Father's Day 2019 : बाबूजी से पापा बनने का सफर, जैसे- जिंदगी धूप तुम घना छाया
पिता जीवन के अर्थशास्त्र को ऐसे संभालते हैं कि घर स्वर्णभूमि बन जाता है। पिता वह वट वृक्ष है जिसकी छांव में समस्त वेद ग्रंथ और पुण्य फलित होते हैं।
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल] पिता जीवन के अर्थशास्त्र को ऐसे संभालते हैं कि घर स्वर्णभूमि बन जाता है। हर संभावना को संभव करने की सक्षमता और शुभाशीष से अमरत्व देने की सामथ्र्य लिए पिता वह वट वृक्ष है, जिसकी छांव में समस्त वेद, ग्रंथ और पुण्य फलित होते हैं। वाकई, पिता हैं तो हमारे हिस्से का आकाश उज्ज्वल है, सूर्य तेजस्वी है, सृष्टि में प्राणवायु है और हर देहरी गोकुल है। बाललीला करते कृष्ण को मुग्ध निहारते वासुदेव और नंद के रूप में पिता, संतान का सर्वस्व है..
पापा हर उम्र की वह संजीवनी है, जो जीवटता से जिंदगी जीने का माद्दा पैदा करती है। व्याख्या करने से पहले तमाम शब्दकोश भी सीमित हो जाते हैं। मात्र जन्म ही नहीं, बल्कि पृथ्वी पर हमारी उपस्थिति को भी अर्थ मिलते हैं... जब पिता सस्वर स्फुटित होते हैं। समय की हांडी रिश्तों को पकाती है, पर बाबूजी से पापा बनने के सफर को बड़े बदलावों ने बदला है। नए दौर में सबसे कंफर्टेबल रिश्ता पिता के साथ ही बना है।
मौन से मुखर होता प्रेम
धीर-गंभीर, शांत, विमर्श की मुद्रा लिए पिता किसी भी परिवार का वह स्तंभ थे, जिन्हें हिला पाना मुश्किल था,पर परिवार की बदली परिभाषाओं और जरूरतों ने पिता को लचीला और ईजी बनाया है। ऐसा नहीं कि प्रेम कोई टाइम जोन में बंधा कटेंट है, जो वर्तमान में पनपा है। सुशीला कहती हैं कि हम सात भाई-बहन थे। बाबूजी बहुत कम बोलते और अनुशासन भी ऐसा कि उनकी आहट हमें ठिठका देती...।
सालों तक तो यही लगता रहा कि प्यार तो सिर्फ अम्मा ही करती हैं, पर विदाई में बाबूजी ऐसे रोए कि वहां खड़े मेरे पति तक सुबक उठे। आज के समय में पिता उपलब्ध हैं। बच्चों की पढ़ाई से लेकर उनके रिलेशनशिप तक में वह आसानी से काउंसलिंग कर लेते हैं। दोस्ती पहली शर्त बनी है इस संवादी रिश्ते की। हालांकि, तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि पिता और बच्चों के रिश्ते में संवेदना, स्नेह और संस्कार मूल है वह अनुशासन, जो जीवन संवारता था, अब प्राथमिकता में नहीं रहा।
घरेलू वातावरण को पिता के बदले वर्जन ने सकारात्मक परिवर्तन दिए हैं। आज बच्चे अपनी बातों को खुलकर शेयर करते हैं और पिता भी मात्र फाइनेंशियल मैनेजर नहीं हैं। खुलकर प्रेम व्यक्त करना रिश्ते को स्वस्थ करता है, पर पिता अप्रत्यक्ष लर्निंग का भी सबसे बड़ा संस्थान हैं। बदले स्वरूप में पिता का गौरव, गरिमा और भूमिका पिछले दशकों की तरह ही बनी रहे, यह बड़ी जिम्मेदारी है। मनोविज्ञान भी आपसी संतुलन को वरीयता देता है। इसलिए प्रेम मुखर तो हो पर अभिव्यक्ति सीमित हो।
मदर्स टच के मॉडर्न पिता
