छोटे किसानों से अभी भी दूर है ICAR का विज्ञान, पुराने तौर-तरीकों का ही बोलबाला क्यों?
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने कई उपलब्धियां हासिल की हैं लेकिन कृषि विज्ञान अभी भी छोटे किसानों तक पूरी तरह से नहीं पहुंच पाया है। देश में 731 कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) खुलने के बावजूद केवल 50% किसान ही उनसे जुड़ पाए हैं। कई केवीके संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं। नई तकनीक अपनाने में भी असमानता है कुछ किसान आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल कर रहे हैं।

अरविंद शर्मा, नई दिल्ली। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने अपने लगभग एक शताब्दी के सफर में कई बड़ी उपलब्धियां दर्ज की हैं। नई फसलों की किस्मों, आधुनिक तकनीक और जलवायु परिवर्तन के अनुकूल उपायों की लंबी फेहरिस्त इसके नाम है, लेकिन सवाल यह है कि क्या कृषि विज्ञान वाकई खेत-खलिहानों तक पहुंच पाया है।
हकीकत यह है कि तमाम शोध और खोज के बावजूद छोटे किसानों की दुनिया में आज भी पारंपरिक अनुभव और पुराने तौर-तरीकों का ही बोलबाला है। आईसीएआर की स्थापना 16 जुलाई 1929 को रॉयल कमीशन ऑन एग्रीकल्चर की सिफारिश पर हुई थी।
मकसद था गांव-गांव में खेती को आधुनिक बनाना। विज्ञान को खेतों और किसानों तक पहुंचाने के लिए 1974 में कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) की जरूरत महसूस की गई। धीरे-धीरे विस्तार हुआ और देशभर में 731 केवीके खुले, लेकिन आधी सदी बाद भी इनसे सिर्फ 50 फीसदी किसान ही जुड़ पाए हैं।
बाकी किसान आज भी पारंपरिक तरीकों और अनुभव पर निर्भर हैं। कई केवीके संसाधनों की कमी, विशेषज्ञों के खाली पदों और धन की कमी से जूझ रहे हैं। नतीजा यह हुआ कि विशाल ढाँचे का प्रभाव सीमित ही रहा।
प्रौद्योगिकी अपनाने में गहरी असमानता
नई तकनीक अपनाने में किसानों के बीच एकरूपता नहीं है। पंजाब और हरियाणा के खेतों में नई किस्मों और आधुनिक मशीनों का इस्तेमाल आम बात है। इसके विपरीत, बिहार, झारखंड और पूर्वोत्तर राज्यों के किसान आज भी पुराने बीजों और पारंपरिक तरीकों पर निर्भर हैं।
यही असमानता किसानों के बीच एक गहरी खाई पैदा कर रही है। कुछ किसान बाज़ार से मुनाफ़ा कमा रहे हैं, जबकि बड़ी संख्या में किसान बुनियादी सलाह से भी वंचित हैं। इस खाई को पाटने की ज़िम्मेदारी आईसीएआर की थी, जो अभी भी अधूरी है।
खेतों में प्रयोगशाला तकनीक विफल
जीनोम संपादित चावल, लिंग-सॉर्टेड वीर्य, ड्रोन छिड़काव और मछली पालन के टीके जैसी खोजें कागज़ पर तो बहुत अच्छी लगती हैं, लेकिन किसानों तक उनकी पहुंच नगण्य है। उच्च लागत और जटिल प्रक्रियाओं के कारण, किसान इन्हें अपनाने से कतराते हैं।
हाल के वर्षों में विकसित 679 नई फसल किस्मों की जानकारी और बीज किसानों तक समय पर नहीं पहुँच पाए। किसानों को यह भी नहीं पता कि कौन सी किस्म उनके क्षेत्र के लिए लाभदायक है।
शोध तो हुआ, पर प्रचार नहीं
आईसीएआर पर मनमानी और नौकरशाही के रवैये के भी आरोप लगते रहे हैं। किसानों की आवाज़ शायद ही सुनी जाती है। शोध की प्राथमिकताएँ ऊपर से तय होती हैं। मिट्टी की गिरती सेहत, पानी की कमी और मौसम की चुनौतियाँ शोध के एजेंडे से बाहर रहीं।
2000 में, खाद्य सुरक्षा मिशन के तहत, बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड में चावल सघनीकरण प्रणाली (एसआरआई) को एक 'चमत्कारी तकनीक' के रूप में प्रचारित किया गया था। कहा गया था कि इससे उपज में 30 से 40 प्रतिशत की वृद्धि होगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
नई उम्मीद
यह अच्छी बात है कि वर्तमान कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस कमी को समझते हुए वैज्ञानिकों को सीधे खेतों में भेजने की पहल की है। गाँवों की ज़रूरतों के हिसाब से शोध को दिशा देने की कोशिश की जा रही है। उम्मीद है कि प्रयोगशालाओं का विज्ञान अब किसानों के भी काम आएगा।
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