पर्यावरण सुरक्षा के मुद्दे पर विफल भारत, इसके लिए चाहिए नया नजरिया
भारत की स्थिति यह बताती है कि न केवल पर्यावरण सुरक्षा की दृष्टि से इसका प्रदर्शन खराब रहा है, बल्कि यह वायु की गुणवत्ता बढ़ाने में भी सफल नहीं हो पाया है।
सीबीपी श्रीवास्तव। वर्ष 2018 के पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक में 180 देशों में भारत 177वें स्थान पर है और इससे भी अधिक चिंता का विषय यह है कि पर्यावरणीय स्वास्थ्य श्रेणी में 180 देशों में यह 178वें स्थान पर है। भारत की स्थिति यह बताती है कि न केवल पर्यावरण सुरक्षा की दृष्टि से उसका प्रदर्शन खराब रहा है, बल्कि वह वायु की गुणवत्ता बढ़ने में भी सफल नहीं हो पाया है। दूसरी ओर हालांकि भारत जैव विविधता के संरक्षण पर प्रति वर्ष लगभग दो अरब डॉलर राशि खर्च करता है, लेकिन इस दिशा में भी लक्ष्य प्राप्त नहीं हो पाया है। विश्व आर्थिक मंच के अनुसार भारत में वायुमंडल में प्रदूषक कणिकाओं की मात्र में चिंतनीय वृद्धि के कारण मरने वाले लोगों की संख्या अत्यधिक हो गई है। सरकारी प्रयासों के बावजूद ठोस ईंधनों, कोयला एवं फसलों के अवशिष्टों का ज्वलन तथा मोटर वाहनों से उत्सर्जित होने वाले प्रदूषक लाखों भारतीयों के लिए वायु की गुणवत्ता के क्षरण के लिए उत्तरदायी हैं। अक्सर हम यह कह कर अपनी जवाबदेही से बचना चाहते हैं कि जनसंख्या का बड़ा आकार इसके लिए जिम्मेवार है, लेकिन तुलनात्मक रूप से चीन के सर्वाधिक जनसंख्या वाला राष्ट्र होने के बावजूद इस सूचकांक में उसका स्थान 120वां है जो भारत से कहीं अधिक बेहतर स्थिति में है।
जैव विविधता सम्मलेन
संयुक्त राष्ट्र के जैव विविधता सम्मलेन (5 जून, 1992 को हस्ताक्षरित तथा 29 दिसंबर, 1993 से प्रभावी) पर हस्ताक्षर करने वाले कुल 196 राष्ट्रों में भारत भी शामिल है। इस बहुपक्षीय संधि में जैव विविधता के संरक्षण और धारणीय उपयोग के लिए उपाय करने पर सहमति हुई थी। साथ ही यह भी तय हुआ था कि जैव प्रौद्योगिकी सहित अन्य तकनीकों तक सरकारों और स्थानीय समुदायों की पहुंच बढ़ाई जाएगी ताकि जैव संसाधनों की सुरक्षा की जा सके। जहां तक भारत का प्रश्न है, यहां जैव विविधता की प्रचुरता है और विश्व में अभिलिखित कुल प्रजातियों का लगभग 7-8 प्रतिशत हिस्सा भारत में उपलब्ध है। इनमें पौधों की लगभग 45000 तथा जंतुओं की 91000 प्रजातियां शामिल हैं। भारत उन चुनिंदा राष्ट्रों में भी शामिल है जिन्होंने संरक्षणात्मक नियोजन के तहत जैव-भौगोलिक वर्गीकरण किया है और जैव विविधता प्रचुर क्षेत्रों का मानचित्रीकरण भी किया है।
कई राष्ट्रों के बड़े-बड़े दावे भारत सहित संधि पर हस्ताक्षर करने वाले सभी सदस्य राष्ट्र 2011-2020 के लिए जैव विविधता रणनीतिक योजना के भाग हैं। भारत और कई राष्ट्रों ने हालांकि बड़े दावे कर रखे हैं, लेकिन उपलब्ध तथ्य और आंकड़े विश्व के लिए गंभीर चिंता का कारण बने हुए हैं। वस्तुस्थिति यह है कि विश्व में पर्यावरण, विशेषकर जैव विविधता का क्षरण और निम्नीकरण जारी है। प्रकृति के स्वांगीकरण (किसी वस्तु को पूर्णत: अपने आप में मिला लेना) की क्षमता घट गई है जिसके फलस्वरूप हानिकारक पदार्थो के पुनर्चक्रण की उसकी स्वयं की क्षमता कम हो गई है। कई साझा कारकों के कारण दबाव बना हुआ है जैसे-निवास्य क्षेत्रों का संकुचन, प्राकृतिक संसाधनों का अतिदोहन एवं अधारणीय उपयोग, वायु, जल तथा भूमि प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन। ऐसी खतरनाक प्रवृत्तियां अर्थव्यवस्थाओं, आजीविकाओं, खाद्य सुरक्षा तथा समग्र रूप में जीवन गुणवत्ता के समक्ष बड़ी चुनौतियां बन कर उभर गई हैं।
