बढ़े कदम, चले हाथ और निखर गया प्रख्यात कवि भवानी प्रसाद मिश्र के गांव का घाट
भवानी प्रसाद मिश्र ने इसी घाट पर बैठकर अपनी कई कालजयी रचनाओं को शब्द दिए। गांव का पटेघाट और वहां बने मंदिरों का तो इससे भी पुराना ज्ञात इतिहास रहा है। समय के साथ घाट और मंदिर जीर्ण-शीर्ण हो गए।

बलराम शर्मा, भोपाल। बढ़ाओ कदम लो चलाओ हाथ, आता है सूरज तो जाती है रात, किरणों ने झांका है होगा प्रभात। प्रख्यात कवि और गांधीवादी विचारक भवानी प्रसाद मिश्र की इन प्रेरणादायी पंक्तियों का अनुसरण उन्हीं के गांववालों ने किया। उनका जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में नर्मदा नदी के किनारे बसे गांव खरखेड़ी टिगरिया में हुआ था। नर्मदा पर बने घाट और 200 साल पुराने मंदिर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुंच चुके थे। उनके जीर्णोद्धार के लिए एक बुजुर्ग संत ने कदम बढ़ाए तो धीरे-धीरे पूरे गांव के लोगों के हाथ आपस में मिले। उनका कारवां इस कार्य में जुड़ गया और बिना किसी सरकारी मदद के घाट और मंदिर का कायाकल्प हो गया।
भवानी प्रसाद मिश्र ने इसी घाट पर बैठकर अपनी कई कालजयी रचनाओं को शब्द दिए। गांव का पटेघाट और वहां बने मंदिरों का तो इससे भी पुराना ज्ञात इतिहास रहा है। समय के साथ घाट और मंदिर जीर्ण-शीर्ण हो गए। इन्हें देख यहां रहने वाले बुजुर्ग संत स्वामी ब्रह्मानंद उदासीन ने मन ही मन संकल्प ले लिया कि यहां जीर्णोद्धार किया जाएगा। उन्होंने गांव के कुछ लोगों से बातचीत कर उन्हें विश्वास में लिया, उन्हें इस बात के लिए सहमत किया। फिर उन्होंने गांववालों के साथ बैठक की। उन्होंने बताया कि 200 फीट लंबाई और 100 फीट चौड़ाई वाले घाट की सीढि़यां टूट- फूट चुकी हैं। मंदिर की स्थिति भी ठीक नहीं है। इसकी देखभाल सरकार के भरोसे छोड़ने के बजाय खुद ही सुधारने का प्रयास करना चाहिए।
..और कारवां बन गया
गांव में रहने वाले विनय गौर के मुताबिक इतने बड़े घाट की मरम्मत मुश्किल कार्य था। शुरू में संत खुद घाट सुधारने के लिए जुट गए। पत्थर उठाने लगे। उन्हें देखकर कुछ युवक भी सहयोग करने लगे। संत और युवकों को देखकर गांव के लोगों ने भी घाट पर आकर पत्थर लगाने शुरू कर दिए। कुछ ही दिनों में सबसे क्षतिग्रस्त हिस्से की मरम्मत कर दी गई। इसके बाद जो फर्श उखड़ रहे थे, सीढि़यां कमजोर हो गई थीं, उन्हें सुधारना शुरू किया गया। अब तो लोगों में सहयोग करने की होड़ लग गई। लोगों ने सीमेंट की बोरियां दान करना शुरू कर दिया। कुछ लोगों ने रपये भी दिए। जो दान नहीं कर सकते थे, उन्होंने श्रमदान शुरू कर दिया। कुछ दान के साथ-साथ श्रमदान भी करने लगे।
जब इस बात की जानकारी पास के गांवों के लोगों को लगी तो वे भी घाट पर निर्माण सामग्री देने आने लगे..कारवां बनता गया। राजमिस्त्री का काम करने वाले श्यामलाल और मनोहर ने काम का मेहनताना लेने से मना कर दिया। एक आकलन के मुताबिक करीब 15 लाख रपये की निर्माण सामग्री लोगों के सहयोग से एकत्रित हो गई। देखते ही देखते समय के साथ खंडहर हो रहे घाट और मंदिरो की रंगत बदल गई। अब सब कुछ सुंदर हो चुका है। यह सब काम साल भर के अंदर पूरा हुआ और कोरोना काल में काम अपेक्षाकृत तेज गति से हुआ।
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