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    'सभी खाड़ी देशों में युद्ध फैला तो 90 लाख भारतीयों की सुरक्षा भी दांव पर होगी', खास बातचीत में बोले नवदीप सिंह सूरी

    इजरायल-ईरान युद्ध को लेकर बनी परिस्तिथितियों बीच भारत के लिए गंभीर कूटनीतिक परीक्षा की घड़ी है। तीन खाड़ी देशों सऊदी अरब, संयुक्त अमीरात और कुवैत में भारत के पूर्व राजदूत रहे नवदीप सिंह सूरी कहते हैं कि भारत के लिए किसी एक के पक्ष में खड़े होना न तो संभव है और न हित में। दोस्ती निभाने के साथ-साथ हमें सही-गलत के पैमाने पर भी खरा उतरना होगा। इन सभी मुद्दों पर दैनिक जागरण की समाचार संपादक रुमनी घोष ने उनसे विस्तार से चर्चा की।

    By Jagran News NetworkEdited By: Abhinav Tripathi Updated: Sat, 21 Jun 2025 06:52 PM (IST)
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    नवदीप सिंह सूरी, भारत के पूर्व राजदूत।

    रुमनी घोष, नई दिल्ली। इजरायल-ईरान युद्ध को लेकर बनी परिस्थितियां भारत के लिए गंभीर कूटनीतिक परीक्षा की घड़ी है। इजरायल हमारा मित्र देश है तो ईरान से सदियों पुराना रिश्ता है। तीन खाड़ी देशों- सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और कुवैत में भारत के राजदूत रहे नवदीप सिंह सूरी कहते हैं कि भारत के लिए किसी एक के पक्ष में खड़ा होना न तो संभव है और न ही हित में।

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    दोस्ती निभाने के साथ-साथ हमें सही-गलत के पैमाने पर भी खरा उतरना होगा। यदि युद्ध बढ़ा और आंच खाड़ी देशों तक पहुंची तो भारत को किन-किन चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा? भारत की घरेलू तैयारी और वैश्विक कूटनीति क्या हो? इन सभी मुद्दों पर दैनिक जागरण की समाचार संपादक रुमनी घोष ने उनसे विस्तार से चर्चा की।

    उन्होंने बताया कि हम इजरायल का साथ नहीं छोड़ सकते, लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि युद्ध में ईरान को इतनी क्षति भी नहीं पहुंचे कि वह झुंझलाकर खाड़ी देशों को युद्ध में शामिल करने पर आमादा हो जाए। भारत का 60 प्रतिशत ईंधन जिस रास्ते से आता है, उस रास्ते को सुरक्षित रखने के साथ-साथ खाड़ी देशों में रह रहे 90 लाख भारतीयों की सुरक्षा की भी चिंता हमें करनी होगी। घरेलू तैयारी के लिए सरकार को सेना का बजट बढ़ाना होगा और आने वाले पांच-दस सालों में भारतीय राजनयिकों को कूटनीति का दायरा भी बढ़ाना होगा।

    पूर्व राजदूत सूरी को यूएई के राष्ट्रपति ने 'ऑर्डर ऑफ जायद-ll' से सम्मानित किया, जो उस देश का दूसरा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान है। अपने 36 साल के लंबे करियर में उन्होंने काहिरा, दमिश्क, वाशिंगटन, दार ए सलाम और लंदन में भारत के राजनयिक मिशनों में सेवाएं दी। जोहान्सबर्ग में भारत के महावाणिज्य दूत के साथ-साथ विदेश मंत्रालय में पश्चिम अफ्रीका और सार्वजनिक कूटनीति विभागों का नेतृत्व भी किया है।

    साथ ही ऑस्ट्रेलिया में भारत के उच्चायुक्त भी रहे हैं। लेखन में भी उनकी रुचि रही है। उन्होंने अपने दादा नानक सिंह के क्लासिक पंजाबी उपन्यासों द वाचमेकर, ए लाइफ इनकंप्लीट और खूनी बैसाखी का अंग्रेजी में अनुवाद किया। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंशः



    इजरायल और ईरान संघर्ष किस दिशा में जाता हुआ नजर आ रहा है?