वन भूमि का स्थानांतरण पिछले तीन वर्षो में भारत में विकास के नाम पर लगभग 36500 हेक्टेयर वन भूमि का स्थानांतरण हुआ है। खास कर मध्य भारत में राष्ट्रीय राजमार्गो के निर्माण के लिए आवंटित होने वाली भूमि में अधिकांशत: वन भूमि रही है जिसके कारण कई महत्वपूर्ण बाघ गलियारों के नष्ट हो जाने की आशंका बढ़ गई है। नदी जोड़ो परियोजना के कारण पन्ना बाघ सुरक्षित क्षेत्र के कुछ भाग का विनाश और खनन तथा जल विद्युत परियोजनाओं के लिए बाघ सुरक्षित क्षेत्रों का प्रस्तावित विअधिसूचीकरण कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनसे जैव विविधता संरक्षण के प्रयासों को क्षति हो सकती है। हालांकि 2015-17 में कुल वन क्षेत्र में लगभग एक प्रतिशत की वृद्धि हुई है, लेकिन चिंता का विषय यह है कि प्राकृतिक वनों का उन्मूलन जारी है। साथ ही विलुप्तप्राय प्रजातियों का अवैध शिकार, बढ़ता प्रदूषण, अनियोजित अवसंरचनात्मक विकास तथा नगरीकरण जैसे कारक जैव विविधता के लिए खतरा बने हुए हैं।
विधि निर्माण की शक्ति जहां तक संवैधानिक, विधिक और न्यायिक आयामों का प्रश्न है, भारत उन कुछ राष्ट्रों में शामिल है जो इन आयामों से पर्यावरण, विशेषकर जैव विविधता के संरक्षण में इनसे सामर्थ्य प्राप्त करते हैं। भारत के मूल संविधान में अनुच्छेद 297 (1), (2) एवं (3) द्वारा समुद्रवर्ती संसाधनों के प्रबंधन एवं विनियमन के लिए संसद को विधि निर्माण की शक्ति प्रदान की गई है। पर्यावरण सुरक्षा की दृष्टि से संविधान का 42वां संशोधन सर्वाधिक महत्वपूर्ण मील का पत्थर कहा जा सकता है, जिसके द्वारा अनुच्छेद 48(ए) और 51(ए) (जी) जोड़कर क्रमश: राज्य और नागरिकों को पर्यावरण के संवर्धन तथा वन एवं वन्य जीवन की सुरक्षा के लिए उत्तरदायी बनाया गया है। इस प्रकार 42वें संशोधन अधिनियम ने संविधान में पर्यावरण संरक्षण के लिए एक सहभागी दृष्टिकोण शामिल किया है।
विधिशास्त्रीय मानकों की व्याख्या
दूसरी ओर शीर्ष न्यायालय ने कई अवसरों पर पर्यावरण संरक्षण के विधिशास्त्रीय मानकों की व्याख्या की है। एमसी मेहता बनाम कमल नाथ (1997) एससीसी 388 मामले में न्यायालय ने अनुच्छेद 21 में अंतर्निहित जन न्यास एवं पारिस्थितिकी सिद्धांत की व्याख्या की है, जिसके अनुसार राज्य का यह वैधानिक दायित्व है कि वह एक न्यासी के रूप में संसाधनों का संरक्षण करे न कि उनके स्वामी के रूप में। न्यायालय ने बॉम्बे डाइंग एंड मैन्युफैक्चरिंग कंपनी लिमिटेड बनाम बॉम्बे एनवायर्नमेंटल एक्शन ग्रुप (2006) 3एससीसी 434 मामले में यह स्पष्ट रूप से कहा कि पर्यावरण की सुरक्षा और परिरक्षण की संवैधानिक योजना संवैधानिक नीति पर आधारित है और राज्य पर इसे क्रियान्वित करने की बाध्यता है। इस निर्णय के आधार पर यह निर्विवाद है कि राज्य द्वारा धारणीय विकास की नीति को लागू करने के दौरान विकास की आवश्यकताओं और पर्यावरण के बीच संतुलन स्थापित किया जाना चाहिए। कदाचित इसी कारण 12वीं पंचवर्षीय योजना के प्रारूप पत्र में भारत में धारणीयता को ऊर्जा-पर्यावरण संतुलन के रूप में परिभाषित किया गया है।
मेक इन इंडिया मिशन
हाल के वर्षो में भारत ने मेक इन इंडिया मिशन को सफल बनाने के लिए अथक प्रयास आरंभ किए हैं ताकि औद्योगीकरण को गति दी जा सके। वस्तुत: भारत में संरचनात्मक रूपांतरण की प्रक्रिया आरंभ की गई है जिससे उसका स्वरूप मूलत: कृषि-आधारित से उद्योग-आधारित बन जाए। विकास की दृष्टि से ऐसा रूपांतरण निश्चित तौर पर सराहनीय है, लेकिन यह भी सत्य है इसकी गति बढ़ने के क्रम में हम संसाधनों का अतिदोहन करेंगे और इस आशंका को निराधार नहीं माना जा सकता। सरकार ने यह भी दावा किया है कि रूपांतरण की यह प्रक्रिया बड़ी संख्या में रोजगार सृजित कर जीवन स्तर बढ़ाएगी, लेकिन यहां उच्चतम न्यायालय द्वारा अभिव्यक्त विचारों पर गौर किया जाना चाहिए। न्यायालय ने बहुचर्चित गंगा प्रदूषण वाद एमसी मेहता बनाम भारत संघ (1987) 4एससीसी 463 में यह स्पष्ट कहा है कि लोगों के लिए उनका जीवन, स्वास्थ्य और पारिस्थितिकी अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण है।
[लेखक सेंटर फॉर एप्लाइड रिसर्च इन गवर्नेस, दिल्ली के अध्यक्ष हैं]
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