फोरेंसिक जांच का बढ़ता महत्व, वैश्वीकरण के दौर में तकनीक की भूमिका
हाल में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि केंद्र सरकार का लक्ष्य छह साल से अधिक की सजा वाले अपराध के लिए फोरेंसिक जांच को अनिवार्य और कानूनी बन ...और पढ़ें

सीबीपी श्रीवास्तव। भारत सरकार अपराध विधि में बड़े पैमाने पर बदलाव लाने के प्रति कटिबद्ध है, जिसका संकेत देते हुए हाल में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि स्वतंत्र भारत की नई आवश्यकताओं को देखते हुए भारतीय दंड संहिता-1860, आपराधिक प्रक्रिया संहिता-1973 तथा साक्ष्य कानून-1872 में बड़ा बदलाव करना अनिवार्य हो गया है। सरकार इस संबंध में विगत ढाई वर्षों से विशेषज्ञों के साथ विचार विमर्श कर रही है। ऐसे बदलाव अपराध के उन मामलों में अनिवार्य होंगे जिनमें सजा की अवधि छह वर्ष से अधिक है। ऐसे मामलों में फोरेंसिक जांच अनिवार्य होगी। कारण यह कि वैज्ञानिकता के आधार पर दंडित करना न्याय प्रणाली का मूल आधार होना चाहिए। इसका एक बड़ा लाभ यह भी होगा कि पुलिस हिरासत में जो थर्ड डिग्री का प्रयोग किया जाता रहा है, उससे अलग हट कर वैज्ञानिक साक्ष्यों से किसी अभियुक्त को दोषसिद्ध करने से न्याय उपलब्धता अधिक कारगर होगी।
भारत में आपराधिक न्याय तंत्र : सरकार के ऐसे प्रस्ताव की व्यवहार्यता समझने के लिए यह आवश्यक है कि हम पहले भारत में आपराधिक न्याय तंत्र को समझ लें और फिर फोरेंसिक जांच और उससे संबंधित कानूनी प्रविधानों पर विचार करें। आपराधिक न्याय प्रणाली उन प्रक्रियाओं, निकायों और संस्थानों का समूह है, जो सामाजिक नियंत्रण की रक्षा या उसे दोबारा स्थापित करती है। इसे सामाजिक व्यवहारों, लोगों में होने वाले विचलन और समाज को भयभीत और आतंकित करने वाले सभी कार्यों को संगठित रूप से संबोधित करने वाली एक प्रणाली भी कहा जा सकता है। आपराधिक न्याय प्रणाली में पुलिस, अभियोजन, न्यायालय तथा जेल शामिल हैं। प्रणाली के इन अवयवों का उद्देश्य केवल अपराधी को दंडित करना नहीं है, बल्कि यह समाज को शांतिपूर्ण बनाए रखने के लिए अपराधों पर नियंत्रण रखने का प्रयास भी करती है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि आपराधिक न्याय प्रणाली तभी कारगर मानी जाती है जब अभियुक्त और पीड़ित के अधिकारों के बीच संतुलन बनाया गया हो और बिना किसी विद्वेष या पक्षपात के निर्णय दिया गया हो। एक संगठित और सुरक्षित समाज अच्छे और प्रभावी आपराधिक न्याय प्रणाली पर निर्भर करता है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 20 के तीनों खंड आपराधिक न्याय प्रणाली को आधार देते हैं।
फोरेंसिक विज्ञान का अर्थ : फोरेंसिक विज्ञान का अर्थ आपराधिक जांच के दौरान पुलिस द्वारा वैज्ञानिक तकनीकों और पद्धतियों का अनुप्रयोग है। विशेषकर साक्ष्यों के विश्लेषण के लिए चिकित्सा, भौतिकी, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान, डीएनए प्रोफाइलिंग, कंप्यूटर और अभियांत्रिकी की तकनीकों का प्रयोग किया जाता है। रक्त के बिखराव के ब्लूप्रिंट को पहचानने के लिए भौतिकी, अज्ञात संदिग्ध के आधार को स्थापित करने के लिए जीव विज्ञान और दवाओं की रासायनिक संरचना की जानकारी के लिए रसायन विज्ञान का प्रयोग होता है। ऐसी स्थिति में यह कहना उपयुक्त होगा कि साक्ष्यों के विश्लेषण में फोरेंसिक विज्ञान अत्यंत महत्वपूर्ण