    खतरनाक दिशा में... इसलिए कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के रवैये का कुछ पता नहीं चलता। आज वह कुछ कहते हैं...कल कुछ कह दें। मैंने 36 साल सरकार में बतौर राजनयिक काम किया। तीन देशों में राजदूत भी रहा हूं। उसके बाद और छह साल जुड़ा रहा।

    इस तरह से 42 साल के अनुभव में मैंने ऐसी मेगाफोन डिप्लोमेसी (प्रचार कूटनीति) नहीं देखी, जिसमें किसी सुपर पावर देश के फैसलों के बारे में इंटरनेट मीडिया पोस्ट से पता चलता हो। यहां तक कि उनके विदेश मंत्री, सुरक्षा सलाहकार और रक्षा मंत्री को भी पता नहीं होता है कि ट्रंप ने क्या पोस्ट कर दिया। वह भी पोस्ट पढ़ने के बाद दुनिया को समझाने की कोशिश करते हैं कि शायद राष्ट्रपति ट्रंप के कहने का यह आशय था। सच में बहुत ही अजीब स्थिति है।

    घरेलू फ्रंट से लेकर इजरायल-ईरान युद्ध तक ट्रंप की कूटनीति को कैसे देखा जा रहा है?

    निश्चित रूप से। इसके कई सबूत मिल रहे हैं। घरेलू परिदृश्य पर उनका रवैया देखें तो उन्होंने हार्वर्ड-कोलंबिया जैसे विश्वविद्यालयों से लड़ाई कर ली। शिक्षा मंत्रालय बंद कर दिया। अमेरिका के लिए गुडविल तैयार करने वाला यूएसएआइडी कार्यक्रम बंद कर दिया। वैश्विक फ्रंट पर भी आधे दर्जन देशों के खिलाफ उन्होंने अलग-अलग तरीके से मोर्चा खोल रखा है।

    कनाडा को 51 स्टेट बनाने और ग्रीनलैंड को खरीदने की बात कह दी। इजरायल-ईरान युद्ध इसी कड़ी का एक और बड़ा हिस्सा है। सब कुछ अनहोनी है। इसके साथ ही मैं आपके पहले सवाल पर लौटता हूं कि युद्ध किस दिशा में जा रहा है?...तो इसका जवाब सिर्फ ट्रंप ही दे सकते हैं।

    वर्तमान में दुनिया में 60 देश अलग-अलग कारणों से आपस में छोटी-बड़ी लड़ाई में उलझे हुए हैं। यूक्रेन-रूस के बीच भी तीन साल से युद्ध चल रहा है, लेकिन इजरायल-ईरान के संघर्ष को लेकर दुनिया इतनी चिंतित क्यों हैं?

    आज की स्थिति में खाड़ी देशों में से इजरायल ही एकमात्र ऐसा देश है, जिसके पास परमाणु बम है। ईरान दूसरा देश है, जिस पर आरोप है कि वह परमाणु बम बनाने की कोशिश कर रहा है। परमाणु संपन्न एक देश यह कहकर हमला कर रहा है कि उसे उस देश से खतरा है, जो परमाणु बम बनाने की कोशिश कर रहा है। यह अजीब परिस्थिति है। वैश्विक स्तर पर किन्हीं नियम-शर्तों का पालन नहीं हो रहा है। आपको याद होगा हाल ही में कनाडा में हुई जी-7 की बैठक के घोषणा-पत्र को देखें तो रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान शामिल सभी देश कह रहे थे कि हर देश की सीमा का सम्मान होना चाहिए। इसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता है। उन्होंने रूस के हमले को गलत ठहराया था, लेकिन जब इजरायल ने हमला किया तो चुप रहकर एक तरह से इसे अस्तित्व पर खतरा और सुरक्षा का अधिकार बताने में जुटे हैं।


    पहले गाजा और अब ईरान पर हमले को बड़ा वर्ग सही नहीं ठहरा पा रहा है। क्या इजरायल वैश्विक समर्थन खो रहा है?

