सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का अहम फैसला, अग्रिम जमानत में तय समयसीमा जरूरी नहीं
फैसले में कोर्ट ने साफ किया है कि अग्रिम जमानत किसी भी तरह से पुलिस के जांच करने के अधिकार को सीमित नहीं करती। ...और पढ़ें

जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में कहा है कि अग्रिम जमानत में हमेशा समयसीमा तय होना जरूरी नहीं है, अग्रिम जमानत ट्रायल पूरा होने तक जारी रह सकती है। हालांकि कोर्ट ने कहा है कि अग्रिम जमानत देने वाली अदालत को केस की परिस्थितियां देखते हुए जरूरी लगे तो वह समयसीमा तय कर सकती है। बुधवार को सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने अग्रिम जमानत से जुड़े कानूनी सवालों का जवाब देते हुए यह व्यवस्था दी।
अग्रिम जमानत के तहत मिला संरक्षण हमेशा समयसीमा का नहीं होता
न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, इन्दिरा बनर्जी, विनीत सरन, एमआर शाह और एस रविन्द्र भट्ट की पीठ ने अग्रिम जमानत की समयसीमा के बारे में संविधान पीठ को भेजे गए कानूनी प्रश्नों का जवाब देते हुए अपने फैसले में कहा है कि सीआरपीसी की धारा 438 (अग्रिम जमानत (गिरफ्तारी से संरक्षण)) के तहत मिला संरक्षण हमेशा किसी तय समयसीमा का नहीं होता।
अग्रिम जमानत की समय सीमा ट्रायल समाप्त होने तक जारी रह सकती
कोर्ट ने कहा कि अग्रिम जमानत की समय सीमा सामान्यतौर पर अभियुक्त को अदालत से सम्मन जारी होने या आरोप तय होने पर खत्म नहीं होती बल्कि यह ट्रायल समाप्त होने तक जारी रह सकती है। हालांकि कोर्ट ने साफ किया कि अगर मामले में कुछ विशिष्ट परिस्थितियां और जरूरत लगे तो अदालत को अग्रिम जमानत की समयसीमा तय करने का अधिकार है और अदालत ऐसा कर सकती है।
कोर्ट अग्रिम जमानत में समयसीमा भी तय कर सकता है
कोर्ट ने यह भी कहा है कि अपराध को देखते हुए विशिष्ट परिस्थितियों में कोर्ट सामान्य जमानत के मामलों की तरह अग्रिम जमानत में भी शर्ते तय कर सकता है। कोर्ट उसकी समयसीमा भी तय कर सकता है।
अग्रिम जमानत में समयसीमा के बारे में पांच जजों की पीठ ने दी नई व्यवस्था
अग्रिम जमानत में समयसीमा के बारे में सुप्रीम कोर्ट के दो पूर्व फैसलों में दी गई व्यवस्था में अंतर होने पर तीन न्यायाधीशों की पीठ ने यह कानूनी मुद्दा विचार के लिए पांच न्यायाधीशों की बड़ी पीठ को भेजा था जिसका जवाब देते हुए कोर्ट ने यह व्यवस्था दी है। इतना ही नहीं संविधान पीठ ने अग्रिम जमानत देते वक्त अदालतों को ध्यान में रखने की बातें भी फैसले में बताई हैं।
अग्रिम जमानत की अर्जी ठोस तथ्यों पर आधारित हो
कोर्ट ने फैसले में कहा है कि जब कोई व्यक्ति गिरफ्तारी की आशंका जताते हुए संरक्षण के लिए अग्रिम जमानत की अर्जी दाखिल करे तो कोर्ट को ध्यान देना चाहिए की अर्जी ठोस तथ्यों पर आधारित हो अर्जी में सामान्य या सतही बातें न की गई हों। अर्जी में अपराध से जुडे़ जरूरी तथ्यों को देते हुए यह भी बताया गया हो कि अभियुक्त को गिरफ्तारी की आशंका क्यों है और उसका इस बारे में क्या कहना है या उसकी क्या सफाई है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अग्रिम जमानत अर्जी पर सुनवाई करने वाली अदालत के लिए जरूरी है कि वह अर्जी में जताई गई आशंका का आंकलन करे उसकी गंभीरता, और अन्य पहलुओं को जांचते परखते हुए यह देखे कि क्या उचित शर्ते लगाई जानी चाहिए।
अग्रिम जमानत की अर्जी एफआइआर दर्ज होने के बाद ही नहीं पहले भी दाखिल की जा सकती है
