नई दिल्ली, संदीप राजवाड़े । पुणे से करीब 170 किमी दूर सतारा जिले की कराड़ तहसील का गोलेश्वर गांव… 70 साल पहले 23 साल के खाशाबा दादासाहेब जाधव (के.डी. जाधव) ने 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक में कुश्ती (रेसलिंग) में कांस्य पदक जीतकर दुनिया में इस गांव का नाम रौशन कर दिया। इस तरह, भारत के इस पहले स्पोर्ट्स सुपरस्टार ने दुनिया के रेसलिंग नक्शे पर न सिर्फ भारत का नाम दर्ज कराया, बल्कि देश को जीत की राह भी दिखाई।

गोलेश्वर-कराड़ शायद देश का एकमात्र स्थान है, जहां 38 सालों से आजादी का महोत्सव 14 व 15 अगस्त, दो दिन मनाया जाता है। दरअसल, 14 अगस्त की तारीख ओलंपिक एकल गेम में भारत को पहला पदक दिलाने वाले जाधव की पुण्यतिथि है। 1984 में इसी तारीख को उनका निधन हुआ था। यहां के लोग उनके देशप्रेम और जुनून को याद करते हुए दो दिन आजादी का जश्न मनाते हैं। उनके मन में दादासाहेब का सम्मान महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक से कम नहीं है। उनके संघर्ष और उपलब्धि की कहानी स्कूल के कोर्स में भी शामिल की गई है ताकि बच्चे प्रेरित हों। इसी का असर है कि जिस स्कूल में जाधव पढ़ते थे, वहां के 35 बच्चे आज रेसलिंग सीख रहे हैं और नेशनल लेवल तक खेल रहे हैं।

‘ओलंपिक निवास’ में जाधव की मौजूदगी का एहसास

जागरण डॉट कॉम की टीम जब गोलेश्वर-कराड़ पहुंची तो देखकर ही समझ में आ गया कि यह रेसलर दादासाहेब का गांव है। चौक-चौराहों पर ओलंपिक लोगो और उनके स्मारक बने हैं। गोलेश्वर में उनके घर को ‘ओलंपिक निवास’ नाम दे दिया गया है। निवास में प्रवेश करते ही महसूस हुआ जैसे हम किसी खास जगह आ गए हैं। 70 साल पहले देश को मिले ओलंपिक मेडल को छूकर तो जैसे गर्व की अनुभूति हुई। वह एहसास अपने आप में अनमोल है। हेलसिंकी ओलंपिक में उन्होंने जो ब्लेजर पहना था, उसे देखकर लगा जैसे वे हमारे इर्द-गिर्द ही कहीं हैं।

हेलसिंकी से पहले उन्होंने आजादी के ठीक बाद 1948 के लंदन ओलंपिक में भाग लिया था। साढ़े पांच फीट की सामान्य कद-काठी का होने के बावजूद फ्लाइवेट कैटेगरी में छठा स्थान हासिल कर उन्होंने सबको चौंका दिया था। उन्हें उसका भी मेडल मिला था। ढेर सारे ट्रॉफी-मेडल से सजा ‘ओलंपिक निवास’ खेल और देश के प्रति उनके जुनून को दर्शाता है। कुश्ती उनके खून में रची-बसी थी। पांच भाइयों में सबसे छोटे खाशाबा के पिता दादासाहेब जाधव भी अपने समय के जाने-माने रेसलर थे।

गांव में चाहे जिससे बात कीजिए, वह बड़े गर्व के साथ अपने ‘खाशाबा दादासाहेब’ की उपलब्धियां बताएगा। उनके साथ समय बिता चुके 73 साल के दौलतराम कहते हैं, “उनका सपना था कि गांव से और बड़े खिलाड़ी तैयार हों जो देश के लिए ओलंपिक मेडल लाएं। हर गांव में एक अखाड़ा या ट्रेनिंग सेंटर हो, कोच हो, जिससे युवा तैयार हो सकें।”

बच्चों में जाधव बनने का जुनून

खेल जगत में आज अधिकतर बच्चे क्रिकेटर बनना और पैसा कमाना चाहते हैं, लेकिन गोलेश्वर-कराड़ के बच्चे जाधव बनना चाहते हैं। उनकी तमन्ना देश के लिए ओलंपिक पदक लाने की है। जाधव 11 किलोमीटर पैदल चलकर कराड़ के जिस तिलक हाईस्कूल में पढ़ने जाते थे, वहां के 35 छात्र अभी रेसलिंग सीख रहे हैं। इनमें 10 तो राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर खेल रहे हैं।

स्कूल के प्रधानाध्यापक अहिरे जीजी ने बताया कि यहां 10 साल से खाशाबा दादासाहेब के नाम से अकादमी चलाई जा रही है। यहां पूरे कराड़ के बच्चों को ट्रेनिंग दी जाती है। यहां अखाड़े में सुबह-शाम तीन-तीन घंटे की प्रैक्टिस होती है। केडी के बेटे रंजीत जाधव ने इस स्कूल के किसी भी बच्चे के राष्ट्रीय मेडल जीतने पर 25 हजार रुपये का इनाम देने की घोषणा की है।

सरल, पर स्वाभिमानी व्यक्ति थे

51 साल के रंजीत जाधव बताते हैं, “जब पिताजी का निधन हुआ, मैं सिर्फ 13 साल का था। तब मुझे यह एहसास नहीं था कि वे इतने खास और महान इंसान थे। बड़ा हुआ तो उनकी उपलब्धि का महत्व समझा और उनके सम्मान के लिए लगातार प्रयास करता रहा।”