    ऐसा है... और होना भी चाहिए। इसमें कोई शक नहीं है कि हमास ने 7 अक्टूबर 2023 को इजरायल पर आतंकी हमला कर 1100-1200 इजरायली नागरिकों को मार दिया था, वह बिल्कुल गलत था। उसके खिलाफ इजरायल को पलटवार करने का पूरा अधिकार था। उसके लिए वैश्विक स्तर पर समर्थन भी मिला, लेकिन पलटवार किस हद तक हो, इसकी भी कोई सीमा होनी चाहिए। 55 हजार फलीस्तीनियों को मारा दिया जाए, जिसमें से दो-तिहाई महिलाएं और बच्चे थे।

    एक बड़े वर्ग को भुखमरी के लिए विवश करें। पानी बंद कर दिया जाए। किसी अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत किसी भी देश को इस तरह का व्यवहार करने का हक नहीं है। दरअसल, इजरायल की अपनी एक बुनियाद थी। जर्मनी और यूरोप ने उन पर (यहूदियों) पर भीषण अत्याचार किया था और 40-50 हजार यहूदियों का सामूहिक संहार किया था। उस दर्दभरे इतिहास को भूलकर इजरायल वही दर्द दूसरे देश के नागरिकों को दे रहा है।

    लेकिन इजरायल एकमात्र देश है, जो हमेशा भारत के साथ खड़ा रहा। कारगिल हो या आपरेशन सिंदूर में हथियार उपलब्ध करवाए। भारत के लिए उसका विरोध मुश्किल नहीं है क्या?

    विदेश नीति के दो पहलू होते हैं- प्रैगमैटिक, यानी व्यावहारिक और एथिकल या मारल, यानी नैतिक। व्यावहारिक पहलू के अनुसार इजरायल हमारा दोस्त है और उसने जरूरत के समय हमारी मदद की है। हमें उसका पूरा समर्थन करना चाहिए। अब नैतिक पहलू की बात करें तो भारत की अपनी एक प्रथा रही है। हम सही और गलत के बीच चुनाव करते रहते हैं। हमारी महत्त्वाकांक्षा भी रही है कि हम 'ग्लोबल साउथ' का नेतृत्व करें।

    जी-20 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 'वाइस आफ ग्लोबल साउथ' का इरादा भी रखा था। ग्लोबल साउथ में बहुत सारे देश हैं, जिनमें ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका जैसे बहुत से देश इजरायल की जमकर निंदा कर रहे हैं, लेकिन हम खामोश हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि एक, सही-गलत का दायरा है और दूसरा, अंतरराष्ट्रीय कानून। बेशक हमें इजरायल का सीधे तौर पर विरोध नहीं करना चाहिए, लेकिन हमारी विदेश नीति में कुछ एेसा संतुलन होना चाहिए कि दुनिया को यह लगे कि हम किसी देश या उनके लोगों के जायज हक के समर्थन में हैं।

    इंटरनेशनल कोर्ट आफ जस्टिस के 15 में से 14 जजों ने अपने अनुभव व गहन अध्ययन के आधार पर इजरायल की गतिविधि को गलत ठहराया। इसमें भारत के दलवीर सिंह भंडारी भी शामिल हैं। आज यदि हम अंतरराष्ट्रीय कानून का पालन नहीं करेंगे तो आने वाले दौर में कोई हमारे खिलाफ भी इसका उपयोग कर सकता है।

    यदि इजरायल इतना गलत है तो ईरान इस युद्ध में अकेला क्यों? क्यों अन्य खाड़ी देश साथ नजर नहीं आ रहे हैं? क्या शिया-सुन्नी विवाद कारण है?


    इसके लिए ईरान खुद जिम्मेदार है और शिया-सुन्नी विवाद अहम कारण है। ईरान की बीस साल में जो नीतियां रही हैं, इसमें उसने ईराक, बहरीन, सीरिया, लेबनान सहित अन्य देशों में रह रहे शिया समुदायों के जरिये वहां अस्थिरता पैदा करने की कोशिश की है। इन नीतियों की वजह से अरब देशों (ज्यादातर सुन्नी बहुल) में ईरान के खिलाफ बहुत रंजिश है। सऊदी अरब, संयुक्त अमीरात, ओमान, कतर ऊपर से तो कह रहे हैं कि बुरा हुआ और एेसा नहीं होना चाहिए, लेकिन मेरा अनुभव कहता है कि यदि आने वाले दिनों में ईरान में तख्तापलट हुआ तो उन्हें कोई खास दुःख नहीं होगा।

    यानी आप कह रहे हैं कि खामेनेई सरकार का तख्तापलट हो सकता है?