कोर्ट ने फैसले में यह भी कहा है कि है कि यह जरूरी नहीं है अग्रिम जमानत की अर्जी सिर्फ एफआइआर दर्ज होने के बाद ही दाखिल की जाएगी, अग्रिम जमानत की अर्जी पहले भी दाखिल की जा सकती है। जब भी व्यक्ति को गिरफ्तारी की आशंका हो उसके आधार पर दाखिल हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने अदालतों को सलाह देते हुए कहा है कि ऐसी स्थिति में अदालत गिरफ्तारी की आशंका और गंभीरता का आंकलन करते हुए सरकारी वकील (लोक अभियोजक) को नोटिस जारी कर मामले के तथ्य मंगा कर देख सकती हैं, यहां तक की सीमित अग्रिम जमानत देते वक्त भी।
कोर्ट पर यह शर्त नहीं है कि वह अग्रिम जमानत देते वक्त समयसीमा तय करे
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सीआरपीसी की धारा 438 (अग्रिम जमानत (गिरफ्तारी से संरक्षण)) में कोर्ट पर यह शर्त नहीं है कि वह अग्रिम जमानत देते वक्त समयसीमा तय करे। या फिर उसमें एफआईआर दर्ज होने अथवा पुलिस की जांच में गवाहों के बयान दर्ज होने आदि की शर्त हो। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अग्रिम जमानत देते वक्त कोर्ट अपराधी की प्रकृति, अभियुक्त की भूमिका और उसके जांच प्रभावित करने अथवा उससे छेड़छाड़ करने की संभावनाओं या फिर अभियुक्त के देश छोड़ कर भागने की संभावना पर विचार करेगा। कोर्ट प्रत्येक मामले को देखते हुए और जांच एजेंसी द्वारा मुहैया समाग्री के आधार पर केस टु केस कोई भी शर्त लगा सकता है लेकिन कोर्ट रुटीन के तौर पर हर मामले में हमेशा ऐसा नहीं कर सकता।
अग्रिम जमानत देते समय अपराध की गंभीरता, अभियुक्त की भूमिका को देखना चाहिए
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अग्रिम जमानत देते समय अदालतों को सामान्य तौर पर अपराध की गंभीरता, अभियुक्त की भूमिका और मामले के तथ्यों को देखकर यह तय करना चाहिए कि अग्रिम जमानत दी जानी चाहिए कि नहीं। अग्रिम जमानत दी जाए या नहीं यह अदालत का विवेकाधिकार है जो कि मामले के तथ्यों पर निर्भर करता है। सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि अभियुक्त मिली अग्रिम जमानत आरोपपत्र दाखिल होने के बाद भी ट्रायल खत्म होने तक जारी रहना अभियुक्त के आचरण पर निर्भर हो सकता है।
अग्रिम जमानत का आदेश ब्लैंकेट नहीं हो सकता
कोर्ट ने कहा है कि अभियुक्त को मिली अग्रिम जमानत का आदेश ब्लैंकेट (सभी मामलों में समान) नहीं हो सकता, यानी कोई अभियुक्त अग्रिम जमानत मिलने के बाद दूसरा अपराध करके गिरफ्तारी से छूट के अग्रिम जमानत के आदेश का सहारा नहीं ले सकता। अग्रिम जमानत का आदेश एक निश्चित अपराध और घटना तक सीमित होता है जिसमें गिरफ्तारी की आशंका जताते हुए संरक्षण लिया गया था। यह संरक्षण भविष्य की घटनाओं या अपराधों पर लागू नहीं होगा।
अग्रिम जमानत पुलिस के जांच करने के अधिकार को सीमित नहीं करती
फैसले में कोर्ट ने साफ किया है कि अग्रिम जमानत किसी भी तरह से पुलिस के जांच करने के अधिकार को सीमित नहीं करती। कोर्ट ने कहा है कि अभियुक्त के जमानत की शर्तो का उल्लंघन करने जांच प्रभावित करने या सहयोग न करने आदि की स्थिति में पुलिस को अदालत के पास जाकर अग्रिम जमानत या जमानत रद कर गिरफ्तारी की इजाजत मांगने का अधिकार है। पुलिस या जांच एजेंसी की अर्जी पर अपीलीय अदालत या उच्च अदालत अग्रिम जमानत की समीक्षा कर सकती है और उसे रद भी कर सकती है।

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