बकौल रंजीत, मां ने बताया कि पिता बेहद सरल और स्वाभिमानी व्यक्ति थे। उन्हें न तो अपनी उपलब्धि पर कोई घमंड था, न ही इसे लेकर किसी से कुछ मांगना चाहते थे। उनका एक ही सपना था कि रेसलिंग के लिए अपने गांव, राज्य और देश से युवाओं को तैयार करें जो देश के लिए और मेडल ला सकें। उनके सपने को रंजीत पूरा करने का प्रयास कर रहे हैं। उनकी जीवनी पर फिल्म बन रही है, जिसके जरिए वे पिता का संघर्ष और उनकी उपलब्धियां दिखाना चाहते हैं।

रंजीत के अनुसार, 23 जुलाई 1952 को मिला ओलंपिक पदक कितना महत्व रखता है, यह उन्हें तब पता चला जब 44 साल बाद 1996 में लिएंडर पेस ने अटलांटा ओलंपिक में टेनिस में कांस्य पदक जीता। वे कहते हैं, “इसके बाद अचानक मेरे पिता देश में सेलिब्रिटी बन गए, क्योंकि उससे पहले देश के लिए एकमात्र सिंगल पदक उन्होंने ही जीता था। लेकिन अपनी मशहूरियत को देखने के लिए वे दुनिया में नहीं थे।”

उन्हें 2001 में मरणोपरांत खेल के सबसे बड़े पुरस्कार अर्जुन आवार्ड से सम्मानित किया गया। कराड़ के विजय शंदे बताते हैं, “दादासाहेब की उपलब्धि 70 साल बाद भी हमें प्रेरित कर रही है। वे सिर्फ कुश्ती में नहीं, बल्कि छह से ज्यादा खेलों में चैंपियन थे।” जाधव एकमात्र ओलंपिक पदक विजेता हैं जिन्हें पद्म पुरस्कार नहीं मिला।

जाधव के नाम स्टेडियम और सड़कें

रंजीत ने बताया कि 1984 में जब उनका बाइक एक्सीडेंट हुआ तो कम लोग ही जानते थे कि वे इतने बड़े एथलीट रह चुके हैं। ओलंपिक के बाद वे पुलिस में इंस्पेक्टर पद पर भर्ती हुए और रिटायरमेंट के समय असिस्टेंट कमिश्नर पद पर थे। उनके नाम पर महाराष्ट्र सरकार 1997 से राष्ट्रीय कुश्ती टूर्नामेंट आयोजित कर रही है। उनकी जन्मतिथि (15 जनवरी) को राज्य सरकार ने खेल दिवस घोषित कर रखा है।

हरियाणा के साई सेंटर में रेसलिंग कोर्ट का नाम उनके नाम पर ही रखा गया है। 2010 में दिल्ली में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में भी इंटरनेशनल रेसलिंग स्टेडियम का नाम उनके नाम पर रखा गया था। कराड़ स्थित पुलिस चौकी उनके नाम पर है। 2015 में कराड़ निगम ने 55 लाख रुपये में उनका स्मारक बनाने के साथ चौक का नामकरण भी किया। दिल्ली और पुणे में भी उनके नाम पर रोड हैं। 2022 में पुणे के सावित्रीबाई फुले विद्यापीठ में खाशाबा जाधव क्रीड़ा संकुल का नामकरण उनके नाम पर ही किया गया है। वहां उनकी प्रतिमा भी लगाई गई है।

वे रेसलिंग के पितामह थेः रेसलर राहुल अवारे

आज केडी जाधव भारतीय एथलीट, खासकर रेसलिंग खिलाड़ियों के प्रेरणास्रोत हैं। कॉमनवेल्थ 2018 में देश के लिए गोल्ड और 2019 में विश्व कुश्ती चैंपियनशिप में कांस्य पदक जीत चुके रेसलर राहुल अवारे कहते हैं, “हर अखाड़े में उनके संघर्ष से लेकर सफलता तक की कहानियां सुनाई जाती हैं। उनसे प्रेरित होकर ही हम इस खेल में आए। हमारे कोच और गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि उनके पास प्रैक्टिस के लिए मैट या गद्दा नहीं होता था, तो वे पुराना कपड़ा ही बिछाकर प्रैक्टिस करते थे। वे हमारी रेसलिंग के पितामह हैं।”

अवारे अभी पुणे पुलिस में डीएसपी हैं और 2024 ओलंपिक की तैयारी में लगे हैं। वे बताते हैं, “महाराष्ट्र में 1500 से ज्यादा अखाड़े हैं। प्रदेश में हर कुश्ती प्रतियोगिता उनके नाम से ही शुरू की जाती है। मिल्खा सिंह की तरह जाधव जी का जीवन भी प्रेरणादायी है।”

जाधव ने दिखाई राह, सबसे ज्यादा पदक कुश्ती में ही

यह शायद जाधव की उपलब्धि का ही असर है कि अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में भारत को सबसे ज्यादा सफलता कुश्ती में मिली है। वैसे तो भारत को आजादी के बाद ओलंपिक में सबसे ज्यादा आठ पदक हॉकी में मिले, लेकिन वह टीम गेम है। सिंगल गेम में सबसे ज्यादा सात पदक कुश्ती में ही मिले हैं। इसके बाद शूटिंग (4), बैडमिंटन (3) और वेटलिफ्टिंग (2) का स्थान है। कॉमनवेल्थ गेम्स में भी भारत ने सबसे ज्यादा 114 पदक रेसलिंग में ही जीते हैं। इनमें 49 स्वर्ण, 38 रजत और 27 कांस्य पदक हैं। जाधव के 1952 में ओलंपिक में कांस्य जीतने के बाद 1958 के कॉमनवेल्थ गेम्स में रेसलर लीलराम सांगवान ने स्वर्ण और लक्ष्मी कांत पांडे ने रजत पदक जीता था।