    अयातुल्लाह खामेनेई का तख्तापलट हो भी गया तो लंबे समय तक स्थायी नहीं रहेगा। अमेरिका ने अफगानिस्तान में सत्ता परिवर्तन करवाया, लेकिन तालिबान शासन दोगुनी ताकत से वापस आ गया। ईराक में सद्दाम हुसैन को खत्म कर तख्तापलट किया गया तो वहां 20 साल तक जंग चलती रही। सीरिया में सत्ता परिवर्तन करने की भरसक कोशिश की गई और पूरा देश तबाह हो गया।

    मेरे हिसाब से किसी शासन को सत्ता से उखाड़ना मुश्किल काम नहीं है, लेकिन जंग करने या करवाने वालों के पास क्या स्थायी विकासशील शासन स्थापित करने का भी कोई प्लान है क्या? ये घटनाएं साबित करती हैं कि इस तरह से सत्ता परिवर्तन की कोशिशें असफल ही रही हैं। आखिर तारीख से कुछ तो सीखना चाहिए।

    प्रगतिशील मुस्लिम देश क्या चाहते हैं?

    आज के दिन सऊदी अरब, ओमान, कतर, संयुक्त अमीरात में बहुत प्रोगेसिव लीडरशिप है। वे अपने देश, अपनी सोसायटी को इक्कीसवीं सदी में लेकर आए। वह हक दिए जाने की बात कर रहे हैं। सोसायटी की ट्रांसफार्मेशन हो रही है। वह तो अमेरिका, इजरायल, चीन और सारी दुनिया से यही कहेंगे या कहना चाहेंगे कि हमें हमारी परेशानियों के साथ छोड़ दो।

    हम अपनी समस्याएं खुद हल कर लेंगे...लेकिन वह होता नहीं है। बीते तीन-चार सालों से हम यह ट्रेंड देख भी रहे थे कि सऊदी अरब और ईरान, यूएई-ईरान, तुर्किये-सऊदी के बीच कूटनीतिक रिश्ते सुधर रहे थे, दूरियां घट रही थीं। इजरायल-ईरान युद्ध से इसमें झटका लगा है और यह प्रक्रिया अब 10-15 साल पीछे चली गई है।

    क्या युद्ध खाड़ी देशों के बीच फैल जाने से अमेरिका को फायदा है ?

    तत्काल तो नहीं, लेकिन लंबे समय में अमेरिका को इसका जरूर फायदा होगा। मिडिल ईस्ट के जरिये अमेरिका एक बार फिर खुद को दुनिया में सुपर पावर के रूप में पुनर्स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है।

    तो यह आशंका सही साबित हो सकती है कि अमेरिका इस युद्ध में शामिल होगा?

    इसकी आशंका इसलिए ज्यादा है, क्योंकि ईरान के फोर्दो परमाणु संयंत्र को खत्म करने के लिए जो जेवीयू, यानी ग्रेट बंकर बस्टर बम चाहिए, वह अमेरिका के पास ही है। इसके लिए जरूरी 15000 किलो वजनी बम को गिराने के लिए तैयार दुनिया का एकमात्र जहाज भी सिर्फ अमेरिका के पास ही है। कहा जा रहा है कि अमेरिका ने इस जहाज को युद्ध क्षेत्र पर तैनाती के लिए रवाना कर दिया है। हालांकि अमेरिका ने सोचने के लिए दो हफ्ते का समय मांगा है और ईरान ने फिलहाल बात करने से इन्कार कर दिया है।

    कहा तो यह जा रहा था कि सुपरपावर की अवधारणा खत्म हो रही है, क्योंकि कोई अमेरिका की बात मानने को तैयार नहीं ?

    नहीं, मुझे तो ऐसा नहीं लगता है। अमेरिका की तो पूरी कोशिश है कि सुपर पावर (एकमात्र सुपरपावर) की पोजिशन को बनाए रखने में जुटा हुआ है। अब तो वह रूस के बजाय चीन को प्रतिद्वंद्वी मान रहा है। खाड़ी देशों में इजरायल उसके लिए पार्टनर भी है और हथियार भी।

    अचानक इजरायल इतना आक्रामक क्यों हो गया? क्या यह सिर्फ नेतन्याहू की महात्वकांक्षा है?

