Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    भारतीय सिनेमा ने बढ़ाया सदी की ओर कदम

    आज से ठीक 99 साल पहले दादा साहब फालके ने 1913 में राजा हरिशचंद्र फिल्म बनाई थी, यह एक मूक फिल्म थी। वर्तमान में सैंकड़ों फिल्में विभिन्न भाषाओं में बन चुकी हैं। हम हिंदी सिनेमा की सदी की ओर कदम रख च

    By Edited By: Updated: Thu, 03 May 2012 08:03 AM (IST)

    मुंबई। आज से ठीक 99 साल पहले दादा साहब फालके ने 1913 में राजा हरिशचंद्र फिल्म बनाई थी, यह एक मूक फिल्म थी। वर्तमान में सैंकड़ों फिल्में विभिन्न भाषाओं में बन चुकी हैं। हम हिंदी सिनेमा की सदी की ओर कदम रख चुके हैं और 21 अप्रैल 2013 में हिंदी सिनेमा अपने 100 वर्ष पूरे कर लेगा।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    राजा हरिशचंद्र मई 1913 में तैयार हुई थी। फिल्म बहुत जल्दी भारत में लोकप्रिय हो गई। दादा साहब फालके द्वारा बनाई गई यह फिल्म 1914 में लंदन में दिखाई गई। पहली बोलती फिल्म थी आलम आरा जिसे अरदेशिर ईरानी ने बनाया था। इस फिल्म को दर्शकों की खूब प्रशंसा मिली और इसके बाद सभी बोलती फिल्में बनीं।

    1950 से हिंदी फिल्में श्वेत-श्याम से रंगीन हो गई। उस दौर में फिल्मों का विषय प्रेम होता था और गाने फिल्म का महत्वपूर्ण अंग बन गया था।

    हम यह भी कह सकते हैं कि भारतीय सिनेमा की शुरुआत बातचीत के माध्यम से नहीं बल्कि गानों के माध्यम से हुई। यही कारण है कि आज भी बिना गानों के फिल्में अधूरी मानी जाती हैं।

    वाडिया मूवी टोन की 80 हजार रूपये की लागत से निर्मित साल 1935 की फिल्म हंटरवाली ने उस जमाने में लोगों के सामने गहरी छाप छोड़ी और अभिनेत्री नाडिया की पोशाक और पहनावे को महिलाओं ने फैशन ट्रेंड के रूप में अपनाया।

    गुजरे जमाने के अभिनेता मनोज कुमार के अनुसार ने कहा कि 40 और 50 का दशक हिन्दी सिनेमा के लिहाज से शानदार रहा। 1949 में राजकपूर की फिल्म बरसात ने बॉक्स ऑफिस पर धूम मचाई। इस फिल्म को उस जमाने में ए सर्टिफिकेट दिया गया था क्योंकि अभिनेत्री नरगिस और निम्मी ने दुपट्टा नहीं ओढ़ा था।

    बिमल राय ने दो बीघा जमीन के माध्यम से देश में किसानों की दयनीय स्थिति का चित्रण किया। फिल्म में मुख्य भूमिका अभिनेता बलराज साहनी ने निभायी थी। यह पहली भारतीय फिल्म थी जिसे कॉन फिल्म समारोह में पुरस्कार प्राप्त हुआ।

    50 के दशक में सामाजिक विषयों पर आधारित व्यवसायिक फिल्मों का दौर शुरू हुआ। वी शांताराम की 1957 में बनी फिल्म दो आंखें बारह हाथ में पुणे के खुला जेल प्रयोग को दर्शाया गया। लता मंगेशकर ने इस फिल्म के गीत ऐ मालिक तेरे बंदे हम को आध्यात्मिक ऊंचाइयों तक पहुंचाया।

    फणीश्वरनाथ रेणु की बहुचर्चित कहानी मारे गए गुलफाम पर आधारित फिल्म तीसरी कसम हिन्दी सिनेमा में कथानक और अभिव्यक्ति का सशक्त उदाहरण है। ऐसी फिल्मों में बदनाम बस्ती, आषाढ़ का दिन, सूरज का सातवां घोड़ा, एक था चंदर एक थी सुधा, सत्ताईस डाउन, रजनीगंधा, सारा आकाश, नदिया के पार आदि प्रमुख है।

    धरती के लाल और नीचा नगर के माध्यम से दर्शकों को खुली हवा का स्पर्श मिला और अपनी माटी की सोंधी सुगन्ध, मुल्क की समस्याओं एवं विभीषिकाओं के बारे में लोगों की आंखें खुली। देवदास, बन्दिनी, सुजाता और परख जैसी फिल्में उस समय बॉक्स ऑफिस पर उतनी सफल नहीं रहने के बावजूद ये फिल्मों के भारतीय इतिहास के नये युग की प्रवर्तक मानी जाती हैं।

