2050 तक भारत में आधा रह जाएगा अनाज का उत्पादन, जानें क्यों
रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के चलते प्रदूषण, भू-क्षरण और सूखा पड़ने की वजह से पृथ्वी के तीन-चौथाई भूमि क्षेत्र की गुणवत्ता खत्म हो गई है। सदी के मध्य तक यह आंकड़ बहुत अधिक बढ़ने की आशंका है।
[जागरण स्पेशल]। अगर यूरोपीय कमीशन के ज्वांइट रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट वर्ल्ड एटलस ऑफ डेजर्टीफिकेशन के आंकड़ों को सही मानें तो आने वाले कुछ ही वर्षों में दुनियाभर में खाने के लाले पड़ने वाले हैं। सबसे चिंताजनक बात यह है कि भारत, चीन और उप-सहारा अफ्रीकी देशों में स्थिति सबसे गंभीर होगी।
रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के चलते प्रदूषण, भू-क्षरण और सूखा पड़ने की वजह से पृथ्वी के तीन-चौथाई भूमि क्षेत्र की गुणवत्ता खत्म हो गई है। सदी के मध्य तक यह आंकड़ बहुत अधिक बढ़ने की आशंका है। अगर ऐसे ही भूमि की गुणवत्ता खत्म होती रही तो इससे कृषि पैदावार को नुकसान होगा। 2050 तक वैश्विक अनाज उत्पादन काफी कम हो जाएगा।
बड़ी विडंबना
भविष्य में खाद्यान्न संकट उत्पन्न होने की आशंका के पीछे सबसे बड़ा हाथ कृषि का ही है। इसके बाद जंगलों का कटाव और शहरों का विकास जिम्मेदार है। पृथ्वी की एक-तिहाई जमीन फसलों और पशुओं के चारे की घास से पटी हुई है। इसके बावजूद जलवायु परिवर्तन की वजह से अन्न का उत्पादन कम होने की आशंकाएं हैं।
बदलावों की दरकार
इस भयावह स्थिति से बचने के लिए मिट्टी संरक्षण, टिकाऊ जमीना और जल के सीमित उपयोग की नीतियां कृषि, जंगल और जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में लागू करनी होंगी। अमूल्य संसाधनों के उपयोग के तौर-तरीके बदलने होंगे।
बढ़ती आबादी बड़ी त्रासदी
पृथ्वी पर बढ़ रही लोगों की तादाद के चलते हर तरफ मानव बसावट फैलती जा रही है। इससे जमीन की गुणवत्ता खत्म हो रही है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते कभी सूखा तो कभी बाढ़ की वजह से धरती अपनी उर्वरकता खो रही है। ऐसी जगहें धीरे-धीरे रहने लायक नहीं रह जाएंगी। यह स्थिति आगे इतनी भयावह हो सकती है कि स्थानीय खाद्यान्न व्यवस्था ही ठप पड़ जाए। इससे लाखों लोगों को अपना घर-बार छोड़कर दूसरे इलाकों में शरण लेनी पड़ जाएगी।
शिथिल बैठीं दुनियाभर की सरकारें
संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास एजेंडे के तहत दुनियाभर के राष्ट्राध्यक्षों ने भूमि क्षेत्र को रेगिस्तान बनने से बचाने, भूमि व मिट्टी की गुणवत्ता लौटाने के प्रयास करने के लिए प्रतिबद्धता दिखाई थी। इस एजेंडे के तहत उस भूमि को भी रखा गया था जो मरुस्थल बन गई है, जहां सूखा अथवा बाढ़ का प्रकोप रहता है। उनका लक्ष्य था कि 2030 तक समूची पृथ्वी के भूमि क्षेत्र को उसकी गुणवत्ता लौटाई जा सके। इसके बावजूद अब तक किसी भी देश ने इस संबंध में कोई ठोस कदम नहीं उठाया है।