Hijab Controversy: हिजाब के सामूहिक परित्याग के निहितार्थ, एक्सपर्ट व्यू
बिना हिजाब पहने सार्वजनिक स्थल पर पाए जाने के अपराध में ईरान की संबंधित मोरल पुलिस ने एक 22 वर्षीय युवती को पिछले सप्ताह गिरफ्तार कर लिया था। बाद में पुलिस थाने में उस युवती की मौत के बाद ईरान में बड़ी संख्या में विरोध प्रदर्शन कर रही हैं।

शिखा गौतम। बीते सप्ताह 16 सितंबर को ईरान में महसा अमिनी नाम की एक 22 वर्षीय महिला की पुलिस थाने में संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई। दरअसल अमिनी को सरकारी मानकों के साथ हिजाब संबंधी नियमों का अनुपालन नहीं करने के लिए, संबंधित नियमों के सार्वजनिक कार्यान्वयन की देख-रेख करने वाले इस्लामिक रिपब्लिक आफ ईरान की मोरल पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया गया और उन्हें थाने में रखा गया था। हालांकि पुलिस का कहना है कि अमिनी की मौत दिल का दौरा पड़ने के कारण हुई है। वहीं दूसरी तरफ प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि उसे बुरी तरह से पीटा और प्रताड़ित किया गया था।
अमिनी की मौत के बाद ईरान में बड़ी संख्या में लोगों ने ड्रेस कोड और ड्रेस कानूनों के लिए महिलाओं को हिरासत में लेने और उन्हें परेशान किए जाने के खिलाफ जोरदार तरीके से आवाज उठाई है। हालांकि ये आवाज ईरान के अंदर सुनाई न दे, इसके लिए ईरानी सरकार के द्वारा कुछ इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म (वाट्सएप, फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि) को भी प्रतिबंधित कर दिया गया है।
क्या है ईरान का हिजाब कानून
इस्लामी क्रांति (1978-79) के बाद ईरान ने वर्ष 1981 में एक अनिवार्य हिजाब कानून पारित किया। इस्लामी दंड संहिता के अनुच्छेद 638 में कहा गया है कि महिलाओं के लिए सार्वजनिक रूप से या सड़कों पर हिजाब के बिना दिखाई देना अपराध है। ब्रिटेन के एक प्रसिद्ध समाचार पत्र ने इस माह के आरंभ में बताया था कि ईरानी अधिकारी उन महिलाओं की पहचान करने के लिए सार्वजनिक परिवहन में चेहरे की पहचान करने से जुड़ी तकनीक का उपयोग करने की योजना बना रहे थे जो हिजाब नियमों का ठीक से पालन नहीं कर रही थीं। इससे पूर्व जुलाई में राष्ट्रीय हिजाब और शुद्धता दिवस पर ईरान में व्यापक विरोध देखा गया जहां महिलाओं ने सार्वजनिक रूप से अपने हिजाब को हटाने के लिए इंटरनेट मीडिया का सहारा लिया। कई लोगों ने सार्वजनिक परिवहन में हिजाब नहीं पहनने की तस्वीरें और वीडियो भी पोस्ट किए। ईरानी राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी ने भी जुलाई में ईरान के हिजाब और शुद्धता कानून को नए प्रतिबंधों के साथ लागू करने के लिए एक आदेश पारित किया था। सरकार ने 'अनुचित हिजाब' पर नकेल कसने के साथ ही हाई हील्स और स्टाकिंग पहनने के खिलाफ भी आदेश जारी किया। इस आदेश में महिलाओं के लिए अपनी गर्दन और कंधों को ढकना भी अनिवार्य कर दिया गया है।
सांस्कृतिक कुप्रथाओं को थोपने की अभिव्यक्ति
इस संदर्भ में ईरान के इतिहास को देखें तो पता चलता है कि वर्ष 1936 में तत्कालीन शासक पहलवी शाह ने एक फरमान जारी किया जिसने अपने देश को आधुनिक बनाने और राष्ट्रीय पहचान की भावना पैदा करने के लिए पर्दा अथवा हिजाब पर रोक लगा दी। साथ ही उस दौर में ईरान में पुरुषों के लिए यूरोपीय शैली की टोपियां भी अनिवार्य कर दी गई थीं। यह आदेश कुछ साल बाद समाप्त हो गया, जब शाह को निर्वासन के लिए मजबूर किया गया और उनके छोटे बेटे मोहम्मद रजा पहलवी ने सत्ता संभाली। पहलवी ने अपने पिता की पंथनिरपेक्ष और पश्चिमी-समर्थक वाली छवि को आगे बढ़ाया। परंतु पिछली सदी के सातवें दशक में जैसे-जैसे सरकार विरोधी अभियानों में तेजी आई, वैसे-वैसे कई महिलाओं ने जानबूझकर पूरी तरह से ढकी हुई चादरों को पहनना शुरू किया। इसके बाद राज्य द्वारा हिजाब प्रथा को लागू करने से संबंधित विमर्श को आगे बढ़ाया। राजशाही समाप्त होने के बाद यहां महिलाओं की पोशाक को लेकर एक नए युग की शुरुआत हुई। सार्वजनिक विरोध प्रदर्शनों के बावजूद अनिवार्य हिजाब पहले बल द्वारा और अंततः कानून द्वारा क्रांतिकारी प्रणाली की आवश्यक विशेषताओं में से एक बन गया। इसका उल्लंघन करना अपराध के दायरे में आ गया जिसके लिए दो महीने की जेल की सजा का प्रविधान है। इस प्रकार से अनिवार्य हिजाब ईरान के तथाकथित नेताओं द्वारा कानूनी और सांस्कृतिक कुप्रथाओं को थोपने की अभिव्यक्ति था।
