आखिर कैसे संवरेगा भारत, ये है सबसे बड़ा दुश्मन
दुनिया के सभी संसाधनों में सर्वाधिक शक्तिशाली संसाधन मानव संसाधन ही है, परंतु अतिशय जनसंख्या किसी भी देश की सेहत के लिए ठीक नहीं होती है।
अरविंद जयतिलक
जनसंख्या और आर्थिक विकास में परस्पर घनिष्ठ संबंध है। किसी देश का आर्थिक विकास प्राकृतिक संसाधनों और जनसंख्या के आकार, बनावट और कार्यक्षमता पर निर्भर करता है। 30 अप्रैल, 2013 को जारी जनगणना 2011 के अंतिम आंकड़ों के अनुसार देश की जनसंख्या बढ़कर 121.07 करोड़ हो गई है। यानी देश की जनसंख्या में 17.7 फीसद की वृद्धि हुई है। इन आंकड़ों से साफ है कि भारत में जनाधिक्य की समस्या बनी हुई है और विगत पांच दशकों में जनसंख्या में निरंतर तीव्र वृद्धि के कारण जनसंख्या विस्फोट की स्थिति उत्पन हो गई है। जनसंख्या की यह तीव्र वृद्धि आर्थिक विकास के मार्ग को बाधित कर रही है।
भारत में जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के कारण बेरोजगारी, खाद्य समस्या, कुपोषण, प्रति व्यक्ति निम्न आय, निर्धनता में वृद्धि, मकानों की समस्याएं, कीमतों में वृद्धि, कृषि विकास में बाधा, बचत तथा पूंजी निर्माण में कमी, जनोपयोगी सेवाओं पर अधिक व्यय, अपराधों में वृद्धि तथा शहरी समस्याओं में वृद्धि जैसी ढेर सारी समस्याएं उत्पन हुई हैं। इनमें सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी की है। देश में पूंजीगत साधनों की कमी के कारण रोजगार मिलने में कठिनाई उत्पन हो रही है।
गत वर्ष श्रम मंत्रलय की इकाई श्रम ब्यूरो द्वारा जारी ताजा सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया कि भारत में बेरोजगारी की दर 2013-14 में बढ़कर 4.9 फीसद पहुंच गई है जो कि 2012-13 में 4.7 फीसद थी। यह हालात तब है जब देश में बेरोजगारी से निपटने के लिए ढेर सारे कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। इनमें राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम, समन्वित विकास कार्यक्रम, जवाहर रोजगार योजना, स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना, संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा) सर्वाधिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। तीव्र जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की उपलब्धता कम पड़ रही है जिससे लोगों का स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है और उनकी कार्यकुशलता घट रही है।
तीव्र जनसंख्या वृद्धि के कारण कुपोषण की समस्या भी लगातार सघन हो रही है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट से उद्घाटित हो चुका है कि भारत में पिछले एक दशक में भुखमरी की समस्या से जुझने वालों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। इफको की रिपोर्ट में भी कहा जा चुका है कि कुपोषण की वजह से देश के लोगों का शरीर कई तरह की बीमारियों का घर बनता जा रहा है।
गौर करें तो कुपोषण वास्तव में घरेलू खाद्य असुरक्षा का सीधा परिणाम है। विश्व बैंक के आंकड़ों पर गौर करें तो भारत में कुपोषण का दर लगभग 55 फीसद है, जबकि उप सहारीय अफ्रीका में यह 27 फीसद के आसपास है। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि भारत में हर साल कुपोषण के कारण मरने वाले पांच साल से कम उम्र वाले बच्चों की संख्या दस लाख से भी अधिक है।
तीव्र जनसंख्या वृद्धि के कारण गरीबी से निपटने में भी कठिनाई आ रही है। रंगराजन कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में गरीबों की संख्या 36 करोड़ से भी ज्यादा है। यानी देश में हर तीसरा आदमी गरीब है। यह दर्शाता है कि आर्थिक नियोजन के 63 वर्ष पूर्ण होने के बाद भी भारतीय अर्थव्यवस्था किस तरह निर्धनता के दुष्चक्र में फंसी हुई है।