प्रोफेशनल डिमांड और जीवनशैली के बदलावों ने पिता के रोल को री-डिजाइन किया है। बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करने से लेकर बेड टाइम स्टोरी तक की जिम्मेदारियों से पुरुषों को कोई गुरेज नहीं है। उनकी इस शैली ने फैमिली लाइफ को ज्यादा सुगम बनाया है। पहले दुलार, मनुहार, केर्यंरग, हेल्थ इनपुट्स और ग्रोथ डिसकशन मां का ही क्षेत्र था..., पर बड़ा सुखद है एक पिता में ममत्व का जगना और उसे उसी सहजता से अभिव्यक्त करना।
चौंतीस वर्षीया निलय इवेंट मैनेजर हैं। वह कहते हैं, मेरी वाइफ पत्रकार हैं, उनके लंबे वर्किंग डे और गुड़गांव की भागमभाग ने मुझे घर संभालने पर फोकस करवाया। पहले मैंने खुद को बिल्कुल वैसा ही पति और पिता बनाया जैसा मैंने अपने घर में अपने पिता को देखा था...।
थोड़ा मुश्किल लगा खुद को समझाना कि सहयोग का मतलब फैमिली लीडरशिप का खोना नहीं है और आज मैंने अपने बच्चे को हर दृष्टिकोण से संभाला है। वास्तव में जिस रिश्ते को ईश्वर ने रचा है, उसमें बेवजह की सख्ती और अनुशासन लाना उचित नहीं। बच्चे भी ईजली कम्युनिकेट करते हैं और एक अच्छी बांडिंग ने एकाकीपन, तनाव, डिप्रेशन और मानसिक परेशानियों के दूर करने में स्ट्रांग भूमिका निभाई है।
अभिमान-स्वाभिमान और पिता
अरे पापा, आपको कुछ नहीं आता-जाता। मम्मी सही कहती हैं, आप प्रैक्टिकल नहीं हैं। ’ अगर पापा के भरोसे होते तो हो चुका था। ’ पापा, आप प्लीज चुप रहिए, हम सब कर लेंगे। बेहद आहत करते हैं ऐसे वाक्य, जो हम अनजाने और आदतन कह जाते हैं। विवश कर देती है किसी भी परिवार और बच्चे की यह मनोदशा, जो एक व्यक्ति को उसकी ही आंखों में गिरा देती है।
जरूरी है यह समझना, स्वीकारना और व्यवहार में लाना कि गृहस्थ जीवन ही जिम्मेदारियों और दायित्वों को निभाने वाला व्यक्ति असाधारण एवं बहुमूल्य है। पिता होना संतान के लिए अभिमान और पिता स्वयं के लिए एक स्वाभिमान है। होममेकर चित्रा कहती हैं, मैंने अपने जीवन में अपने पिता को बात-बात पर झिड़की खाते देखा। कभी मां तो कभी चाचा या अन्य सदस्यों द्वारा..., जबकि वह स्वभाव से बेहद सरल और सहज थे। शायद इसीलिए उन्होंने कभी प्रतिकार नहीं किया, पर मैंने बड़े होने पर पिता के लिए बहुत मानसिक संघर्ष किया और सबको टोकना शुरू किया...।
सच यह है कि हम कितने भी आधुनिक क्यों न हो जाएं, पर सम्मान कायम रहना चाहिए। पिता का सम्मान समूचे परिवार को बिहेविरल डिसिप्लिन की तरफ प्रेरित करता है। फादर्स डे के मायने-प्रासंगिकता किसी बहस में न पड़ें। हमारी संस्कृति सर्वदा अपनत्व और संस्कार में विश्वास करती है, पर यह एक दिन भी अविस्मरणीय बनाना हमारी जरूरत है। हर बच्चा, किसी भी आयु का हो पिता के प्रति संकल्पित हो कि वह उनकी आर्थिक, सामाजिक और स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताएं सौहाद्र से पूर्ण करेगा।
हर स्थिति, परिस्थिति और परिवेश में बिना शर्त सम्मान देंगे। यह दृढ़ निश्चय करें। भाषा और व्यवहार सदैव शालीन रहे। संतान की उपलब्धियों में पिता का बड़ा शेयर है... कृतज्ञता अभिव्यक्त करें। भौगोलिक दूरियां मैटर नहीं करतीं यदि मनोभाव अच्छे हों... संपर्क बनाए रखें।
लेखिका- डॉ. लकी चतुर्वेदी बाजपेई
(साइकोलॉजिकल काउंसलर व कॉर्पोरेट ट्रेनर)
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