Move to Jagran APP

आज भी नहीं भूलती है हाशिमपुर की त्रासदी, जब हिंडन में तैर रही थी लाशें

कोशिश होनी चाहिए कि अल्पसंख्यक समुदाय खुद को बराबर का भागीदार महसूस करे और वह संविधान से मिले उन अधिकारों का उपयोग करे जो सभी नागरिकों को हासिल हैं।

By Kamal VermaEdited By: Published: Wed, 31 May 2017 11:20 AM (IST)Updated: Wed, 31 May 2017 05:26 PM (IST)
आज भी नहीं भूलती है हाशिमपुर की त्रासदी, जब हिंडन में तैर रही थी लाशें
आज भी नहीं भूलती है हाशिमपुर की त्रासदी, जब हिंडन में तैर रही थी लाशें

कुलदीप नैयर

loksabha election banner

हाशिमपुरा की त्रासदी 1984 के सिख विरोध दंगों जितनी ही गहरी है। दोनों अल्पसंख्यक समुदायों ने अपने घावों को भरने की इजाजत नहीं दी है क्योंकि ये उन्हें उस समय हुए नरसंहारों की याद दिलाते रहते हैं। उत्तर प्रदेश पुलिस की प्रोविंसियल आम्र्ड कोंस्टाबुलारी (पीएसी) इस इंतजार में है कि मामला आज न कल शांत हो जाएगा और राष्ट्र इसे इतिहास का काला पन्ना मानकर आगे चल पड़ेगा। अच्छी तरह याद है। यह मई की आखिर का एक दिन था जब मैं नरसंहार के कारण 1987 में मेरठ गया। लौटते वक्त शहर के बाहर कुछ लोगों ने मुझे रोका और हाशिमपुरा मुहल्ले की ओर इशारा किया। उनका कहना था कि इस जगह पीएसी ने 42 मुसलमानों की जानबूझ कर, खुलेआम हत्या की है। मैं स्तब्ध रह गया जब मैंने नहर और हिंडन नदी में कुछ लाशें तैरता पाया।

लोगों ने बताया कि यह सुनियोजित हत्या थी। कहानी यह है कि सेना और पुलिस ने मेरठ के मुस्लिम बहुल हाशिमपुरा मुहल्ले से लोगों के एक समूह को पकड़ लिया और उसे पीएसी के हवाले कर दिया। इसमें से एक ट्रक को नहर किनारे ले जाया गया और लोगों को नजदीक से गाली मार दी गई। शायद आजाद भारत में पुलिस हिरासत में हुए सबसे बड़े नरसंहारों से एक यह एक था और इसमें 42 लोग मारे गए, लेकिन 30 साल पहले की उस तनाव भरी दुपहरी से पहले हुई घटनाओं पर गहरी नजर डालने से इस नरसंहार के पीछे के उद्देश्यों के कुछ उन पहलुओं की झलक मिलती है जो ज्यादातर रिपोर्ट नहीं हुई हैं।

घटना के पीछे के उद्देश्यों को लेकर आम राय वही है जिसका उल्लेख उत्तर प्रदेश पुलिस की चार्जशीट में है। इसमें कहा गया है कि उस दिन पीएसी पर हमला किया गया था और उनकी दो रायफलें छीन ली गई थीं। चार्जशीट के मुताबिक, इसके बाद, 22 मई 1987 को अवैध हथियार बरामद करने के लिए हाशिमपुरा में खोज शुरू की गई। लेकिन एक और पहलू था, उसका भी चार्जशीट में जिक्र है। ज्यादा तहकीकात नहीं की गई। यह पहलू था प्रभात कौशिक नामक युवक की मौत जो अचानक आई गोली लगने से उस समय हुई जब वह हाशिमपुरा मोहल्ले से सटे एक मकान की छत पर खड़ा था।

विशेषज्ञों ने, जिसमें कुछ पुलिस कर्मचारी भी शामिल हैं, इस घटना को भारत में पुलिस हिरासत में होने वाली हिंसा की सबसे बुरी घटनाओं में से एक बताया है। सुनवाई 1996 में जाकर शुरू हुई और कुछ ही साल पहले सत्र न्यायालय ने फैसला दिया और सभी अभियुक्तों को सभी अपराधों से बरी कर दिया है। सामाजिक कार्यकर्ताओं की राय में यह न्याय की विफलता है। स्वाभाविक है कि जिंदा बचे या मारे गए लोगों के रिश्तेदारों की प्रतिक्रिया भी वही थी जिसकी उम्मीद की जा सकती थी क्योंकि फैसला देने में 28 साल लगाया गया और सभी अभियुक्तों को छोड़ दिया गया।

