप से गृहस्थी चलाते हुए बच्चों का भविष्य बनाने में लगी रहती थीं। पिता के बहादुरी के किस्सों ने गुरबचन सिंह को भी फौजी जिंदगी के प्रति आकृष्ट किया। इसी आकर्षण के कारण गुरबचन ने 1946 में बैंगलोर के किंग जार्ज रॉयल मिलिट्री कॉलेज में प्रवेश लिया। अगस्त 1947 में उनका स्थानांतरण उसी कॉलेज की जालंधर शाखा में हो गया।

1953 में वह नेशनल डिफेंस अकेडमी में पहुंच गए और वहां से पास होकर कारपोरल रैंक लेकर सेना में आ गए। वहां भी उन्होंने अपनी छवि वैसी ही बनाई जैसी स्कूल में थी यानी आत्म सम्मान के प्रति बेहद सचेत सैनिक माने गए। एक बार इन्हें एक छात्र ने तंग करने की कोशिश की। वह एक तगड़ा सा दिखने वाला लड़का था, लेकिन इसी बात पर गुरबचन सिंह ने उसे बॉक्सिंग के लिए चुनौती दे डाली। मुकाबला तय हो गया। सबको यही लग रहा था कि गुरबचन सिंह हार जाएंगे, लेकिन रिंग के अंदर उतरकर जिस मुस्तैदी से गुरबचन सिंह ने मुक्कों की बरसात की, उनके आगे वह कुशल प्रतिद्वंद्वी भी ठहर नहीं पाया और जीत गुरबचन सिंह की हुई। एक बार एक बेचारा लड़का कुएं में गिर गया, गुरबचन सिंह वहीं थे। उन्हें बच्चे पर तरस आया और वह उसे बचाने को कुएं में कूदने को तैयार हो गए, जबकि उन्हें खुद भी तैरना नहीं आता था। खैर उनके साथियों ने उन्हें ऐसा करने से रोक लिया।

एलिजाबेथ विला में सौंपा दायित्व:

यह बात है उस वक्त की जब बेल्जियम के कांगो छोड़ने के बाद कांगो में शीत-युद्ध जैसी स्थितियां उत्पन्न होने लगीं। संयुक्त राष्ट्र ने इस परिस्थिति को संभालने हेतु भारत की मदद लेने का फैसला लिया। भारत ने संयुक्त राष्ट्र के इस अभियान के लिए लगभग तीन हजार जवानों को वहां भेजा, जिसमें से कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया भी एक थे। 3/1 गोरखा राइफल्स के कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया को संयुक्त राष्ट्र के सैन्य प्रतिनिधि के रूप में एलिजाबेथ विला में दायित्व सौंपा गया था। 24 नवम्बर 1961 को संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद ने यह प्रस्ताव पास किया था कि संयुक्त राष्ट्र की सेना कांगो के पक्ष में हस्तक्षेप करे और आवश्यकता पड़ने पर बल प्रयोग करके भी विदेशी व्यवसायियों पर अंकुश लगाए।

संयुक्त राष्ट्र के इस निर्णय से शोम्बे के व्यापारी आदि भड़क उठे और उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की सेनाओं के मार्ग में बाधा डालने का उपक्रम शुरू कर दिया। संयुक्त राष्ट्र के दो वरिष्ठ अधिकारी उनके केंद्र में आ गए। उन्हें पीटा गया। 3/1 गोरखा राइफल्स के मेजर अजीत सिंह को भी उन्होंने पकड़ लिया था और उनके ड्राइवर की हत्या कर दी थी। इन विदेशी व्यापारियों का मंसूबा यह था कि वह एलिजाबेथ विला के मोड़ से आगे का सारा संवाद तंत्र तथा रास्ता काट देंगे और फिर संयुक्त राष्ट्र की सैन्य टुकडिय़ों से निपटेंगे।

हमले के लिए चुना दोपहर का समय:

5 दिसम्बर 1961 को एलिजाबेथ विला के रास्ते इस तरह बाधित कर दिए गए थे कि संयुक्त राष्ट्र के सैन्य दलों का आगे जाना एकदम असम्भव हो गया था। करीब 9 बजे 3/1 गोरखा राइफल्स को यह आदेश दिए गए कि वह एयरपोर्ट के पास के एलिजाबेथ विला के गोल चक्कर का रास्ता साफ करे। इस रास्ते पर विरोधियों के करीब डेढ़ सौ सशस्त्र पुलिस वाले रास्ते को रोकते हुए तैनात थे। योजना यह बनी कि 3/1 गोरखा राइफल्स की चार्ली कम्पनी आयरिश टैंक के दस्ते के साथ अवरोधकों पर हमला करेगी। इस कम्पनी की अगुवाई मेजर गोविन्द शर्मा कर रहे थे। कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया एयरपोर्ट साइट से आयारिश टैंक दस्ते के साथ धावा बोलेंगे इस तरह अवरोधकों को पीछे हटकर हमला करने का मौका न मिल सकेगा। कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया की ए कम्पनी के कुछ जवान रिजर्व में रखे जाएंगे। गुरबचन सिंह सलारिया ने इस कार्रवाई के लिए दोपहर का समय तय किया, जिस समय उन सशस्त्र पुलिसबालों को हमले की जरा भी उम्मीद न हो। गोविन्द शर्मा तथा गुरबचन सिंह दोनों के बीच इस योजना पर सहमति बन गई।

दुश्मन के 40 जवानों को किया ढेर:

कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया 5 दिसम्बर 1961 को एलिजाबेथ विला के गोल चक्कर पर दोपहर की ताक में बैठे थे कि उन्हें हमला करके उस सशस्त्र पुलिसवालों के व्यूह को तोडऩा है, ताकि फौजें आगे बढ़ सकें। इस बीच गुरबचन सिंह सलारिया अपनी टुकड़ी के साथ अपने तयशुदा ठिकाने पर पहुंचने में कामयाब हो गई। उन्होंने ठीक समय पर अपनी रॉकेट लांचर टीम की मदद से रॉकेट दाग कर दुश्मन की दोनों सशस्त्र कारें नष्ट कर दीं। यही ठीक समय था जब वह सशस्त्र पुलिस के सिपाहियों को तितर-बितर कर सकते थे। उन्हें लगा कि देर करने पर दुश्मन को फिर से संगठित होने का मौका मिल जाएगा। ऐसी नौबत न आने देने के लिए कमर तुरंत कस ली। उनके पास केवल सोलह सैनिक थे, जबकि सामने दुश्मन के सौ जवान थे। फिर भी, उनका दल दुश्मन पर टूट पड़ा। आमने-सामने मुठभेड़ होने लगी, जिसमें गोरखा पलटन की खुखरी ने तहलका मचाना शुरू कर दिया। दुश्मन के सौ में से चालीस जवान वहीं ढेर हो गए। दुश्मन के बीच खलबली मच गई और वह बौखला उठा, तभी गुरबचन सिंह गोलियों का निशाना बन गए।

26 की उम्र में हुए शहीद:

संयुक्त राष्ट्र संघ की शांति सेना के साथ कांगो के पक्ष में बेल्जियम के विरुद्ध बहादुरी पूर्वक प्राण न्योछावर करने वाले योद्धाओं में कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया का नाम लिया जाता है, जिन्हें 5 दिसम्बर 1961 को एलिजाबेथ विला में लड़ते हुए अद्भुत पराक्रम दिखाने के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र दिया गया। वह उस समय सिर्फ 26 वर्ष के थे।


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