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    Shankaracharya: आसान नहीं है 'शंकराचार्य' बनना, कठिन प्रक्रिया और शास्त्रार्थ के बाद मिलती है पदवी; यह है नियम

    By Achyut KumarEdited By:
    Updated: Sun, 11 Sep 2022 06:43 PM (IST)

    How is Shankaracharya selected शंकराचार्य बनना आसान नहीं है। कठिन प्रक्रिया और शास्त्रार्थ के बाद ही किसी भी धर्माचार्य को शंकराचार्य की पदवी मिलती है। आइए जानते हैं शंकराचार्य कैसे बननते हैं औकर इसकी चयन की प्रक्रिया क्या है...

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    Shankaracharya Swami Swaroopanand Saraswati: शंकराचार्य बनने की क्या है पूरी प्रक्रिया?

    नई दिल्ली, जागरण डिजिटल डेस्क। शंकराचार्य स्‍वामी स्‍वरूपानंद सरस्‍वती का लंबी बीमारी के बाद रविवार को निधन हो गया। वे दो पीठों (ज्‍योति‍र्मठ और द्वारका पीठ) के शंकराचार्य थे। उन्‍होंने नरसिंहपुर जिले की झोतेश्‍वर पीठ के परमहंसी गंगा आश्रम में अंतिम सांस ली। वे अपने बेबाक बयानों के लिए भी जाने जाते थे। उनके निधन से संत समाज में शोक की लहर फैल गई है। इन सबके बीच मन में एक सवाल पैदा होता है कि शंकराचार्य कौन हैं? कोई भी व्यक्ति शंकराचार्य कैसे बनता है? इसकी पूरी प्रक्रिया क्या है? आइए जानते हैं इन सभी सवालों के जवाब...

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    बता दें, शंकराचार्य की पदवी को हासिल करना आसान नहीं है। कठिन प्रक्रिया और प्रकांड विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ के बाद ही शंकराचार्य की गद्दी पर कोई धर्माचार्य बैठ सकता है।

    आदि शंकराचार्य ने की थी चार मठों की स्थापना

    आदि शंकराचार्य ने प्राचीन भारतीय सनातन परंपरा की रक्षा के लिए देश के चार कोनों में चार मठों की स्थापना की थी। पूर्व ओडिशा में गोवर्द्धन मठ (पुरी), पश्चिम गुजरात में शारदा मठ (द्वारिका), उत्तर उत्तराखंड में ज्योतिर्मठ (बद्रिकाश्रम) एवं दक्षिण रामेश्वर में श्रृंगेरी मठ।

    मठों की स्थापना के साथ ही इनकी रक्षा के लिए अखाड़े भी बनाए गए। इनमें अलग-अलग मठों के लिए दशनामी संन्यासी भी तैयार किए गए। इसके तहत गोवर्द्धन पीठ के साथ वन एवं अरण्य, शारदा पीठ के साथ तीर्थ एवं आश्रम, श्रृंगेरी पीठ के साथ सरस्वती, भारती एवं पुरी और ज्योतिर्पीठ के साथ गिरि, पर्वत एवं सागर संन्यासी जुड़े। आदि शंकराचार्य ने इन पीठों की बागडोर अपने उन शिष्यों को सौंपी थी, जिनसे उन्होंने स्वयं शास्त्रार्थ किया था।

    लगातार कायम रही परंपरा

    बताया जाता है कि शंकराचार्य ने इन पीठों की स्थापना करगोवर्द्धन पीठ पर पदमपादाचार्य, श्रृंगेरीपीठ पर हस्तामलाकाचार्य, शारदापीठ पर सुरेश्वराचार्य एवं ज्योतिर्पीठ पर त्रोटकाचार्य को बैठाया था। उसके बाद से यह परंपरा लगातार कायम रही।

    इन पीठों की स्थापना के काफी दिनों के बाद तक शंकराचार्य द्वारा स्थापित दशनामी अखाड़े के प्रमुख एवं उनके आचार्य महामंडलेश्वर इन मठों के शंकराचार्य का चयन करते रहे थे, लेकिन बाद में यह परंपरा टूट गई। मठों के शंकराचार्य स्वयं ही अपने उत्तराधिकारी के नाम की घोषणा करने लगे।

    कई ने अपनी वसीयत में उत्तराधिकारी का उल्लेख कर दिया। उनके ब्रह्मलीन होने पर शंकराचार्य पद को लेकर विवाद होने लगा। कई नए पीठ स्थापित हो गए और कई ने अपने को स्वयं शंकराचार्य घोषित कर लिया। विवाद न्यायालय में पहुंचने लगे और कोर्ट को भी इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा।

    शंकराचार्य के चयन का नियम

    शंकराचार्य द्वारा रचित मठाम्नाय के अनुसार, शंकराचार्य बनने के लिए संन्यासी होना आवश्यक है। संन्यासी बनने के लिए गृहस्थ जीवन का त्याग, मुंडन, पूर्वजों का श्राद्ध, अपना पिंडदान, गेरुआ वस्त्र, विभूति, रुद्राक्ष की माला को धारण करना आवश्यक होगा। 

    शंकराचार्य बनने के लिए ब्राह्मण होना अनिवार्य है। इसके अलावा, दंड धारण करने वाला, तन मन से पवित्र, जितेंद्रिय यानी जिसने अपनी इंद्रियों को जीत लिया हो, वाग्मी यानी शास्त्र-तर्क भाषण में निपुण हो, चारों वेद और छह वेदांगों का पारगामी विद्वान होना चाहिए। इसके बाद अखाड़ों के प्रमुखों, आचार्य महामंडलेश्वरों, प्रतिष्ठित संतों की सभा की सहमति और काशी विद्वत परिषद की मुहर के बाद शंकराचार्य की पदवी मिलती है।

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