है। बांबे राज्य बनाम काठीकालू ओघड़-1961 मामले में न्यायालय ने कहा है कि अभियुक्त द्वारा अंगूठे का निशान, नमूना हस्ताक्षर, रक्त, बाल, वीर्य आदि देना अनुच्छेद 20 (3) के अर्थ में 'साक्षी होने' का अवयव नहीं है। इसलिए अभियुक्त को जांच और परीक्षण के प्रयोजनों के लिए डीएनए जांच पर आपत्ति करने का कोई अधिकार नहीं है। इसी प्रकार रामचंद्र रेड्डी बनाम महाराष्ट्र राज्य-2004 मामले में न्यायालय ने पी-300 तरंगों के विश्लेषण या ब्रेन मैपिंग, फिंगर-प्रिंटिंग, लाई-डिटेक्टर टेस्ट और नार्को विश्लेषण के उपयोग को वैध कहा है। हालांकि यह भी सत्य है कि ब्रेन मैपिंग और पालीग्राफी परीक्षण जांच को पूर्णत: सत्यापित नहीं करते हैं। अत: न्यायालय ने बिना अनुमति के इनके प्रयोग को असंवैधानिक माना है।
आपराधिक प्रक्रिया संहिता-1973 की धारा 53 में प्रविधान है कि गिरफ्तारी पर अभियुक्त व्यक्ति का चिकित्सकीय परीक्षण किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए यह अनिवार्य है कि ऐसे परीक्षण से पर्याप्त साक्ष्य के प्राप्त होने के प्रति विश्वास करने का उचित आधार मौजूद हो। वर्ष 2005 में संहिता में संशोधन किया गया था और यह प्रविधान किया गया कि ऐसे विश्लेषण में डीएनए प्रोफाइलिंग सहित अन्य आधुनिक तकनीकों के उपयोग से रक्त, रक्त-दाग, वीर्य, यौन अपराधों के मामले में स्वैब, थूक और पसीना, बालों के नमूने और अंगुलियों के नाखून की कतरन की जांच शामिल होगी, लेकिन इसके लिए एक पंजीकृत चिकित्सक की सहमति अनिवार्य होगी।
साक्ष्यों की न्यायालय में स्वीकार्यता का प्रश्न : जहां तक फोरेंसिक जांच के दौरान प्राप्त साक्ष्यों की न्यायालय में स्वीकार्यता का प्रश्न है तो कई कानूनों पर विचार करना आवश्यक है। जैसे आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-53 और 54 में चिकित्सक द्वारा पर्याप्त साक्ष्यों की उपलब्धता की संभावनाओं के आधार पर ऐसी जांच की अनुमति है। इसी संहिता की धारा-293 न्यायालय में विशेषज्ञ राय की स्वीकार्यता के लिए कुछ सरकारी विशेषज्ञों को सूचीबद्ध करती है। साथ ही भारतीय दंड संहिता की धारा-45 फोरेंसिक विज्ञान के किसी भी क्षेत्र में विशेषज्ञ की राय को प्रासंगिकता प्रदान करती है, ताकि तकनीकी रूप से जटिल और परिष्कृत मामलों पर निर्णय लेने में न्यायालय की सहायता की जा सके।
ध्यातव्य हो कि मनोविज्ञान भी कानूनी कार्यवाही में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। फोरेंसिक मनोविज्ञान किसी मामले के प्रसंस्करण में बहुत महत्वपूर्ण है। हाल के समय में अपराधों के पीछे की मानसिकता समझने में ऐसे मनोविज्ञान का महत्व बढ़ गया है। ऐसी स्थिति में फोरेंसिक तकनीकों का प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण है। न्यायालय में फोरेंसिक मनोविज्ञान की स्वीकार्यता से संबंधित तीन विशिष्ट कानून हैं। भारतीय दंड संहिता की धारा-84 विकृत चित्त व्यक्ति के कृत्यों से संबंधित है। जबकि भारतीय पागलपन अधिनियम-1912 में पागलपन के कारणों और उसे परिभाषित करने से संबंधित प्रविधान हैं और मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम-1987 में मानवाधिकारों की रक्षा को ध्यान में रखते हुए मानसिक रूप से बीमार लोगों के लिए आतिथ्य और उपचार में सुधार के उपबंध हैं। न्यायिक कार्यवाही में फोरेंसिक मनोविज्ञान का समावेश मानसिक स्थिति के आकलन, हिंसा की भविष्यवाणी और जोखिम प्रबंधन और तलाक के मामलों में बच्चे के संरक्षण और देख-भाल का आकलन करने में सहायता करता है। साथ ही यह किसी मुकदमे में अभियुक्त की सक्षमता की जांच में भी सहायक है।
