आतंकवाद से कराहती मानवता, वैश्विक मानवतावादी दृष्टिकोण से ही विश्व की समस्त समस्याओं का समाधान संभव
विश्व शांति को सबसे अधिक खतरा धार्मिक संघर्षो और राष्ट्र हितों के संकीर्ण सोच से प्रेरित एवं पोषित राष्ट्रवाद से है। विभिन्न धर्मो तथा राष्ट्रों द्वारा अपनी सर्वोच्चता कायम करने की निर्थक प्रतिस्पर्धा मानवता के मर्म को भूलाकर अमानवीयता पर आमादा हो रही है।
देवेंद्रराज सुथार। युद्ध, आतंकवादी हमले और दंगे हमें निरंतर याद दिलाते रहते हैं कि हम एक अशांत समय में रह रहे हैं। अतीत में अनेक चिंतकों ने शांति को नकारात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है। इसमें जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे और इटली के समाज-सिद्धांतकार विलफ्रेडो परेटो का प्रमुख स्थान है। फ्रेडरिक नीत्शे ने जहां संघर्ष को सभ्यता की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करने वाला कारक बताया है तो वहीं विलफ्रेडो परेटो ने शक्ति को अपने लक्ष्यों की प्राप्ति का मार्ग बताया है।
इसका मतलब यह कतई नहीं है कि शांति के सिद्धांत का कोई पक्षधर नहीं है। शांति को सभी धार्मिक उपदेशों में केंद्रीय स्थान प्राप्त है। अत: सभी धर्मो का मूलत: एक ही संदेश है-‘शांति और मानव कल्याण।’ आधुनिक काल भी लौकिक एवं आध्यात्मिक, दोनों क्षेत्रों में शांति के प्रबल पैरोकारों का साक्षी रहा है। इस संदर्भ में अहिंसा के पुजारी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का यह कथन आज भी अति-प्रासंगिक है कि आंख के बदले में आंख पूरे विश्व को अंधा बना देगी।
विश्व में अपनी सर्वोच्चता कायम करने के लिए प्रथम विश्व युद्ध, द्वितीय विश्व युद्ध, भारत-चीन युद्ध 1962, भारत-पाक युद्ध 1965 एवं 1971, क्यूबा का मिसाइल संकट, विश्व पर वर्चस्व के लिए दो महाशक्तियों पूंजीवादी अमेरिका और साम्यवादी सोवियत संघ के बीच प्रचंड प्रतिस्पर्धा की घटनाओं को हम देख चुके हैं। आधुनिक समय में शांति को लेकर लोगों का नजरिया इसलिए नहीं बदला है कि वे इसे एक अच्छा विचार मानते हैं, बल्कि उन्हें शांति की अनुपस्थिति में भारी कीमत भी चुकानी पड़ी है। आधुनिक हालात अतीत की स्थितियों से भी कहीं अधिक संकटग्रस्त हो चुके हैं। हालिया समय में तालिबान आतंकवादी घटनाओं के कारण विश्व शांति के सिर पर संकट का साया मंडराने लगा है तथा शांति को मिलने वाली चुनौतियों ने इसे आज बहुमूल्य बना दिया है।
दरअसल शांति का अर्थ प्राय: युद्ध, दंगा, नरसंहार, कत्ल, शारीरिक प्रहार एवं हिंसात्मक संघर्षो की अनुपस्थिति के रूप में देखा जाता है। चूंकि हिंसा की प्रवृत्ति समाज में हमेशा रची-बसी रहती है इसलिए जाति, लिंग, नस्ल के आधार पर भेदभाव को समाप्त करने के प्रयास होते रहे हैं। हिंसा की बिसात पर कदापि शांति की स्थापना संभव नहीं है। यह एक बुराई है और पूरे विश्व को इस बुराई से दूर करने की आज अत्यंत आवश्यकता है। विश्व शांति को सबसे अधिक खतरा धार्मिक संघर्षो और राष्ट्र हितों के संकीर्ण सोच से प्रेरित एवं पोषित राष्ट्रवाद से है। विभिन्न धर्मो तथा राष्ट्रों द्वारा अपनी सर्वोच्चता कायम करने की निर्थक प्रतिस्पर्धा मानवता के मर्म को भूलाकर अमानवीयता पर आमादा हो रही है।
वैश्विक मानवतावादी दृष्टिकोण से ही विश्व की समस्त समस्याओं का समाधान संभव है। चूंकि कोई भी राष्ट्र सर्वसंपन्न और सर्वशक्तिमान नहीं है, सभी परस्पर अन्योन्याश्रितता और सहयोग, सहानुभूति और सहृदयता पर निर्भर हैं। इस कारण राष्ट्रों के मध्य लालच और ईष्र्या से प्रेरित सोच का अंत कर हमें समस्त धर्मो को लेकर एक बेहतर समझ विकसित करनी होगी, ताकि धर्मो के कार्यो के बीच अनुकूल एकता स्थापित हो सके। संभव हो तो हमें एक मानवीय आदर्श एक धर्म, एक जाति और वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा का प्रतिपालन कर प्रेम और करुणा के दृष्टिकोण को फलीभूत करने की शुरुआत करनी चाहिए।