    महबूब खान की साल 1957 में बनी फिल्म मदर इंडिया हिन्दी फिल्म निर्माण के क्षेत्र में मील का पत्थर मानी जाती है। सत्यजीत रे की फिल्म पाथेर पांचाली और शम्भू मित्रा की फिल्म जागते रहो फिल्म निर्माण और कथानक का शानदार उदाहरण थी। इस सीरीज को स्टर्लिंग इंवेस्टमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड के बैनर तले निर्माता निर्देशक के आसिफ ने मुगले आजम के माध्यम से नई ऊंचाईयों तक पहुंचाया।

    त्रिलोक जेतली ने गोदान के निर्माता निर्देशक के रूप में जिस प्रकार आर्थिक नुकसान का ख्याल किये बिना प्रेमचंद की आत्मा को सामने रखा, वह आज भी आदर्श है। गोदान के बाद ही साहित्यिक कतियों पर फिल्म बनाने का सिलसिला शुरू हुआ।

    प्रयोगवाद की बात करें तो गुरूदत्ता की फिल्में प्यासा, कागज के फूल तथा साहब बीबी और गुलाम को कौन भूल सकता है। मुजफ्फर अली की गमन और विनोद पांडे की एक बार फिर ने इस सिलसिले को आगे बढ़ाया।

    रमेश सिप्पी की 1975 में बनी फिल्म शोले ने हिन्दी फिल्म निर्माण को नई दिशा दी। यह अभिनेता अमिताभ बच्चन के एंग्री यंग मैन के रूप में उभरने का दौर था।। हालांकि 80 के दशक में बेसिर पैर की ढेरों फिल्में भी बनीं, जिनमें न कहानी थी न विषय। वैसे यह दौर कलर टेलीविजन का था जब हर घर धीरे-धीरे थियेटर का रूप ले रहा था।

    60 और 70 का दशक हिंदी फिल्मों के सुरीले दशक के रूप में स्थापित हुआ तो 80 और 90 के दशक में हिन्दी सिनेमा बॉलीवुड बनकर उभरा। हालांकि 90 के दशक में फिल्मी गीत डिस्को की शक्ल ले चुके थे। इसी दशक में आमिर, शाहरूख और सलमान का प्रवेश हुआ।

    आज हिन्दी फिल्मों में सशक्त कथानक का अभाव पाया जा रहा है और फिल्में एक खास वर्ग और अप्रवासी भारतीयों को ध्यान में रखकर बनायी जा रही है, जिसके कारण लोग सिनेमाघरों से दूर हो रहे हैं क्योंकि इन फिल्मों से वे अपने आप को नहीं जोड़ पा रहे हैं।

    पुराने जमाने में तीसरी कसम से लेकर भुवन शोम और अंकुर, अनुभव और अविष्कार तक फिल्मों का समानान्तर आंदोलन चला। इन फिल्मों के माध्यम से दर्शकों ने यथार्थवादी पृष्ठभूमि पर आधारित कथावस्तु को देखा परखा और उनकी सशक्त अभिव्यक्तियों से प्रभावित भी हुए।

    नए दौर में विजय दानदेथा की कहानी पर आधारित फिल्म पहेली श्याम बेनेगल की वेलकम टू सज्जनपुर और वेलडन अब्बा, आशुतोष गोवारिकर की लगान, स्वदेश, आमिर खान अभिनीत थ्री इडियटस, अमिताभ बच्चन अभिनीत पा और ब्लैक, शाहरूख खान अभिनीत माई नेम इज खान जैसे कुछ नाम ही सामने आते हैं जो कथानक और अभिव्यक्ति की दृष्टि से सशक्त माने जाते है।

    लेकिन अब फिल्मों के नाम प्लास्टिक के चेहरों की भोंडी नुमाइश हो रही है, जिसके कारण सिनेमाघरों [छोटे शहरों में] में दर्शकों की भीड़ काफी कम हो गई है। आज फिल्में मल्टीप्लेक्सों तक सिमट कर रह गई हैं।

    इस सबके बीच एक वाक्य में कहें तो राजा हरिश्चंद्र की मूक अभिव्यक्ति से हिन्दी सिनेमा रा वन की उच्च प्रौद्योगिकी क्षमता के स्तर तक पहुंच चुका है।

    इस समय हिंदी सिनेमा अपनी एक अलग पहचान बना चुका है। हिंदी सिनेमा को देश में ही नहीं विदेशों में भी सराहा गया। हिंदी सिनेमा का शतक हमारे लिए गर्व की बात है और इसलिए बॉलीवुड सौ साल के इस जश्न को पूरे साल मनाएगा।

    मोबाइल पर ताजा खबरें, फोटो, वीडियो व लाइव स्कोर देखने के लिए जाएं m.jagran.com पर