    अचानक तो नहीं हुआ। इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू 33 साल से यही बात कह रहे हैं कि ईरान अभी परमाणु बम बनाने वाला है। अगले हफ्ते, अगले महीने, अगले साल में यह बनकर तैयार हो जाएगा और इन्हें खत्म करना पड़ेगा। दरअसल, नेतन्याहू को ईरान या वहां के परमाणु कार्यक्रमों से कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि वहां की हुकूमत से है।

    खामेनेई से है, क्योंकि वह इजरायल को मान्यता नहीं देता है। इसके अलावा जो गाजा में हो रहा है, वह नेतन्याहू सरकार को समर्थन देने वाले दो मंत्रियों (रक्षा व वित्त) के इशारों पर हो रहा है। वे बहुत ज्यादा कट्टर हैं। वे नेतन्याहू से अपनी सारी शर्तें मनवा रहे हैं। नेतन्याहू पर भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं और खुद को बचाए रखने के लिए उनका गद्दी पर बने रहना मजबूरी है।

    राजनीतिक परिदृश्य पर चर्चा करें तो क्या इन गतिविधियों की वजह से नेतन्याहू का उनके देश के भीतर ही विरोध हो रहा है ?

    बहुत विरोध था, लेकिन जंग की एक खूबी होती है कि यह सारे राजनीतिक दलों को एक कर देती है। इजरायल के थिंक टैंकों द्वारा किए गए सर्वे में जंग से पहले नेतन्याहू को मिल रहे समर्थन में भारी कमी आई थी। कहा जा रहा था कि चुनाव हुए तो वह हार जाएंगे। हालांकि ईरान से जंग शुरू होने के बाद इसमें काफी सुधार हुआ है। बावजूद इसके एक हफ्ते पहले हुए सर्वे में भी नेतन्याहू को बहुमत नहीं मिल रहा है।

    इजरायल भारत का मित्र देश है तो ईरान से गहरे संबंध है। इन स्थितियों में भारत की चुनौतियां?

    यदि ईरान उस स्थिति में पहुंच गया कि वर्तमान सरकार को अपनी सत्ता को बचाने के लिए कुछ खतरनाक उठाने पड़े तो भारत की अर्थव्यवस्था और खाड़ी देशों में रहने वाले भारतीयों पर बुरा असर पड़ सकता है। ईरान से आबुधाबी की दूरी 50-100 मील है। वह सऊदी अरब के जुबैर सहित अन्य इलाकों पर हमला कर आयल सेंटर्स को नुकसान पहुंचा सकते हैं।

    ईरान हार्मोस जलडमरू मध्य (अरब की खाड़ी में 33 किमी का एक संकरा एरिया, जहां से गुजरते हुए दुनिया का एक तिहाई तेल भारत सहित विभिन्न देशों में निर्यात होता है। ईरान, ईराक, कुवैत, सऊदी अरब, कतर का सारा तेल सप्लाय यहीं से होता है) पर कब्जा कर तेल सप्लाय रोक सकता है। ईराक-ईरान युद्ध के दौरान ईरान ऐसा कर चुका है। भारत का 60 प्रतिशत ईंधन इसी रास्ते से आती है। तेल की कीमतें एकाएक दो गुनी हो जाएंगी। यदि ऐसा होता है तो हमारे लिए कैस्ट्रोफी (तबाही जैसी स्थिति) बन सकती है। एक वाक्य में कहूं तो यह जंग किसी भी स्थिति में भारत के हित में नहीं है। खास तौर पर जंग में ईरान को इतना नुकसान नहीं होना चाहिए कि वह झुंझलाकर ऐसा कोई कदम उठाए। अभी तो हमने सिर्फ कुछ 110 भारतीयों को ईरान से बाहर निकाल पाए हैं। खाड़ी देशों में हमारे 90 लाख भारतीय हैं। भारत पर बाकी भारतीयों को भी सुरक्षित निकालने का दबाव रहेगा।

    युद्ध रोकने के लिए भारत को क्या करना चाहिए?

    भारत सीधे तौर पर न तो विरोध करेगा और न ही करना चाहिए। फिर भी भारत की विदेश नीति यही कहती है कि हमें युद्ध को रोकने के लिए सबसे बात करनी चाहिए। इजरायल हमारा मित्र देश है, फिर भी हमें उसे युद्ध रोकने की सलाह देना चाहिए। ईरान को भी समझाना चाहिए कि युद्ध किसी के हक में नहीं। यदि हमारी बात सुनी जाए तो हमें अमेरिका से भी बात करना चाहिए।

    क्या हमारे पास ऐसा कोई विकल्प है कि एशियाई देश मिलकर इस स्थिति से अपने आप को बचा लें?