बहुत सारे परिवारों को यह उम्मीद नहीं है कि कुछ नया होगा और वे कहते हैं कि जांच में लापरवाही हुई वास्तव में, मेरठ के तत्कालीन सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस विभूति नारायण राय ने घटना पर एक किताब लिखी है जिसमें उन्होंने कहा है, यह महसूस करने में पांच-छह साल लग गए कि मेरा यह विश्वास कि हत्यारों को कठोर सजा मिलेगी, महज एक विश्वास ही थी। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा, यह साफ हो गया कि भारतीय शासन दोषियों को सजा देने में कोई दिलचस्पी नहीं रखता। कइयों ने अपने को आपराधिक लापरवाही के पीछे छिपा लिया और यह उनके काम आया। रिपोर्ट बताती है कि आज भी हाशिमपुरा में रहने वाले उस दिन की घटना से आहत हैं और कहते हैं कि पीएसी संगठित थी और योजना बना कर आई थी। यह क्षेत्र यू-आकार का है और यहां से लोगों का भागना कठिन है।

हथकरघा की आवाज यहां की रोज की जिंदगी का हिस्सा है। ज्यादातर मकान खराब हालत में हैं और उनके रंग उजड़ गए हैं। मानो लोगों को अच्छी जिंदगी की उम्मीद नहीं रह गई है। यह हमें जलियांवाला बाग हादसे की याद दिलाता है जिसमें 1,500 निदरेष लोग चहारदीवारी के भीतर मार दिए गए थे (राजकुमार फिलिप जब घटना के बाद अपनी पत्नी, महारानी के साथ जलियांवाला बाग आए तो उनकी टिप्पणी थी कि संख्या बढ़ा-चढ़ा कर बताई गई है) बाद में, मैं जब जनरल ओडायर से मिला और उससे नरसंहार का उल्लेख किया तो उसने कोई पछतावा नहीं दिखाया।

हाशिमपुरा की घटना में बच गए लोगों का ब्यौरा सुनने पर हृदय फट जाता है। कुछ लोग बताते है कि सैकड़ों लोगों को कई सप्ताह तक जेल में रखा गया, उनसे पूछताछ की गई और उन्हें मारा-पीटा गया क्योंकि वे मुसलमान थे। लोगों को उनके घर से घसीट कर बाहर लाया गया और पुलिस स्टेशन ले जाया गया। चश्मदीद गवाहों के मुताबिक, हत्याएं दो चरणों में की गई-एक मुरादनगर के गंग नहर और दूसरी ¨हिंडन पर। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में हुई सिख विरोध दंगों के दौरान दिल्ली में तीन हजार लोगों के मारे जाने की सरकारी घोषणा हुई थी। संख्या अधिक भी हो सकती है। अपराध करने वालों में शीर्ष कांग्रेसी भी शामिल थे।

यहां तक राजीव गांधी पर भी उंगली उठी थी कि उनके निर्देश पर सेना को देर से तैनात किया गया ताकि दंगाइयों को खुली छूट मिल सके। वे मुकदमें खोले जा रहे हैं जिन्हें बंद कर दिया गया था। लेकिन किसी को अब तक सजा नहीं मिली है। अधिकारियों की मिली भगत के कारण सबूत मिटाने दिया गया। 1984 के दंगों के बहुत से पीड़ित अभी भी पुनर्वास पाने की कोशिश में हैं। हाशिमपुरा में भी कोई अंतर नहीं है। हादसे से बचे लोग सामान्य जीवन के लिए अब भी संघर्ष कर रहे हैं। नाउम्मीदी के बीच भी उम्मीद है कि दिल्ली हाईकोर्ट में लंबित याचिका पर उन्हें आज न कल न्याय मिलेगा।

मेरा अनुभव है कि हादसा कुछ समय तक लोगों के सामने रहता है। फिर यह पृष्ठभूमि में चला जाता है। एक और हादसा होता है तो अतीत फिर से जिंदा हो जाता है। कोई स्थायी समाधान दिखाई नहीं देता। मैं असंख्य दंगों का मूक गवाह हूं जिसमें पुलिस की मिलीभगत दिखी है। हाशिमपुरा को रोका जा सकता है अगर दोनों समुदाय यह महसूस करें कि उनके बीच की दुश्मनी एक से दूसरी चीज की ओर ले जाएगी और देश के मूल्यों-सेकुलरिज्म और लोकतंत्र को नष्ट करेगी। यह कोशिश होनी चाहिए कि देश का अल्पसंख्यक समुदाय अपने को बराबर का भागीदार महसूस करें और वह संविधान से मिले उन अधिकारों का वह उपयोग करे जो सभी नागरिकों को हासिल हैं।

(लेखक जाने माने स्तंभकार हैं)


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.