अफगानिस्तान की दशा
ईरान के अतिरिक्त अफगानिस्तान में हिजाब सभी लड़कियों और महिलाओं के लिए अनिवार्य है। दरअसल 20वीं सदी के मध्य में शहरी क्षेत्रों में कई महिलाओं ने सिर ढकने का काम नहीं किया, परंतु 1990 के बाद गृह युद्ध के साथ ही यह समाप्त हो गया। हिजाब अधिनायकवादी तालिबान शासन का प्रतीक बन गया, जिसे महिलाओं के लिए सख्ती से लागू किया गया। इसके साथ ही मलेशिया में भी अनकहे तौर पर ही सही, किंतु हिजाब (जिसे आमतौर पर वहां तुदुंग कहा जाता है) महिलाओं के लिए एक प्रकार से अनिवार्य है। उल्लेखनीय यह है कि मलेशिया में हिजाब को लेकर यह परिवर्तन मूलतः 1979 के ईरानी क्रांति के बाद से ही देखा जा सकता है। इन कुछ चुनिंदा इस्लामिक देशों के विपरीत कुछ अन्य इस्लामिक देश जिनमें टर्की (अब तुर्किए) शामिल है, जहां एक पंथनिरपेक्ष राज्य के तौर पर वर्ष 2013 के अंत तक विश्वविद्यालयों और सार्वजनिक भवनों में हिजाब पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। इसमें पुस्तकालय तथा सरकारी भवन भी शामिल थे। इसके साथ ही अजरबैजान और उजबेकिस्तान में भी हिजाब को लेकर कई प्रतिबंध लगाए गए हैं। इन देशों में जहां एक ओर उजबेकिस्तान में धार्मिक कपड़ों, जिनमें नकाब और हिजाब शामिल हैं, उनकी खरीद-बिक्री पर पाबंदी है, वहीं दूसरी ओर अजरबैजान में हिजाब पहनी हुई महिलाओं को नौकरी के अवसरों में भेदभाव का सामना भी करना पड़ता है। हालांकि इन दोनों ही देशों में सरकारों के इस रवैये की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रों में आलोचना भी की गई।
भारत में भी विवाद
भारत में भी हिजाब प्रथा पर लंबे समय से बहस जारी है। हमारे यहां इस संबंध में कोई कानून नहीं है, परंतु कुछ राज्यों में शिक्षण संस्थानों में अनेक मुस्लिम महिलाओं द्वारा हिजाब पहन कर पहुंचने का कुछ लोगों ने इस आधार पर विरोध आरंभ किया कि शिक्षण संस्थानों में किसी भी प्रकार के धार्मिक पोशाक की अनुमति नहीं होनी चाहिए। इस वर्ष फरवरी में उस समय यह बहस और तेज हो गई जब कर्नाटक के एक शिक्षण संस्थान में पढ़ने वाली छात्राओं के एक समूह ने संबंधित शिक्षण संस्थान के प्रबंधन से संस्थान परिसर में हिजाब पहनने की अनुमति मांगी, परंतु उनकी इस मांग को अस्वीकार कर दिया गया। इस घटना के बाद इस विवाद ने कर्नाटक और लगभग संपूर्ण भारत में ही सार्वजनिक स्थानों पर धार्मिक पहनावे को लेकर एक तीव्र बहस छेड़ दी। देश भर में विभिन्न स्थानों पर सरकारी कामकाज और शिक्षण संस्थानों में हिजाब को पहले जाने या नहीं पहने जाने को लेकर तमाम बुद्धिजीवियों के तर्क सामने आने लगे।
इस संदर्भ में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक निर्णय सुनाया है कि एक ऐतिहासिक मामले में हिजाब इस्लाम के लिए "आवश्यक" नहीं है, जिसके पूरे देश में निहितार्थ हो सकते हैं। न्यायालय ने राज्य सरकार के उस आदेश को भी कायम रखा जिसमें कक्षाओं में सिर ढकने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। यह निर्णय के बाद भारत में भी अलग अलग प्रकार की प्रतिक्रियाएं सामने आई थी। इसी वर्ष के आरंभ में कर्नाटक के एक कालेज ने हिजाब पहनकर मुस्लिम लड़कियों के प्रवेश पर रोक लगाने के निर्णय का विरोध किया गया था। इस मामले ने भी धीरे-धीरे तूल पकड़ लिया, जिससे राज्य प्रशासन को कई दिनों के लिए स्कूल और कालेज में अध्ययन कार्य को रोकना पड़ा था। इस संदर्भ में एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि वर्तमान में इस मामले में उच्चतम न्यायालय में सुनवाई जारी है।
[दत्तोपंत ठेंगड़ी फाउंडेशन से संबद्ध]
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