    नहीं, हमारे पास कोई 'सिल्वर बुलेट' नहीं है। हमें पांच-सात साल काम करना पड़ेगा और भारतीय अर्थव्यवस्था को 10 ट्रिलियन डॉलर इकोनमी बनाने की ओर ले जाना ही होगा।


    बतौर वरिष्ठ राजनयिक आपके कनिष्ठों को तीन सलाह...

    भारतीय राजनयिक की भूमिका हर देश में वहां की परिस्थितियों के हिसाब से अलग-अलग होती है। सबके लिए एक जैसा संदेश देने का पक्षधर नहीं हूं। हां, आर्थिक कूटनीति (इकोनमिक डिप्लोमेसी) की अहमियत बढ़ती जाएगी। पहला, जो जिस देश में पदस्थ हैं, वहां से कोई खास तकनीक भारत को हासिल हो, जहां कीमती खनिज हैं, उसके लिए बाजार तैयार कर सकें। निवेश ला सकें।

    दूसरा, इंटरनेट मीडिया के दौर में कूटनीति का दायरा बहुत बढ़ गया है। सिर्फ उस देश की सरकार ही नहीं, बल्कि वहां के थिंक टैंक, सोसायटी, मीडिया, स्वयंसेवी संस्थाओं के बीच पैठ बढ़ाकर नेटवर्किंग करनी होगी। तीसरा, कई बार हम प्री मैच्योरली छाती ठोंकना शुरू कर देते हैं। यदि हम थोड़ी विनम्रता रखेंगे तो शायद अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में हमारी छवि ज्यादा बेहतर होगी।

    भारत के भीतर क्या व कितनी तैयारी हो?

    तैयारी तो हमें रखनी ही पड़ेगी। हमारी एक गलती रही है कि बीते 10-15 साल में हमने जीडीपी का दो प्रतिशत से भी कम हिस्सा सेना की तैयारियों पर खर्च किया है। हर सरकार में मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की संस्कृति बढ़ी है।

    इस तरह के गैरजरूरी खर्चों को कम कर सेना का बजट बढ़ाया जाना चाहिए। हमारे पड़ोसियों चीन, पाकिस्तान और अब बांग्लादेश से हमारे संबंध अच्छे नहीं हैं। हमें अगले पांच-10 साल बहुत काम करना पड़ेगा और सेना की तैयारियों को बढ़ाना होगा।

    इजरायल-ईरान युद्ध के बहाने एक बार फिर सवाल उठ रहा है कि दुनिया में अंतरराष्ट्रीय कानून की अवहेलना क्यों हो रही है?


    जिन देशों पर इसकी जिम्मेदारी है, वे ही इसे तोड़ रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर नियम तय करने वाली सबसे बड़ी संस्था यूएन मेंबर काउंसिल है। इसमें पांच स्थायी सदस्य अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन हैं और दस अस्थायी सदस्य हैं। 14 देश जिसे गलत ठहरा रहे हैं, लेकिन अमेरिका वीटो कर उनकी बात को खारिज कर अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन कर रहा है।

    इसे पालन करवाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी अमेरिका की थी, क्योंकि वर्ष 1945 में दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका के सहयोग से ही अंतरराष्ट्रीय मानदंड तय करने वाली संगठनें बनी थीं, लेकिन अब वही इसका उल्लंघन कर रहा है। इसलिए मैंने अपनी बात की शुरुआत में ही कहा था कि समय स्थितियां बहुत खतरनाक हैं।

    अचानक यह अराजकता क्यों?

    कुछ सालों से यह ट्रेंड आया है। सिर्फ युद्ध या देशों के बीच संघर्ष का मामला ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय कानून से लेकर जलवायु परिवर्तन क्लाइमेट ट्रेडिंग तक हर वैश्विक मुद्दे को लेकर पूरी दुनिया में एक 'ब्रेकडाउन' है, यानी जिसकी लाठी उसकी भैंस। रूस-यूक्रेन पर हमला कर सर्वमान्य अंतरराष्ट्रीय कानून व मानदंडों की धज्जियां उड़ा सकता है। चीन अपने पड़ोसी छोटे देशों के साथ मनमर्जी कर रहा है। गलबन में भी भारत के साथ चीन ने ऐसा ही किया था। उसी तरह इजरायल-ईरान का मामला है।