साफ है छह वर्ष से अधिक की सजा वाले अपराधों में फोरेंसिक जांच को अनिवार्य बनाने वाले इस प्रस्ताव पर अमल करने और कानूनों में आवश्यक संशोधनों के बाद निश्चित रूप से इस क्षेत्र में कौशलयुक्त मानव संसाधन आवश्यक होगा। यह देश में शिक्षा के इस नए क्षेत्र का विस्तार तो करेगा ही, प्रशिक्षित लोगों के लिए रोजगार के नए अवसरों का सृजन भी करेगा। सबसे बड़ी बात यह होगी कि आने वाले समय में भी जब अपराधियों द्वारा अत्याधुनिक तकनीकों का सहारा लेकर अपराधों को अंजाम देने की आशंकाएं बढ़ रही हैं, तब फोरेंसिक विज्ञान और तकनीकों की समझ से अपराधियों को दंड देने में सरलता होगी और देश में आपराधिक न्याय प्रणाली को और सुद्दढ़ तथा एक जीवंत प्रणाली बनाए रखने में मददगार साबित होगी।
प्रश्न यह है कि आखिर ऐसे क्या परिवर्तन हो रहे हैं जिनके कारण फोरेंसिक जांच का महत्व बढ़ गया है। दरअसल आज बाजार और वैश्वीकरण के दौर में तकनीक की भूमिका व्यापक रूप से बढ़ गई है, जो अर्थव्यवस्था की संवृद्धि के लिए तो अत्यंत लाभकारी है, लेकिन इसका दूसरा पहलू अपराधों में तकनीक के बढ़ते प्रयोग से भी संबंधित है। हाल के वर्षों में जिस प्रकार साइबर अपराधों की संख्या बढ़ी है और असुरक्षा के माहौल में संवेदनशील वर्गों विशेषकर महिलाओं, बच्चों और वरिष्ठ नागरिकों के विरुद्ध आपराधिक मामले बढ़े हैं, उनको ध्यान में रखते हुए फोरेंसिक जांच के आधार पर अपराधियों को दंडित करना अनिवार्य हो गया है।
हाल के दिनों में जागरूकता और सतर्कता में वृद्धि के साथ अधिकांश आपराधिक जांच और परीक्षण मानक प्रोटोकाल और मामलों की उचित कार्यवाही के लिए फोरेंसिक विज्ञान पर निर्भर हैं। हालांिक फोरेंसिक विज्ञान के प्रति अब भी पर्याप्त जागरूकता नहीं है। ऐसी स्थिति में सबसे पहली जरूरत तो इसके प्रति लोगों में जागरूकता फैलाने की होनी चािहए। ऐसा होने पर ही इस तकनीक का अधिकाधिक प्रयोग होगा। एक अच्छी बात यह है कि भारत में मौजूदा कानून न्यायालय में फोरेंसिक साक्ष्य को स्वीकार्य होने की अनुमति देते हैं।
इस संदर्भ में भारत सरकार के प्रस्ताव को इस दिशा में सकारात्मक दृष्टिकोण से प्रेरित कहा जाना चाहिए। फोरेंसिक विज्ञान को विस्तृत करने के लिए बड़ी संख्या में मानव संसाधन की आवश्यकता होगी। साथ ही जांच और परीक्षण के लिए नई प्रयोगशालाओं की भी आवश्यकता है। वर्तमान में देश भर में कुल सात केंद्रीय फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशालाएं हैं, जो हैदराबाद, कोलकाता, चंडीगढ़, नई दिल्ली, गुवाहाटी, भोपाल और पुणे में अवस्थित हैं। इसके अतिरिक्त गांधीनगर में राष्ट्रीय फोरेंसिक विज्ञान विश्वविद्यालय कार्यरत है। हाल में भोपाल, दिल्ली, गोवा, त्रिपुरा और गुवाहाटी में नए परिसर भी खोले गए हैं। इन कदमों से यह प्रतीत होता है कि सरकार तकनीक के प्रयोग से न केवल अपराधों की जांच को प्रोत्साहित करना चाहती है, बल्कि सुरक्षा और पुलिस एजेंसियों को अपराधियों द्वारा किए जाने वाले तकनीक-समर्थित अपराधों की समझ के प्रति अत्यधिक संवेदनशील भी बनाना चाहती है।

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