तीव्र जनसंख्या वृद्धि के कारण भारत में मकानों की समस्या भी लगातार गहराती जा रही है।आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी आज देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं जो सुविधाहीन झुग्गी-झोपड़ियों में जीवन गुजारने को विवश हैं। गौर करें तो 2011 की जनगणना के अनुसार देश के ग्रामीण इलाकों में बेघरों की संख्या तीन करोड़ के आसपास है। कुछ ऐसा ही हाल शहरों का भी है।
अर्थव्यवस्था और वातावरण पर केंद्रित वैश्विक आयोग की नई रिपोर्ट के मुताबिक पिछले दो दशकों में भारत की शहरी आबादी 21 करोड़ 70 लाख बढ़कर 37 करोड़ 70 लाख हो चुकी है जो 2031 तक 60 करोड़ हो जाएगी। अगर जनसंख्या इसी तरह बढ़ता रहा तो मकानों की समस्या और जटिल होगी।
नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) की रिपोर्ट पर विश्वास करें तो आज देश की आबादी का आठवां हिस्सा बेघर है। आंकड़ें बताते हैं कि देश के 12 राज्यों में 33 हजार से अधिक झुग्गी-बस्तियां हैं और उनमें अकेले महाराष्ट्र में ही 23 फीसद लोग रहते हैं। कुछ ऐसा ही हाल आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली और कर्नाटक जैसे राज्यों का भी है।
जनसंख्या में तीव्र वृद्धि कृषि पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। परिवार के सदस्यों में वृद्धि से भूमि का उप-विभाजन और विखंडन बढ़ता जा रहा है जिससे खेतों का आकार छोटा तथा अनार्थिक होता जा रहा है। इसका कुपरिणाम यह है कि देश में भूमिहीन किसानों की संख्या बढ़ रही है। साथ ही कृषि में छिपी हुई बेरोजगारी भी बढ़ रही है।
जनसंख्या में तीव्र वृद्धि से बचत तथा पूंजी निर्माण में भी कमी आ रही है। भारत की जनसंख्या में 36 फीसद बच्चे हैं। इसका नतीजा यह है कि कमाने वाले लोगों को अपनी आय का एक बड़ा भाग बच्चों के पालन-पोषण पर खर्च करना पड़ रहा है जिससे बचत घट रही है और पूंजी निर्माण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। पूंजी की कमी के कारण विकास योजनाओं को पूर्ण करने में कठिनाई उत्पन हो रही है।
जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के कारण सरकार को बिजली, परिवहन, चिकित्सा, जल-आपूर्ति, भवन निर्माण इत्यादि जनोपयोगी सेवाओं पर अधिक व्यय करना पड़ रहा है जिससे अन्य क्षेत्र प्रभावित हो रहे हैं। दो राय नहीं कि राष्ट्र के विकास में जनसंख्या की महती भूमिका होती है और विश्व के सभी संसाधनों में सर्वाधिक शक्तिशाली तथा सर्वप्रमुख संसाधन मानव संसाधन ही है, लेकिन अतिशय जनसंख्या किसी भी राष्ट्र की सेहत के लिए ठीक नहीं है। ऐसे में आवश्यक है कि भारत जनसंख्या की तीव्र वृद्धि को रोकने के लिए ठोस नीति को आकार दे।
सरकार इस पर विचार करे कि भारत के लिए अनुकूलतम जनसंख्या क्या हो? अभी तक जितनी भी राष्ट्रीय जनसंख्या नीति बनी है उसका सकारात्मक असर देखने को नहीं मिला है। 1976 की राष्ट्रीय जनसंख्या नीति के तहत जन्म दर तथा जनसंख्या वृद्धि में कमी लाना, विवाह की न्यूनतम आयु में वृद्धि करना, परिवार नियोजन को प्रोत्साहित करना तथा स्त्री शिक्षा पर विशेष जोर देना इत्यादि का लक्ष्य रखा गया था।
कमोबेश इसी तरह का उद्देश्य और लक्ष्य 2000 की नई राष्ट्रीय नीति में भी रखा गया, लेकिन उसका कोई सकारात्मक असर देखने को नहीं मिला। सच तो यह है कि यह जनसंख्या नीति पूरी तरह असफल साबित हुई। अगर जनसंख्या नीति में व्यापक बदलाव नहीं हुआ तो जनसंख्या वृद्धि की यह प्रवृत्ति पहले से भी ज्यादा समस्याओं और अव्यवस्थाओं को जन्म देगी जिससे निपटना फिर आसान नहीं रह जाएगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)